दिल्ली में गरीबों के वोट पर भारी पड़ा मध्यम वर्ग का समर्थन
पंजाब की राजनीतिक ताकतें इस समय गम्भीर होकर सोच रही होंगी कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव में ‘आप’ की पराजय का मतलब उनके लिए क्या है? दिल्ली के मीडिया सरकिलों में अफवाहों का बाज़ार गर्म है। कहा जा रहा है कि अब भाजपा कभी भी पंजाब में ऑपरेशन लोटस चला सकती है। ऐसी-ऐसी कल्पनाएं की जा रही हैं कि ‘आप’ के सभी 90 विधायक मुख्यमंत्री समेत एक साथ भाजपा में जा सकते हैं। वैसे तो राजनीति में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। एक बार तो भजनलाल के नेतृत्व में हरियाणा की पूरी की पूरी सरकार ने पार्टी बदल ली थी। लेकिन, जो भी हो, पंजाब में इसकी सम्भावना न के बराबर ही है। इस प्रदेश में अकाली दल अभी भी अपने बनाये हुए गड्ढे से निकल नहीं पाया है। कांग्रेस अमरिंदर सिंह के जाने के बाद (दरअसल उन्हें तो पार्टी से बाहर धकेला गया था) नेतृत्वविहीन है। स्वयं भाजपा का समर्थन आधार बहुत छोटा है। इस लिहाज से देखें तो ‘आप’ की सरकार सुरक्षित ही लग रही है। लेकिन इस स्थिति के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि कब पंजाब में ‘आप’ की सरकार किसी परीक्षा की घड़ी का सामना करते हुए दिखने लगे।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणामों की कोई भी समीक्षा यहां के मतदाताओं के विशिष्ट चरित्र पर रोशनी डालने बिना नहीं की जा सकती। देश के पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक प्रत्येक सौ लोगों की आबादी पर हमारे यहां बाईस लोग ऐसे हैं जिन्हें नियमित रूप से वेतन मिलता है। लेकिन दिल्ली इसका अपवाद है। यहां हर सौ लोगों पर 56 लोग वेतनभोगी हैं। चाहे वे निजी कम्पनियों में काम करते हों या सरकारी विभागों में या स्कूल-कॉलेजों में। यह है दिल्ली का खातपीता मध्यम वर्ग। (सारे देश में 13 करोड़ वेतनभोगी हैं जिनका चौथाई हिस्सा दिल्ली में रहता है)। इस आबादी में सारे देश के मुकाबले अमीर लोगों का प्रतिशत भी संख्यात्मक रूप से उल्लेखनीय है। 2020 के बाद पिछले पांच साल में इस तब़के की संख्या साढ़े छह प्रतिशत बढ़ गई है। लोकसभा चुनावों में भाजपा को दिल खोल कर वोट करने के बाद पिछले दो विधानसभा चुनावों से इसी ़खुशहाल वोटर का एक अच्छा-़खासा हिस्सा ‘आप’ के पास खिसक आता था। कम आय वाले वर्ग के दिलखोल समर्थन के साथ मिल कर ‘आप’ का वोट प्रतिशत पचास के पार चला जाता था। इस बार भाजपा ने इन वोटरों को कमोबेश अपने पास रोकने में कामयाबी हासिल कर ली। भाजपा के वोटों में जो लगभग 8 प्रतिशत (38 से 45.56 प्रतिशत) और कांग्रेस के वोटरों में लगभग 2 प्रतिशत (4.25 से 6.34 प्रतिशत) की जो बढ़ोतरी हुई है, वह यहीं से आती दिखाई देती है। ‘आप’ के लगभग 10 प्रतिशत वोट ही गिरे हैं। उसे जो 43.5 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए, वे दिल्ली के ़गरीबों (मुसलमानों और दलितों समेत जो मोटे तौर पर निम्न आय वर्ग से ही ताल्लुक रखते हैं) के हैं। इस लिहाज़ से यह चुनाव एक तरह की वर्गीय होड़ की तरह भी देखा जा सकता है।
