जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस नहीं चला सकी प्रभावी चुनाव अभियान

(कल से आगे) 


यदि जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणामों की बात करें तो वहां भी कांग्रेस की कारगुज़ारी बेहद घटिया रही है। 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में इस राज्य में पार्टी ने 12 सीटें जीती थीं, परन्तु इस बार वह मात्र 6 सीटें जीतने में सफल हुई जबकि राज्य में उसने कुल 39 सीटों पर चुनाव लड़ा था। जम्मू में कांग्रेस ने 29 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। यहां से वह मात्र एक सीट ही जीत सकी, जबकि उसकी सहयोगी नैशनल कांफ्रैंस ने जम्मू में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था और इनमें से 7 सीटें जीतने में सफल रही है। कश्मीर घाटी में कांग्रेस ने 10 सीटों पर चुनाव लड़ा था और वहां 5 सीटें जीतने में सफल रही, जबकि नैशनल कांफ्रैंस ने कश्मीर घाटी में 39 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उनमें से वह 35 सीटें जीतने में सफल हुई। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर की कुल 90 विधानसभा सीटें हैं और इनमें से 7 सीटों पर कांग्रेस तथा नैशनल कांफ्रैंस के बीच दोस्ताना मुकाबला भी हुआ था और इन 7 सीटों में भी भाजपा तथा कांग्रेस का मुकाबला करते हुए नैशनल कांफ्रैंस 4 सीटें जीतने में सफल रही। नैशनल कांफ्रैंस ने जम्मू-कश्मीर में कुल 42 सीटें जीती हैं। भाजपा 29 तथा पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी तथा मुफ्ती महबूबा की पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी 3 सीटें जीतने में सफल रही। सी.पी.आई.एम. तथा आम आदमी पार्टी भी एक-एक सीट जीतने में सफल रहीं। भाजपा ने राज्य में 35.64 प्रतिशत, कांग्रेस ने 11.97 प्रतिशत, पीपुल्स डैमोके्रटिक पार्टी ने 8.87 प्रतिशत तथा नैशनल कांफ्रैंस ने 23.43 प्रतिशत वोट प्राप्त किए हैं। 
उपरोक्त तथ्यों की रौशनी में यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की कारगुज़ारी अधिक बेहतर नहीं रही। उसका बड़ा कारण भी यह है कि उस राज्य में भी कांग्रेस हाईकमान तथा उसका स्थानीय नेतृत्व प्रभावशाली ढंग से चुनाव अभियान चलाने में विफल रहा। नैशनल कांफ्रैंस  पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उसने अधिक सीटें तो ले लीं, परन्तु वह मात्र 6 सीटें ही जीत सकी। जम्मू, जहां कांग्रेस अधिक सीटों पर लड़ रही थी, वहां राहुल ने एक भी रैली नहीं की। उमर उब्दुल्ला ने कांग्रेस को ज़ोर देकर कहा भी था कि वह जम्मू की ओर ध्यान दे, परन्तु कांग्रेस पर कोई असर नहीं हुआ। 
यदि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के स्थानीय वरिष्ठ नेताओं की कारगुज़ारी को देखें तो वह भी बेहद निराशाजनक दिखाई देती है। कांग्रेस अध्यक्ष रमन भल्ला तथा वरिष्ठ नेता चौधरी लाल सिंह जम्मू-कश्मीर में विगत समय में हुए अधिकतर चुनाव हारते ही रहे हैं। रमन भल्ला ने 2014 के बाद राज्य में कोई चुनाव नहीं जीता और चौधरी लाल सिंह भी 2019 के बाद कोई चुनाव नहीं जीत सके। इस बार रमन भल्ला ने आर.एस. पुरा से विधानसभा का चुनाव लड़ा था और इस चुनाव में भी भाजपा से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 
इन चुनावों में कांग्रेस की समूची कारगुज़ारी का जायज़ा लेने के बाद यह बात सामने आती है कि 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस चाहे पहले से अपनी सीटें दोगुणा करने में सफल रही, परन्तु अभी भी वह राष्ट्रीय स्तर पर तथा राज्यों की निचले स्तर पर अपना मज़बूत संगठन बनाने तथा बेहतर चुनाव रणनीति बनाने में नाकाम ही रहती है। कांग्रेस ने चाहे वरिष्ठ दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना अध्यक्ष चुन लिया है, परन्तु वह अपनी अधिक आयु के कारण तथा दक्षिण भारत से संबंधित होने के कारण प्रभावशाली ढंग से कांग्रेस संगठन को चलाने तथा इसे मज़बूत करने में अभी तक सफल नहीं हो सके। इसी प्रकार राहुल गांधी ने चाहे अपनी दोनों भारत जोड़ो यात्राओं के दौरान अपने कद-बुत्त में वृद्धि की है और उसी द्वारा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भाजपा के खिलाफ बनाए जा रहे वृत्तांत को भी देश के बड़ी संख्या में लोग समझने लगे हैं, परन्तु अभी भी वह नरेन्द्र मोदी के मुकाबले अधिक प्रभावशाली नेता नहीं बने। शायद इसी कारण कांग्रेस संगठन में भी उनकी अधिक रिट अभी तक भी चलती दिखाई नहीं देती। विभिन्न राज्यों  के स्थानीय नेता उनकी अधिक परवाह नहीं करते। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की ओर से लड़े गए कुछ अन्य विधानसभाओं चुनावों की बात करें तो यह दिखाई देता है कि कांग्रेस के बड़े स्थानीन नेता पार्टी को समूचे तौर पर जीत दिलाने के स्थान पर स्वयं मुख्यमंत्री बनने की होड़ में लगे रहते हैं। 
राजस्थान में अशोक गहलोत ने कांग्रेस हाईकमान को राज्य में अन्य छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन नहीं करने दिया, जिस कारण पार्टी कम से कम 30 सीटों पर चुनाव हार गई। इसी प्रकार मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने समाजवादी पार्टी तथा कुछ अन्य छोटी पार्टियों के साथ कांग्रेस हाईकमान को गठबंधन नहीं करने दिया था। 
समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश के संबंध में तो कमलनाथ ने यहां तक भी कह दिया था कि वह किसी ‘अखिलेश विखलेश’ को नहीं जानते। इसकी कीमत मध्य प्रदेश में कांग्रेस को हार के रूप में चुकानी पड़ी थी। इसी प्रकार अब हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा द्वारा यह यत्न किया गया कि वह ही अपने गुट के अधिक नेताओं को जिता कर मुख्यमंत्री बनने में सफल हों, शेष अन्य नेताओं को उन्होंने पूरी तरह विश्वास में नहीं लिया। हरियाणा से कांग्रेस के कुछ नेताओं का तो यह भी अरोप है कि पार्टी के ही कई वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस के दूसरे गुट के कांग्रेसी उम्मीदवारों को हराने का काम किया। राहुल गांधी की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है कि हरियाणा में कांग्रेस के कई स्थानीय नेताओं की निजी स्वार्थी पहुंच के कारण भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। 
अब यह बात आगामी समय में ही देखी जाएगी, कि कांग्रेस पार्टी झारखंड तथा महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव कितने बेहतर तरीके से लड़ती है और उपरोक्त दोनों राज्यों में वह ‘इंडिया’ ब्लाक की अन्य राजनीतिक पार्टियों के साथ कैसा तालमेल बनाने में सफल होती है। (समाप्त) 

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