कांग्रेस की मुश्किलें और दलित वोट का सहारा

दिल्ली चुनाव करीब आते ही कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में ठन गई। दोनों पार्टियों के प्रतिनिधि एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के लोग तो  इस तनाव को ‘इंडिया’ गठबंधन तक ले जाना चाहते हैं। वैसे भी गठबंधन के ढीले होने का पता तो इस बात से मिल जाता है कि जहां कुछ सीटों का लाभ नज़र आता है, एक इकाई दूसरी के विरुद्ध बयान देने लगती है। उधर, बंगाल के लोग मुख्यमंत्री  ममता बैनर्जी को ‘इंडिया’ का प्रमुख बनाना चाहते हैं, जिससे कांग्रेस का पक्ष कमज़ोर होता हुआ नज़र आने लगा है।
राहुल गांधी के सफेद टी-शर्ट की जगह नीली टी-शर्ट पहनने के राजनीतिक अर्थ खोजे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि नीला रंग भारतीय दलित वर्ग के बीच अम्बेदकर-वादियों की पहचान है। क्या गांधी और पंडित नेहरू जी की जगह बाबा साहेब अम्बेदकर कांग्रेस राजनीति को अधिक उपयोगी लगने लगे हैं? महाराष्ट्र में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस को चेहरा छुपाना इतना भी आसान नहीं था। फिर जब इंडिया गठबंधन में भी डोर का सिरा हाथ से छूटता नज़र आ रहा हो, तो कोई नया पैंतरा ज़रूरी हो जाता है। आज लोकतांत्रिक राजनीति में प्रासंगिक बने रहना आसान नहीं है। पल में दुनिया बदल जाती है। कांग्रेस अगर 17 दिसम्बर के  संसद में अमित शाह के भाषण के बाद शुरू हुए राजनीतिक उछाल का कोई फायदा नहीं उठा सकती, तो उसकी वापसी की सम्भावनाएं धूमिल हो जाएंगी। यह कहना कठिन है कि अमित शाह के भाषण से बाबा साहेब अम्बेदकर का घोर अपमान हुआ है, परन्तु राजनीति तो तिल का ताड़ बनाने का काम करती आई है। विपक्ष ने उनके बयान का जो अर्थ निकाला जो व्याख्या की, वह दलित राजनीति को सूट करती है। जो बात कही नहीं गई, उसे अलग रंग देना राजनीति का काम हो गया है। एक राजनीतिक व्याख्या विवाद का काम दे सकती है।
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा उतनी सफलता नहीं हासिल कर सकी थी, जिसकी उम्मीद थी। खराब प्रदर्शन का बड़ा कारण दलित वोट का दूर जाना बताया गया। भाजपा का आरोप था कुछ दलित कांग्रेस और सपा के प्रचार में फंस गये हैं। वह यह कि अगर भाजपा को दलित वोट न मिला तो भाजपा संविधान बदल देगी और आरक्षण खत्म हो जाएगा। कांग्रेस ने इस दुखती रग को पहचान लिया है और अपना पूरा ज़ोर दलित वोट अपने पक्ष में करने के लिए हर पैंतरा अपनाना चाहा है। कांग्रेस को वापिसी करनी है तो बाकी रास्ते बेशक बंद नज़र आएं, यह रास्ता खुला है। किसी भी पार्टी को देश हित में संसद चलने न चलने देने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका अपना नारा बुलंद होना चाहिए जो कुर्सी तक ले जाए। चुनाव जीतना पावर से जुड़ा है। रेवड़ी बांटने का काम धड़ल्ले से होता है। फ्री...फ्री...फ्री... का शोर मच जाता है। देश का विकास कभी नहीं सोचा जाता।
अब इतिहास का यह रूप आपके सामने है। अम्बेदकर दलितों के बीच दैवीय आभा प्राप्त कर चुके हैं। यह सात दशक इसी तरह गुज़रे हैं। गांधी, नेहरू से अब उनकी आभा अधिक है। अम्बेदकरवादी विचारधारा के खिलाफ बोलने वाला कोई भी नेता स्वीकार्य नहीं होगा। दलित का पहचान और विचार उनके साथ हैं। कांग्रेस अब इस हाथ आए पैंतरे को जाने नहीं देना चाहती। भाजपा को इस चुनौती से निपटना होगा। दलितों को सम्मान मिले इसमें तो किसी की अलग राय नहीं होती। बात तो राजनीति की है।

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