स्वास्थ्य, साहित्य और संस्कृति का सुमेल थी कैलाश कौर
गुरशरण सिंह नाटककार की साथी कैलाश कौर के चले जाने से सन् 1947 की दु:खद घटनाएं ही याद नहीं आईं, बल्कि मानवीय शक्ति की सहनशीलता एवं दृढ़ता के पन्ने भी सामने आए हैं। चार वर्ष की बाल आयु में छत से गिरकर अपाहिज हुई इस बच्ची ने रंगमंच के शहनशाह गुरशरण सिंह को साथ भी दिया और उसके द्वारा रचे गये दो दर्जन से अधिक नाटकों में भाग भी लिया। अपनी पेशकश के लिए लोकप्रिय हुई कैलाश कौर ने देश के विभाजन के वे दिन भी देखे हुए थे, जब उसकी बहन का पूरा परिवार दंगाइयों की लपेट में आ गया था तथा बहन ने कुएं में छलांग लगा दी थी। इस परिवार का दोबारा से अपने पैरों पर खड़ा होना अचम्भा था।
यह बात भी नोट करने वाली है कि देश के विभाजन से पहले कैलाश के नाना जी करतार सिंह ने गुजरांवाला के निवासी होते हुए अपना पूरा जीवन कांग्रेस पार्टी का सदस्य बनकर स्वतंत्रता संग्राम के लिए लगा दिया था। बड़ी बात यह कि उस समय के बड़े बुजुर्ग सहनशील और आशावादी थे। गुरशरण सिंह के पिता जी ज्ञान सिंह मुलतान में स्वास्थ्य अधिकारी होते हुए यहां आकर सिविल सर्जन के तौर पर सेवा मुक्त हुए। उनका बड़ा भाई इन्द्रजीत सिंह नई दिल्ली में दांतों के डाक्टर के तौर पर प्रसिद्ध हुए और बेटी अरीत आंखों की डाक्टर के तौर पर जानी जाती है।
कैलाश कौर के हक में तो यह बात भी जाती है कि उनके ससुर साहिब गुरशरण सिंह के साथ रिश्ते के लिए राज़ी नहीं थे लेकिन दादा नारायण सिंह के दखल के साथ ऐसा रास्ता खुला, जिसने पंजाबी साहित्य और संस्कृति की दुनिया में अपना झंडा बुलंद किया। इस जोड़ी के स्वास्थ्य, साहित्य और संस्कृति में योगदान ने उस बड़े सच पर भी मोहर लगाई कि दिव्य दृष्टि वाली आंख में बाहरी आंख को मात देने की अद्भुत शक्ति होती है।
‘मिट्टी बोल पयी’
मुझे दिल्ली छोड़े 40 साल हो गये हैं लेकिन वहां के पंजाबी साहित्य सभा के साथ आज तक जुड़ा हुआ हूं। इसके दो बड़े लाभ हैं। पहला यह कि यह नाता मुझे दिल्ली से जोड़े रखता है। वहां की साहित्य, सामाजिक और संस्कृति गतिविधियों के साथ। दूसरा यह कि साहित्य संसार की नई उपलब्धियों की खबर मिलती रहती है।
इस बार की दिल्ली फेरी में पता चला कि बलबीर माधोपुरी का नावल ‘मिट्टी बोल पयी’ अंग्रेजी भाषा में अनूदित किया जा रहा है। अत: उसकी यह रचना भी ‘छांगिया रुख’ की तरह मकबूल हो रही है। यह उपनियास है और ‘छांगिया रुख’ वार्ता में लिखी आत्मकथा है। उसका अंग्रेजी और रूसी में अनुवाद पहले ही हो चुका है। यह मुंगोवाल (होशियारपुर) में जन्मे मंगू राम द्वारा 20वीं शताब्दी के प्राथमिक दशकों में उपजी जागृति लहर का इतिहास भी बताता है और देन भी। अंग्रेजी भाषा उसके नावल को भी दुनिया भर के कोने-कोने तक पहुंचाएगी।
