ईवीएम की विश्वसनीयता को लेकर असमंजस बरकरार
अगर बार-बार चुनाव हारने पर ईवीएम को दोष देना, अपनी हार स्वीकार करने से बचना है तो ईवीएम को हर हाल में पर्फेक्ट मानना, उसकी तकनीक खामियों पर किसी भी तरह के पुनर्विचार से इन्कार करना और ईवीएम को भगवान मानने की ज़िद करना, भी गलत है। अगर ‘द वायर’ के खुलासे को अंतिम तथ्य न माना जाए, तो भी यह सवाल चिंता तो पैदा करता ही है कि जब 20 नवम्बर, 2024 की रात 11 बजकर 30 मिनट पर चुनाव आयोग महाराष्ट्र में 65.2 प्रतिशत मतदान होने की बात करता है, तो फिर 21 नवम्बर 2024 की दोपहर 3 बजे मतदान का प्रतिशत बढ़कर 66.05 प्रतिशत कैसे हो जाता है? यानी यह सवाल तो चिंता पैदा करता ही है कि 24 घंटे से भी कम समय में आखिर 1.03 फीसदी वोट कैसे बढ़ गये? अगर यह किसी तरह की कोई घपलेबाजी नहीं है, मशीन की सामान्य खामी है, तो भी यह खतरनाक है। आखिर जब चुनाव आयोग की घोषणा के मुताबिक ही कुल 6,40,88,195 वोट पड़े थे, तो फिर गिनती में 6,45,92,508 कैसे हो गये? आखिरकार ये 5,04,313 वोट कहां से आ गये? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक महारार्ष्ट में नंदुरबार लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले नवापुर विधानसभा क्षेत्र में 1171 अतिरिक्त वोट गिने गये और यहां जीतने वाला उम्मीदवार महज 1122 वोटों से ही जीता।
कहने का मतलब यह है कि अगर गिने गये वोट थोड़े और ज्यादा हो जाते, तो जीतने वाला उम्मीदवार हार भी सकता था।
बढ़े या घटे ऐसे आंकड़े चौंकाते नहीं, डराते हैं। भले अभी तक ईवीएम की तकनीक पर सवाल उठाने वाले लोग यह न साबित कर सके हों कि ईवीएम से चुनाव में घपलेबाजी हो रही है, लेकिन जिस तरह से सिर्फ हमारे देश में ही नहीं दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों में ईवीएम शक के घेरे में है और इसी शक के चलते जिस तरह से 2006 में आयरलैंड ने, 2007 में नीदरलैंड ने, 2009 में जर्मनी ने और फिर इंग्लैंड, फ्रांस, अमरीका और इटली ने भी ईवीएम से चुनाव कराने से इंकार कर दिया, उससे यह तो आशंका पैदा होती ही है कि कोई न कोई तो गड़बड़ ईवीएम में हो ही सकती है। आखिर ये सब देश कम से कम तकनीक के मामले में हमसे ज्यादा विकसित देश हैं और अगर राजनीतिक ईमानदारी की बात करें तो भी इन देशों में राजनीतिक बेईमानी का कोई बड़ा और डरावना इतिहास नहीं है। हालांकि यह बात भी सही है कि अकेला भारत ही ईवीएम से होने वाले चुनाव पर भरोसा नहीं रखता बल्कि भारत को ब्राज़ील मॉडल मानता है और फिलिपींस, वेनेजुएला जैसे कई देश भी ईवीएम के ज़रिये मतदान कराते हैं, लेकिन 100 से ज्यादा देश या तो ईवीएम को अस्वीकार कर चुके हैं या इस पर भरोसा नहीं करते। इन सभी देशों में बैलेट पेपर के ज़रिये चुनाव होता है।
अमरीका में तो कई बार प्रयोग के तौर पर कुछ चुनावों पर इसके इस्तेमाल की कोशिश भी की गई, लेकिन जिस तरह से मतदाताओं ने इस पर अविश्वास जताया, उसके चलते अंतत: अमरीका में राष्ट्रपति जैसा संवेदनशील चुनाव, जिसके ज़रिये देश की सत्ता बदलती है, ईवीएम के माध्यम से करवाने के लिए सोचा भी नहीं जा सकता। सवाल है जब ईवीएम को लेकर इस तरह राय बंटी हुई है, तो हम आखिर ईवीएम को भगवान मानने की ज़िद पर क्यों अड़े हुए हैं? यह भी सवाल है कि आखिर हमारे यहां सत्तारूढ़ पार्टियां अक्सर ईवीएम को सुरक्षित क्यों मानती हैं और विपक्ष इनमें गड़बड़ी क्यों देखता है? हैरानी की बात ये है कि फिलहाल ईवीएम को पूरी तरह से सुरक्षित मानने वाली भाजपा, एक ज़माने में इसका जबरदस्त विरोध किया करती थी। भाजपा के ही एक सदस्य और राजनीतिक विश्लेषक जी.वी.एल. नरसिम्हा राव ने इस संबंध में एक मशहूर किताब लिखी है ‘डेमोक्रेसी एट रिस्क! कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन्स?’ इस किताब में ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये गये हैं। लेखक ने विस्तार से लिखा है कि ईवीएम को लेकर आखिर चिंताएं क्या हैं और भारत तथा अन्य देशों में ईवीएम के इस्तेमाल का अनुभव क्या रहा है?
यह किताब बताती है कि कैसे ईवीएम चुनाव को तेज़ और सुविधाजनक तो बना सकती है, लेकिन यह चुनावी पारदर्शिता और सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े करते हैं। लेखक ने अपनी इस किताब में ईवीएम को सुरक्षित बनाने के लिए स्वतंत्र ऑडिट, फुल पेपर ट्रेल आदि के सुझाव दिए हैं, ताकि लोकतंत्र को सशक्त बनाया जा सके। दुनिया के जिन भी देशों ने ईवीएम का प्रयोगिक इस्तेमाल करके बंद कर दिया है, उन सबने कुछ ज़रूरी सवाल उठाएं हैं और करीब-करीब हर देश ने इसकी पारदर्शिता पर शक किया है। हो सकता है ये सब बातें गैर-ज़रूरी हों, वास्तव में ईवीएम पूरी तरह से सुरक्षित ही हो। लेकिन अगर सुरक्षित होने का भरोसा नहीं है, तो ऐसी सुरक्षा का फायदा क्या है, तब क्यों इस सुरक्षा पर सवाल उठाए जाएं? ..और एक बार ईमानदारी से और गंभीरता से हम सोचें कि आखिर चुनावों को कैसे विश्वसनीय बनाएं? क्योंकि हम इस बात को माने या न माने, लेकिन जिस तरह से बार-बार ईवीएम पर सवाल उठते हैं, उससे आम लोगों के दिलोदिमाग में चुनाव की विश्वसनीयता तो सवालों के घेरे में घिरती ही है, उससे भी ज्यादा दुनिया के दूसरे देशों में भी ईवीएम के कारण भारत के लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगते हैं।
हालांकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमारे यहां करीब 96 करोड़ मतदाता हैं, इसलिए यह तो तय है कि इतने बड़े पैमाने पर अगर बैलेट पेपर के जरिये चुनाव कराये जाते हैं तो मौजूदा 90 हज़ार करोड़ से 1 लाख करोड़ रुपये तक का आम चुनाव खर्च पूरी तरह से बैलेट पेपर पर किये जाने पर 4 से 4.5 लाख करोड़ रुपये तक खर्च बन सकता है, लेकिन इसके विश्वसनीय तकनीकी विकल्प तलाशे ही जा सकते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर