डेरा प्रमुख की पैरोल पर सभी पार्टियां ़खामोश क्यों ?
डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को फिर से पैरोल मिली तो सोशल मीडिया में खासतौर से चर्चा हुई। सब ने सवाल उठाया कि हर चुनाव के समय राम रहीम को कैसे पैरोल मिल जाती है। बताया गया कि कैसे लोकसभा चुनाव के समय 50 दिन की पैरोल मिली थी और पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के चुनाव के समय भी पैरोल मिली। दुष्कर्म और हत्या के मामले में सज़ा होने के बाद राम रहीम को 12 बार पैरोल मिल चुकी है। यह भी सब ने बताया कि उनके डेरे के अनुयायियों के वोट की वजह से उनका महत्व है और इसलिए हरियाणा सरकार बार-बार पैरोल देती है, लेकिन सवाल है कि दूसरी पार्टियों ने क्यों चुप्पी साधी हुई है? आम आदमी पार्टी की ओर से भी इस मामले पर किसी ने कुछ नहीं कहा और कांग्रेस की ओर से भी कोई बयान नहीं आया। किसी ने हरियाणा सरकार पर सवाल नहीं उठाया। इसका कारण यह है कि यह मामला हरियाणा सरकार का नहीं, बल्कि गुरमीत राम रहीम और उसके डेरे के अनुयायियों का है। इस पर टिप्पणी करने से हरियाणा सरकार तो कुछ नहीं बोलेगी, लेकिन राम रहीम के अनुयायियों में यह संदेश जाएगा कि अमुक पार्टी डेरे की विरोधी है। इसीलिए कोई भी पार्टी इस पर बयान नहीं दे रही है। सबको मालूम है कि डेरे से भाजपा के पक्ष में संदेश जारी होगा, लेकिन कोई भी मुंह नहीं खोल रहा है। पार्टियों के इस रवैये की वजह से भी हरियाणा सरकार बार-बार बेखौफ होकर पैरोल दे देती है।
केजरीवाल पहली बार हैरान-परेशान
पिछले कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की बेचैनी साफ दिखने लगी है। उनकी इस बेचैनी की वजह दिल्ली विधानसभा चुनाव में ज़मीनी स्तर से मिल रहा ‘नैगेटिव फीडबैक’ है। अपनी इस बेचैनी के कारण वह अनाप-शनाप वादे कर रहे हैं और उल्टे-सीधे आरोप लगा रहे हैं। पहली बार ऐसा हुआ कि उन्होंने मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए मध्यम वर्ग घोषणा-पत्र जारी किया। हालांकि उसमें कोई घोषणा नहीं थी। उसमें सिर्फ यह कहा गया कि उनकी पार्टी मध्यम वर्ग के लिए केंद्र सरकार से सात मांगें करेगी। इसका उलटा ही असर हुआ। अब उन्होंने आरोप लगाया है कि भाजपा की हरियाणा सरकार दिल्ली के लोगों का नरसंहार कराना चाहती थी। इस सिलसिले में दिल्ली और पंजाब के मुख्यमंत्रियों ने चुनाव आयोग को पत्र लिखा और उसके बाद केजरीवाल ने प्रेस कान्फ्रैंस करके कहा कि हरियाणा सरकार ने यमुना का पानी ज़हरीला कर दिया। केजरीवाल का दावा है कि दिल्ली जल बोर्ड के इंजीनियरों ने पानी पहले ही रोक दिया। अब सवाल है कि नदी के पानी को पूरी तरह से कैसे रोक दिया गया और अगर पानी हरियाणा की तरफ रुक गया तो उस ज़हरीले पानी से हरियाणा में किसी को क्यों नहीं कुछ हुआ? लेकिन ऐसे तार्किक सवालों के लिए चुनाव प्रचार में कोई जगह नहीं होती है। फिर भी नरसंहार की साज़िश जैसे आरोपों से केजरीवाल की बेचैनी ही जाहिर हुई है। यह पहली बार है, जब केजरीवाल विधानसभा चुनाव में इतना परेशान दिख रहे हैं। अपनी सीट पर भी पहली बार वह बेहद मजबूत मुकाबले में फंसे दिखाई रहे हैं।
चंद्रबाबू नायडू का भाजपा पर अंकुश
केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के लिए चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी के 18 सांसदों का समर्थन बेहद महत्वपूर्ण है। इसी वजह से बिहार में इस साल चुनाव होने के बावजूद केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश को ज्यादा प्राथमिकता दी है। इसके बावजूद अंदर ही अंदर दोनों पार्टियों के बीच शह और मात का खेल चल रहा है। तेलुगू देशम को पता है कि भाजपा दक्षिण भारत में पैर फैलाने की कोशिश कर रही है। कर्नाटक और तेलंगाना के बाद आंध्र प्रदेश पर उसकी नज़र है। इसलिए तेलुगू देशम की तरफ से भाजपा को रोकने के प्रयास हो रहे हैं। जन सेना पार्टी के नेता पवन कल्याण के ज़रिए भाजपा आंध्र प्रदेश में हिंदुत्व की राजनीति को हवा दे रही है। गौरतलब है कि पहली बार आंध्र प्रदेश की दो सबसे मज़बूत समुदाय साथ आए हैं। चंद्रबाबू नायडू कम्मा और पवन कल्याण कापू समुदाय का नेतृत्व करते हैं। पवन कल्याण राज्य में उप-मुख्यमंत्री बन गए हैं, लेकिन ज्यादा दिन तक कम्मा और कापू का तालमेल नहीं चलना है। इसीलिए भाजपा पवन कल्याण को लेकर अलग राजनीति कर सकती है। इसलिए नायडू हर तरह से पवन कल्याण को रोकने की कोशिश करते हैं। इसी तरह पिछले दिनों जगन मोहन रेड्डी की पार्टी और राज्यसभा से इस्तीफा देने वाले विजय साई रेड्डी के भाजपा में जाने की चर्चा थी, लेकिन कहा जा रहा है कि नायडू ने भाजपा पर दबाव डाल कर उनकी एंट्री रुकवाई। नायडू के दबाव में ही विजय साई रेड्डी ने राजनीति से संन्यास लेने और खेती के काम में लगने का ऐलान किया।
‘एक देश-एक चुनाव’ का क्या होगा?