माधोपुरी की रचनाएं पिछले साढ़े चार दशकों से पंजाबी जीवन के मानवीय और सांस्कृतिक श्रोताओं का लेखा जोखा पेश करती आ रही हैं। वह दोआबे के जेजों क्षेत्र को आधार बना कर पूरे देश का शीशा पेश करता है। खासतौर पर यहां के आर्थिक और समाजिक असमानता का जिसमें वंचित वर्ग की लाचारी और अधिकारहीनता प्रमुख है। इसका गढ़ उसकी आत्मकथा ‘छांगिया रुख’ के साथ बंधा था। उसकी यह रचना इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसका अंगे्रजी भाषा वाला अनुवाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस ने प्रकाशित किया है और रूसी अनुवाद मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी की दो अलग-अलग पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप में छपा है। विद्युत मीडिया को समर्पित दौर में उसकी पंजाबी मूल की रचना एक नहीं, अनेक बार छपना और अंग्रेजी अनुवाद ग्यारह बार छपना इसकी लोकप्रियता पर मोहर लगाता है। इसका पोलिश अनुवाद तो वारसा यूनिवर्सिटी पोलैंड के पाठ्यक्रम का हिस्सा भी बन चुका है। इसकी उर्दू, हिन्दी और गुजराती, मराठी अनुवादों की बात करें तो बात कहां से कहां पहुंच जाती है।
यदि पाकिस्तान में इसको मकसूद साहिब ने अपने अनुवाद द्वारा उर्दू पाठकों तक पहुंचाया तो भारत में अशरफ यासीन ने। ‘होर पुछदे हो तां छांगिया रुख’ के चयनित अध्याय जर्मन और फ्रांसीसी भाषा में भी छप चुके हैं। यह जानकर हैरान न होना कि भारत और भारत से बाहर के कुछ विद्यार्थियों ने उसकी रचनाओं को अपने अनुसंधान का विषय बना कर डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त की है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में खास तौर पर अंग्रेजी माध्यम के तौर पर उसके नावल ‘मिट्टी बोल पयी’ के अंग्रेजी बोल कहां-कहां तक जाते हैं, यह समय ने बताना है।
सुरजीत कौर बैंस की ‘मैं ते मेरे’
पंजाबी शायरा सुरजीत कौर बैंस के मित्र-परिचितों और पाठकों का दायरा कितना विशाल है, यह उनकी आत्मकथा के लोकार्पण के समय उभर कर सामने आया। इस मौके पर पंजाब कला परिषद के आंगन में शिरकत करने वालों में सेवा मुक्त हुए जज साहिबान, करनैल की पदवी तक पहुंचने वाले सैनिक और प्रसिद्ध सिविल अधिकारियों के अतिरिक्त विश्व पंजाबी कांफ्रैंस के चेयरमैन ही नहीं, चंडीगढ़ और मोहाली के लगभग सभी प्रसिद्ध लेखक शामिल थे। ‘मैं ते मेरे’ शीर्षक वाली यह आत्मकथा जीवन काल की दोस्तियों का ही शीशा नहीं, 20वीं शताब्दी के अंत और 21वीं शताब्दी की शुरुआत में हुए साहित्यक और सांस्कृतिक उपलब्धियों का लेखा जोखा भी है।
अंतिका
(पश्चिमी पंजाब से मोहतरमा अंबरीन ज़फर)
उस ते कोई तहरीर नहीं सी,
ओहतां किसे दे ध्यान विच नहीं सी।
कापी चों लथिया कोरा कागज़,
ऐवें ही तां पिया हुंदा सी।
इक दिन किसे ने वरके परते
तां उह धरती उत्ते डिग पिया।
उसदा मुकाम पैरां च बनिया,
तद वी किसे नूं दुख नहीं सी।
जे कोई दु:ख सी तां एस गल दा,
कि उह कोरे का कोरा सी।
बेधियाने दी किस्मत जागी,
तां इक दिन उसनूं पैरां चों चुक के,
किसे ने उसदे उपर लिखना शुरू कर दित्ता।