बहते लोर
खैरी गैया की आंख से बहते आंसू देख अचानक से बासु चौंक उठा था। तत्काल उसे समझ में नहीं आया कि वो उसको देख रोने लगी है या पहले से ही रो रही थी। सुबह उसकी श्रीमती जी ने उसे घर के बाहर एक खूंटे से बांध कर थोड़ी सी पुआल उसके सामने डाल दी थी। जिसे खाना तो दूर उसे उसने सूंघा तक नहीं था। पुआल ज्यों का त्यों एक तरफ पड़ा हुआ था। बासु सोच में पड़ गया, यह पुआल खा क्यों नहीं रही है? पहले तो ऐसा नहीं देखा गया। फिर आज इसे क्या हुआ? बार-बार उसकी ओर इस तरह क्यों देख रही है? बासु का मन व्याकुल हो उठा, उसके अंदर सवाल उठना स्वभाविक ही था। घर आकर उसने पत्नी से कहा-‘अरी, सुनती हो, खैरी गैया को बाहर काहे बांध दी? पुआल खाने की बजाय टपर-टपर आंसू बहा रही है! सीधे-सीधे कहें तो रो रही है। और यहां भूतनिया मजे से लपसी (मकई घठा) सना कुटी खा रही है !’
‘क्या कहा, ओ रो रही है? नहीं-नहीं, उसकी आंख लोरा रही होगी, तुमको लगा, रो रही है।’ पत्नी ने कहा।
‘मुझे लगा, बाहर बांध दी है, रूखा-सुखा पुआल खाने दे दी है, सो रो रही है।’
खैरी गैया की आंख से बहते आँसू देख बासु को अकस्मात अपनी मरहूम मां की याद आ गई। जिसे गुजरे कई बरस गज़र चुके थे। पर बासु को लगता आज भी मां की वजूद घर के कोने-कोने में मौजूद है और मरने के बावजूद बेटे पर उसकी नज़र है। आज भी गांव में लोग चर्चा करते और कहते हैं कि मां बेटा दोनों शरीर से भले अलग हुए है, पर मन से आज भी दोनों एक-दूसरे से बातें करते है-बतियाते है। मां की कृपा से ही बासु हर मुसीबत से बचता आ रहा है। मां की आशीर्वाद से वह उस दिन ट्रक से धक्के खाकर भी सही-सलामत बच गया था। हेल्मेट ने भी सर को फटने से बचा लिया था, वरना ऐसे धक्के से लोग कहां बच पाते हैं...। ऐसा गांव में लोग आज भी चर्चा करते हैं। सो आज भी बेटा मां की पूजा करता है। जब वह जीवित थी तभी एक दिन उसी मैया को बेटे ने चुपके से रोते देख लिया था और वह कांप उठा था। कहां कमी हुई सेवा में? किस वेदना ने मां को रूला दिया? तत्काल उसके मन में कई सवाल उठे थे। तुरन्त मां के रोने का उसे पता नहीं चल सका था। बहुत पूछने पर भी मां ने केवल इतना ही कहा था ‘कुछ बात नाय है बेटा आंख में खटिका (तिनका) घूस गया था,उसी से लोरा रहा था।’
मां की कही बातों पर बासु को जरा भी यकीन नहीं हुआ था। उसे लगा मां उससे कुछ छिपा रही है। बासु रोज़ाना आठ बजे काम पर निकल जाता था। चलकरी के एक ग्रामीण बैंक में वह रोकड़िया था। उसके पीछे घर में क्या कुछ होता था। शाम को घर लौटने पर ही कुछ कुछ वह जान पाता तो कुछ से अनजान ही रह जाता था। सो महीना दिन बाद भी वह मां के आंसू का सही कारण जान नहीं सका। जो कि जानना उसके लिए बेहद ज़रूरी था। तब उसने एक चाल चली। उसको जो अंदेशा था। जिस बात की तरफ उसका मन बार-बार दौड़ लगा रहा था। उसे वह अपनी आंखों देखना चाहता था। पत्नी की भी परख करनी थी। शादी हुए दोनों का दस साल गुजर गया था। परखने का उसे कभी मौका नहीं मिला था।
