संसद में हंगामा : पक्ष और विपक्ष की जवाबदेही तय होनी चाहिए

लोकसभा हो या फिर राज्य सभा, विधानसभा हो या फिर विधान परिषद, इनमें समय-समय पर होने वाले सत्र सीधे आम जनता और देश की समृद्धि और विकास से जुड़े माने जाते है, लेकिन संसद और विधानसभा का कोई भी सत्र हो, उसकी शुरुआत हंगामे से होना एक परम्परा का रूप ले चुका है। यह एक दुष्प्रभावी परम्परा है। फिर भी यह परम्परा दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। करोड़ों रुपये खर्च होने के उपरान्त जिस सदन से जनता देश को कुछ हासिल होना है, वह हंगामे की भेट चढ़ जाता है। विडम्बना यह है कि हंगामे को जीत की तरह प्रस्तुत किया जाता है। लोकसभा हो या फिर राज्य सभा, किसी मुद्दे के बहाने हंगामा करना एक राजनीतिक स्वभाव बन गया है। जो दल विपक्ष में होता है, वह हंगामा करना पसंद करता है और वह भी तब, जब वह सत्ता में रहते समय हंगामे से त्रस्त हो चुका होता है। ऐसे में सदन के दौरान जो भी हंगामें होते आ रहे हैं, उसके लिए पक्ष और विपक्ष की जबाबदेही तय होनी चाहिए, क्योकि सत्र में भाग लेने वाले जन-प्रतिनिधियों का खर्च करदाताओं की जेब से निकलता है।
कई बार देखा गया कि विपक्ष यदा-कदा अपने हिसाब से ज्वलंत मुद्दों को उठाता है, लेकिन उन पर सार्थक बहस करने और सरकार से जवाब मांगने के बजाय उसकी दिलचस्पी इसमें अधिक होती है कि संसद चलने न पाए। आम तौर पर विपक्ष संसद में सरकार को घेरने के लिए मुद्दों का चयन खुद नहीं करता। वह उन मुद्दों को लेकर आगे आ जाता है, जो संसद सत्र के पहले से ही चर्चा में आ गए होते हैं। हालिया सत्र में यह पहले से तय था कि मणिपुर और अडानी प्रकरण के साथ संभल का मामला भी विपक्ष की कार्य सूची में आ जाएगा। ऐसे मामले उसकी कार्यसूची में होने ही चाहिए, लेकिन क्या उसके लिए यह भी आवश्यक नहीं कि वह अपने स्तर पर जनता से जुड़े कुछ मुद्दों का चयन करे और इसके लिए प्रयत्न करे कि सरकार उन पर जवाब दे? देश और राज्यों में बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, शहरीकरण समेत न जाने कितने ऐसे विषय हैं, जिन पर संसद में व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। पता नहीं क्यों विपक्ष इन विषयों पर संसद में चर्चा के लिए गंभीर नहीं दिखता? विपक्ष हंगामा कर संसद को बाधित तो कर सकता है, लेकिन वह ऐसा करके जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता। यह सभी दल और जनप्रतिनिधि जानते हैं कि जनता हंगामा नहीं, राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर सरकार से जवाब चाहती है। संसद में हंगामा करते रहने की अपनी आदत पर विपक्ष को तो विचार करना ही चाहिए, सत्तापक्ष को भी यह देखना चाहिए कि संसद सही ढंग से कैसे चले? इसके लिए उसे विपक्ष को भरोसे में लेने के साथ ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंभीर विचार-विमर्श के लिए माहौल बनाने के लिए आगे आना चाहिए। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कटुता दूर होनी चाहिए। यह तभी संभव है, जब दोनों पक्ष एक-दूसरे को सम्मान देंगे।
संसद के शीतकालीन सत्र का पहला सप्ताह हंगामे की भेंट चढ़ गया। इसका अंदेशा पहले से था, क्योंकि कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने अडानी प्रकरण, मणिपुर की हिंसा के साथ कुछ अन्य मामलों पर ज़ोर देने का ऐलान कर दिया था। इनमें से एक मामला संभल की हिंसा का भी जुड़ गया, जो संसद सत्र शुरू होने के पहले ही सामने आ गया था। अडानी प्रकरण भी कुछ दिनों पहले चर्चा में आया था। 
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अचानक आए ऐसे मुद्दों को लपक लेते हैं। निश्चित तौर पर 25 नवम्बर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र में जनता और देश को क्या हासिल हुआ इसका जबाब न तो सत्ता पक्ष के पास है, और न ही विपक्ष के पास होगा। आखिर हंगामा करना सही है या मणिपुर अथवा फिर अन्य किसी मामले पर गंभीर चर्चा करना? आम तौर पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल संसद सत्र शुरू होने के पहले जो मामला खबरों में आ गया होता है, उसे ही तूल देने लगते हैं। इसमें हर्ज नहीं है, लेकिन आखिर वे शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण समेत राष्ट्रीय महत्व के अन्य मुद्दों पर भी कोई ध्यान क्यों नहीं देते? ऐसा तो है नहीं कि ये मुद्दे जनता को प्रभावित न करते हों। 
यह ठीक नहीं कि विपक्ष संसद में जनता के जीवन से जुड़ वास्तविक मुद्दे उठाने के लिए न तो कोई प्रयत्न करता दिखता है और न ही उनकी कोई तैयारी दिखती है। संसद में एक दिन सत्र को कराने में मोटी रकम खर्च होती है। हमारे द्वारा चुने गए नेताओं के संसद में हंगामा करने से देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है। जान कर हैरानी होगी कि टैक्स देने वाले आम लोगों के पैसों का नुकसान हर घंटे केवल संसद में नेताओं के हो-हल्ले के कारण हो रहा है। संसद की प्रत्येक कार्यवाही पर हर एक मिनट में अढ़ाई लाख रुपये खर्च होते हैं। कुल मिलाकर इन हंगामों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष को अपनी जबाबदेही तय करने का अब समय आ चुका है।

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