दिल्ली के चुनावों का सन्देश
पिछले कुछ महीनों से दिल्ली विधानसभा चुनावों की बड़ी चर्चा होती आ रही है। चाहे इस राज्य की शक्तियां सीमित हैं। देश की राजधानी होने के कारण दूसरे राज्यों की सरकारों के विपरीत यहां की चुनी गई सरकार कुछ एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में ही कार्यशील रह सकती है। वर्ष 1991 में ‘गवर्नमैंट ऑफ नैशनल कैपीटल टैराटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991’ द्वारा स्थापित की गई विधानसभा के लिए पहली बार मतदान 1993 में हुआ था। उस समय पहली सरकार भाजपा ने बनाई थी तथा मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने थे। पांच वर्ष की अवधि के दौरान ही साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज भी भाजपा के मुख्यमंत्री बने, परन्तु उसके बाद वर्ष 1998 में यहां हुए चुनावों में कांग्रेस ने भारी जीत प्राप्त की थी तथा लगातार तीन बार शीला दीक्षित यहां की मुख्यमंत्री बनी थीं। वर्ष 2011 में प्रसिद्ध सामाजिक नेता अन्ना हज़ारे ने दिल्ली से ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया था, जिसे उस समय बहुत बड़ा समर्थन मिला था। आम आदमी पार्टी भी उस समय आन्दोलन के बाद बनी थी। उस समय अन्ना हज़ारे के विरोध के बावजूद उनके कुछ साथियों ने आम आदमी पार्टी बना कर अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में दिसम्बर, 2013 के हुए विधानसभा चुनावों में भाग लिया था। इन चुनावों में आम आदमी पार्टी को अच्छा समर्थन मिला था, जिसकी सफलता ने उस समय राजनीतिक गलियारों में बड़ा आश्चर्य पैदा किया था।
चाहे पहली बार बनी इस पार्टी की सरकार तो कुछ दिनों तक ही स्थापित रह सकी थी परन्तु दूसरी बार वर्ष 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में इस पार्टी को और भी बड़ा समर्थन मिला था। इसने 70 सीटों में से 67 सीटों पर जीत प्राप्त की थी। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनावों में भी ‘आप’ को 62 सीटों पर जीत प्राप्त हुई थी। अरविन्द केजरीवाल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने थे। 2014 में केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) की सरकार बनी थी। नरेन्द्र मोदी इस गठबंधन के प्रधानमंत्री बने थे। इसी समय में ही दो बार लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दिल्ली की सात सीटों में से सभी पर जीत प्राप्त की थी, परन्तु दिल्ली विधानसभा में इसे एक बार 3 और एक बार 8 सीटें ही प्राप्त हुई थीं। आश्चर्यजनक बात यह है कि दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में 15 वर्ष तक शासन करने वाली कांग्रेस को यहां हुए पिछले दो विधानसभा चुनावों में एक भी सीट प्राप्त नहीं हुई थी। मौजूदा चुनावों में भी कांग्रेस की झोली में कुछ नहीं पड़ा। चुनाव प्रचार के दौरान चाहे आम आदमी पार्टी, भाजपा एवं कांग्रेस पूरी तरह से सक्रिय रहीं, परन्तु इसके बावजूद भी वास्तविक मुकाबला आम आदमी पार्टी तथा भाजपा में ही दिखाई देता था। ‘आप’ द्वारा ये चुनाव अरविन्द केजरीवाल को मुख्य सूत्रधार बना कर लड़े गए थे, जबकि भाजपा द्वारा इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम ही उभारा जाता रहा था। कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी मुख्य रूप से मैदान में उतरे हुए थे।
दिल्ली के चुनाव परिणामों में एक विशेष बात यह भी उभर कर सामने आई है कि अरविन्द केजरीवाल और पूर्व उप-मुख्यमंत्री मुनीष सिसोदिया सहित इसके ज्यादातर सभी वरिष्ठ नेता चुनाव हार गए हैं। चाहे मुख्यमंत्री आतिशी चुनाव जीत गई हैं, परन्तु उन्होंने कहा है कि ये चुनाव परिणाम पार्टी के लिए एक ‘झटके’ की तरह हैं, परन्तु भाजपा के विरुद्ध ‘आप’ की लड़ाई जारी रहेगी। इस हार पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने कहा है कि वह विनम्रता से इस हार को स्वीकार करते हैं और आगामी पांच वर्ष वह तन्मयता से विपक्ष की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने शिक्षा, पानी, बिजली तथा मूलभूत ढांचे के क्षेत्र में विगत अवधि में बड़ा काम किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस भारी जन-समर्थन के लिए दिल्ली के लोगों का धन्यवाद करते हुए कहा कि वह उनके जीवन को उत्तम बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ेंगे और राजधानी के हर पक्ष से विकास में बड़ा योगदान डालेंगे। भाजपा के लिए यह सन्तोषजनक बात है कि उसकी पुन: 27 वर्ष बाद दिल्ली की सत्ता में वापिसी हुई है।
इन चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर और विशेष रूप से पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ेगा, अब यह देखना शेष होगा। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार के पास 2 वर्ष का समय शेष है। अब यह भी देखना होगा कि इस समय में वह अपनी पार्टी का प्रभाव बनाए रखने के साथ-साथ प्रदेश की प्रत्येक पक्ष से बेहतरी करने में कितना योगदान डालने में सक्षम होगी। पार्टी नेतृत्व को पिछले 3 वर्ष के अनुभव को सामने रखते हुए अपनी नीतियों के पुनर्निर्माण की ज़रूरत होगी। जहां भाजपा के लिए यह जीत और भी उत्साह पैदा करने वाली होगी, वहीं कांग्रेस को भी पुन: गम्भीरता से गहन सोच-विचार करने की ज़रूरत होगी, क्योंकि 2 वर्ष बाद पंजाब में उसे एक बार फिर चुनाव मैदान में उतरना पड़ेगा।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द