उनींदी आंखों के सपने
‘जब मैं बहुत गरीब था, तब मैं कभी दिन में चार बार अपने कपड़े नहीं बदल पाता था। अभी किसी ने कहा हमने अपने पांवों में दो लाख का जूता पहन रखा है। नहीं सिर्फ पच्चास हज़ार रुपये का ही तो है। क्या करें जूते ही इतने महंगे हो गये हैं।’ लेकिन कभी हम बिना जूतों के चिलचिलाती धूप में तपती डामर की सड़क पर भी चले हैं। सड़क पर नंगे पांव। क्या आप हमारे ऐसे अतीत की कल्पना कर सकते हो?
उन्होंने अलंकृत बड़े हाल में गरिमामय गाव तकिये पर पसरते हुए पूछा था। उनके मुंह में हुक्के की नली थी। जी हां, आजकल फिर हुक्काबारों में नये हुक्के चल निकले हैं। जाने क्या मिला रहता है उस नये तम्बाकू में? बस ज्यों-ज्यों वह कश खींचते हैं, उनकी आंखें चमकने लगती हैं।
इनकी राजसी बैठक में भी वही हुक्का पड़ा है क्या? वह ज्यों-ज्यों कश खींच रहे थे, उनकी आंखें आर्द्र होती जा रही थीं। उनका गला भर आया था। इन दिनों पर्यावरण प्रदूषण के न छोड़ने वाले आलिंगन में मौसम ने पहचान खो दी है। नित्य-नयी बीमारियों की खबरें आने लगी हैं। बीमारी की खबर सुनते ही दवाओं की ऊंची दुकान और फीके पकवान वाले लोग जनता जनार्दन के लिए महामारी में बदल जाने की दुआ करने लगते हैं। महामारी फैलेगी तो दवाओं की कमी घोषित करने में आसानी हो जाएगी। बाज़ार से दवा न मिलने की खबर फैलती है तो वह दुगने चौगने दाम बिकती है। बुरा हो इन सरकारी विज्ञप्तियों का। पहले जब वह इन दवाओं की कीमतों को नियंत्रित कर देते थे, हम इनसे निबट लेते थे। इन दवाओं की ़गैर-हाज़िरी दिखा कर। अब उन्होंने अपनी प्रयोगशालाओं की दुहाई दे कर इन्हें उपभोग के अयोग्य ठहरा दिया। दूसरे देश में भेजी थीं, तो वहां से जाली करार दी जा लौटने लगीं। ़खैर आपको देश की साख गिरने की चिन्ता होगी, हमें तो इस रद्द माल को केवल स्वीकार करवाना है, अवसाद ग्रस्त या डिजैक्टिड नहीं होना। जब इस देश में बासी और घुन खाये अनाज को सस्ता बिकता देख कर कतारें लग जाती हैं, तो यह दवा सस्ती कर देंगे, क्यों न बिकेगी? यहां तो सस्ता रोये बार-बार और मंहगा रोये एक बार का सूत्र कौन अपनाता है? इनकी गुणवत्ता सही करके कौन बेचे? बस ब्राण्ड बदल कर थोड़ा सस्ता कर देंगे, सब बिग जाएगा।
लेकिन हम भी किन बातों में पड़ गये? हम तो अपने त्याग और सदाचार की बात कर रहे थे। न कहें तो दिल को जैसे चैन नहीं पड़ता। त्याग और सदाचार की बात हो जाये, तो हम देश की राष्ट्रीयता की बात कह लेते हैं। अपने झण्डे के ऊंचा रहने की बात होती है, तो हमारी आंखें जैसे भर आती हैं। देश की आबादी का अमृत-महोत्सव मनाने के बाद, अब हमें उसका शतकीय महोत्सव मनाने की चिन्ता है। हमने अपने देश के हर खास और आम आदमी को कह दिया है, ‘देखना कैसा शतकीय महोत्सव मनाएंगे हम।’ तब हम दुनिया के पूरी तरह विकसित लोगों में अग्रणी हो जायेंगे। लोगों को मांगने पर बढ़िया मकान मिलेंगे, पहनने को कपड़े और खाने को सुस्वादु भोजन। बैंक खाता देखने जायेंगे तो अचानक उसमें से पन्द्रह लाख रुपये निकल आयेंगे। बहुत पुराना वायदा था हमारा, इस उत्सव पर पूरा हो जायेगा। फिर न कहना हम एहसान फरामोश हैं। बस कभी-कभी हमें अपनी बात पूरी करने में थोड़ी-सी देर हो जाती है। परन्तु देर है, यहां अन्धेर नहीं है, बन्धु! जब आम लोगों के कल्याण के लिए कोई नयी घोषणा करते हैं, तो आपके चेहरे पर कैसी उम्मीद भरी मुस्कान खेल जाती है। बस इसी लिये हम ये घोषणाएं करते ही रहते हैं, और देखते ही ये घोषणाएं सफलता के दावों में बदल जाती हैं। दावा हो जाये तो उत्सव मनाने में देर ही कितनी? आप सफलता के दावे की बात करते हैं, हम तो सफलता का भ्रम पैदा हो जाये तो उसका भी उत्सव मना लेते हैं।
देश उत्सवधर्मी हो जाये तो उसके क्रांतिधर्मी होने की गुंजायश नहीं रहती। बदलाव का बलिदानी संघर्ष करने के स्थान पर उसका काल्पनिक उत्सव मना लेना कहीं अच्छा होता है। सुना है, आज उत्सव कल्पना में मनाया है, कल यह यथार्थ हो हमारे माथे का तिलक करेगा। तिलक से महिमामण्डन होता है, और आप तो जानते हैं, इस देश की महिमा शब्दातीत है। यह महिमा गाते हुए लोग गद्गद् हो जाते हैं। ज़मीन से एक बालिश्त ऊपर होकर चलने लगते हैं।
जब लोगों को हवा में चलते हुए देखते हैं, तो लगता है वायवीय हो जाने से बड़ा कोई और सुख नहीं है। सपनों के उड़न खटोले पर बैठा आदमी केवल हवा फांकता है, उसे कामधाम करने की कोई चिन्ता नहीं रहती। खैर मिल जाये तो करने में हज़र् ही क्या है? लेकिन यहां तो काम का मिज़ाज ही बदल गया है। कुदाल फावड़े से आज कौन मेहनत करता है, केवल जुबान को कष्ट दो। ज़िन्दगी में कोई संक्षिप्त रास्ता पकड़ कर आगे हो जाओ। इस ज़ुबान की मिठास अब उनका चंवर झुलायेगी। उनकी शान में आरती गायेगी। अपने आपको उनका सही उत्तराधिकारी सिद्ध कर देगी। फिर तनिक आश्वस्त होगी तो उन्हें लगड़ी दे बीच राह गिराती नज़र आयेगी। आज जो अर्चना करता है, उसे भी तो अपनी अर्चना करवाने का कारोबार पालना है। बस यूं ही ज़िन्दगी का कारोबार चलता है। अब इसके सिवा कोई और उद्यम नीति बनाने की ज़रूरत क्या है? हां, एक अनुकम्पा नीति बना दी है, आपके लिए जो ज़रूरत पड़ने पर एक और रेवड़ी आपको पकड़ा देगी। इसके बाद रेवड़ियां न चाहने विरुद्ध एक प्रस्ताव पास करवा देगी। फिर सबको अपना-अपना कर्त्तव्य पथ पकड़ने का आह्वान कर देगी। एक सड़क है और सत्तावन गलियां। कौन कहां से निकल कर आगे निकल गया, कुछ पता नहीं चलता। फिर भी अनन्त काल तक उनमें सस्ता राशन बांट कर उन्हें मरने न देने का वायदा कर लेते हैं।
वैसे तो आजकल वायदे वफा नहीं होते, लेकिन यह वायदा हम पूरा करेंगे। ज्यों-ज्यों देश तरक्की की मंज़िलें तय करता जायेगा, हम रिकार्ड जनसंख्या को रियायती राशन देने की अपनी दरियादिली निबाहते रहेंगे। हमारी विकास दर दुनिया के सब देशों से अधिक रहेगी, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सब लोग खुशहाल हैं। हमेशा चन्द लोग ही खुशहाल होते हैं, बन्धु! शेष अपने कर्त्तव्य पथ को स्वर्ण पथ में बदल देने का सपना देख्रते हैं। देखते रहते हैं।