केंद्र सरकार की ओर से संसद के बजट सत्र में विधायी कामकाज का जो एजेंडा तय किया गया है, उसमें वक्फ बोर्ड विधेयक पास कराने के साथ-साथ ‘एक देश-एक चुनाव’ का विधेयक भी शामिल है। वक्फ बोर्ड पर सरकार के लाए विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने अपनी रिपोर्ट स्पीकर को सौंप दी है। इसे संसद मे पेश करना है। हो सकता है कि पारित कराने के मौके पर विपक्ष की ओर से इसका विरोध हो और हंगामा भी हो, लेकिन सरकार इसे पारित करा लेगी। लेकिन सवाल है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ का क्या होगा? हो सकता है कि सरकार वक्फ विधेयक की तरह इस पर भी जेपीसी में बहुमत के दम पर मनमाना फैसला करा कर विधेयक संसद में पेश कर दे। मगर वक्फ विधेयक की तरह ‘एक देश-एक चुनाव’ का मामला बहुत आसान नहीं है। विपक्षी पार्टियां बहुत आसानी से इस मामले पर सहमत नहीं होने वाली है। जेपीसी को इस मामले में राजनीतिक दलों के अलावा चुनाव आयोग, अर्धसैनिक बलों और राज्य सरकार की एजेंसियों की राय भी लेनी होगी। इसमें कई ऐसे पहलू हैं, जिनमें राज्य सरकारों की बड़ी भूमिका होने वाली है। सो, ‘एक देश-एक चुनाव’ के विधेयक का दायरा बहुत बड़ा है। इसके लिए बनी जेपीसी को बजट सत्र समाप्त होने से पहले अपनी रिपोर्ट स्पीकर को देनी है, लेकिन लगता नहीं कि यह संभव हो पाएगा। ऐसे में ज़ाहिर है कि जेपीसी के कार्यकाल को विस्तार दिया जाएगा और मानसून सत्र में रिपोर्ट पेश करने को कहा जाएगा।
दिल्ली में भाजपा के पास चेहरा नहीं
राजधानी दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी को अगर बढ़त है तो वह सिर्फ इस वजह से है कि उसके पास अरविंद केजरीवाल का चेहरा है और साथ ही दूसरे कई स्थानीय नेता है, जिनका चेहरा दिल्ली के लोगों के लिए जाना पहचाना है। मनीष सिसोदिया से लेकर आतिशी और राघव चड्ढा से लेकर दुर्गेश पाठक, सोमनाथ भारती जैसे अनेक नेता हैं, जो वर्षों से दिल्ली में आम आदमी पार्टी के चेहरे के तौर पर लोगों के मन-मस्तिष्क में हैं। कांग्रेस और भाजपा के पास ऐसे चेहरों की कमी है। भाजपा बहुत जोर-शोर से चुनाव लड़ रही है और उसने देश भर के वरिष्ठ नेताओं को दिल्ली के चुनाव प्रचार में उतारा है, लेकिन उसके पास यह बताने को नहीं है कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। और तो और उसके पास पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या किसी अन्य नेता का चेहरा भी ऐसा नहीं है, जिसे पूरी दिल्ली में लोग जानते हों। दरअसल भाजपा के पास दिल्ली में मदनलाल खुराना के बाद डॉक्टर हर्षवर्धन ही ऐसे नेता रहे हैं, जिन्हें दिल्ली के हर इलाके में आम लोग जानते थे और मानते भी थे। सो, अब चाहे प्रचार नरेंद्र मोदी करें या अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, शिवराज सिंह चौहान, अनुराग ठाकुर, पुष्कर सिंह धामी या कोई अन्य करे, बाहरी नेताओं के प्रचार का बहुत सीमित असर होता है। स्थानीय नेता या चेहरा होने से लोगों का भरोसा ज्यादा बनता है और कार्यकर्ताओं में भी अधिक उत्साह पैदा होता है।