मां का खाने का समय उसे पता था। बिना नहाए धोए वो अनाज का एक दाना भी मुंह में नहीं डालती थी। यह उसकी बहुत पुरानी आदत थी। उसके जन्म जैसी पुरानी।
उस दिन वह काम के नाम पर घर से निकला तो ज़रूर परन्तु काम पर गया नहीं और मोटरसाइकिल गांव के पोस्ट ऑफिस के सामने खड़ा कर पुन: वापस घर लौट आया और पिछवाड़े वाले रास्ते से घर में चुपके से समा गया। उसका अनुमान और अंदेशा दोनों सही निकला। जब घर के ढ़ाबे में अचानक उसने कदम रखा। और मां को बासी रोटी-सब्जी खाते देखा तो उसका पूरा वजूद हिल उठा। मां उसके लिए सारा जहां थी। मां खुश तो उसकी दुनिया खुश। उसका सारा संसार खुश! उसके आगे कोई तीर्थ, कोई धाम-वाम नहीं। सारे तीर्थों की धाम उसकी मां थी। ऐसा वह कहता और मानता भी था। बासु जब 8-10 साल का था तभी बाहर मज़दूरी करने गये बाप को एक ट्रक ने कुचल दिया था। उस दौर को मां ने कैसे झेला था। बासु उस स्मृति को याद कर आज भी रो पडता है। दूसरों के खेत-खलिहानों में काम कर मां ने बड़ी उम्मीद से उसे पढ़ाया लिखाया था। बेटे के प्रति मां की अनजान हसरतें उसे हमेशा कुछ नया करने को उत्प्रेरित करती थी। तब वह अक्सर कहा करती ‘बस बेटा दुनियादारी के काबिल हो जाए।’
कभी-कभार तो वह खुद नहीं खाती पर बेटे को कभी भूखों सोने नहीं देती थी। बासु जैसे-जैसे बड़ा होता गया, उसकी दिमाग समझदार होता गया। कभी उसने मां से ऐसी कोई मांग नहीं की, जिसे पूरा करने के लिए मां सावित्री महतवाईन को किसी के आगे गिड़गिड़ाना पड़े। कठिन से कठिन परिस्थतियों में भी उसने कभी मां को रोते हुए नहीं देखा था। सारा गांव गवाह था। मां-बेटा, दोनों एक-दूसरे के लिए हवा-पानी की तरह थे। उसी मां को बासी खाना देकर आरती ने जैसे पहाड सा गुनाह कर दिया था। उस दिन अचानक बेटे को सामने पाकर मां भी मुंह चलाना भूल गई। सब्जी से लिपटी रोटी वाले हाथ, हाथ में ही पकड़ी, एकटक बेटे को देखती रही, उसे भक मार दिया था। भीतर से आवाज आई ‘सावित्री, यह तुमने क्या कर लिया...? जिस बेटे को पालन-पोषण करने, उसकी पढ़ाई-लिखाई के लिए हर मुसीबत को हंसते-हंसते झेला,पर कभी उफ्फ् तक नहीं की तथा आज एक मामूली सी बासी रोटी-सब्जी ने तुम्हें रूला दी? तुम बहू से बोल कर साफ मना कर सकती थी। बहू तो तुम्हारी ही पसंद की थी। इसी बहाने उसकी परीक्षा भी हो जाती,वो तुम्हें कितना मानती है? तुम्हारी सेहत का उसे कितना ध्यान है? ऐसा न कर तुम मन ही मन घुटने लगी...?
‘यह मैंने क्या कर लिया..?’सावित्री महतवाईन बुदबुदा उठी थी। (क्रमश:)