इस वर्ग का समर्थन अपने पास बनाये रखने का काम केंद्र सरकार के पिछले ढाई साल में किये गये चार हस्तक्षेपों ने किया। पहला हस्तक्षेप वह था जब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले को पलट कर केंद्र सरकार ने अ़फसरों और कर्मचारियों की नियुक्तियों और तबादलों का अधिकार चुनी हुई सरकार से छीन कर गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करने वाले उपराज्यपाल को दे दिया। इसके लिए उसने पहले अध्यादेश जारी किया, और फिर ़कानून बनाया। इसने ‘आप’ सरकार को पंगु कर दिया। वह स्कूल खोल सकती थी, पर शिक्षक नियुक्त नहीं कर सकती थी। वह मुहल्ला क्लीनिक खोल सकती थी, पर वहां डॉक्टर और कम्पाउंडर नियुक्त करने का अधिकार उसके पास नहीं था। यही कारण था कि वह पहले कार्यकाल में बनी डिलीवरी करने वाली सरकार की छवि खो बैठी। नौकरीपेशा मध्यवर्ग की व्यवहार-बुद्धि ने सोचा कि अगर उसने फिर से ‘आप’ को जिताया तो उसे उपराज्यपाल फिर से काम नहीं करने देंगे। यह एक ऐसी एंटीइनकम्बेंसी थी जिसका तोड़ भविष्य में वायदे पूरे करने के किसी आश्वासन से नहीं किया जा सकता था। नयी दिल्ली नगर महापालिका का चुनाव जीतना भी आआपा के खिलाफ गया। भाजपा की विशेष रणनीति के कारण एनडीएमसी में दो साल से हंगामा ही चलता रहा। उसके कारण भी शहरी गवर्नेंस आश्वासन पूरा नहीं किया जा सका।
केंद्र सरकार ने दूसरा हस्तक्षेप केंद्रीय जांच एजेंसियों (ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स) के ज़रिये किया। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी भी राजनीतिक दल के खिलाफ ऐसी कार्रवाई कभी नहीं हुई। ढाई साल से निरंतर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों ने कम या ज्यादा मध्यवर्ग के मानस में इस पार्टी की छवि को कुछ न कुछ नकारात्मक अवश्य किया होगा। गिरफ्तारियों और ज़मानत का संभवत: इतना संगीन असर नहीं भी पड़ा हो, पर मुख्यमंत्री के आवास पर ़खर्च किये जाने वाले करोड़ों रुपयों का आरोप मध्यवर्गीय मतदाताओं का मन खट्टा करने के लिए काफी साबित हुआ।
तीसरा और चौथा हस्तक्षेप चुनावी मुहिम के दौरान किया गया। 8वें वेतन आयोग के गठन की घोषणा ने सरकारी कर्मचारियों की नाराज़गी को दूर करने की भूमिका निभाई। ध्यान रहे लोकसभा चुनाव के दौरान नयी दिल्ली, आर.के. पुरम और दिल्ली केंट निर्वाचन क्षेत्रों में बसे केंद्र सरकार के कर्मचारियों ने भाजपा के खिलाफ वोट किया था। इसके बाद एक फरवरी को केंद्रीय बजट में आयकर की ऐतिहासिक छूट ने सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों के वेतनभोगियों का दिल जीत लिया। इन चार हस्तक्षेपों ने ‘आप’ के प्रति नकारात्मक होते हुए मध्यवर्गीय वोटर को भाजपा के प्रति सकारात्मक कर दिया।
इस विश्लेषण का मतलब यह नहीं है कि ‘आप’ के नेतृत्व ने अपनी ओर से ़गलतियां की ही नहीं थीं। उसकी सबसे बड़ी ़गलती थी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं और दिल्ली राज्य को शहरी गवर्नेंस देने की अपनी ज़िम्मेदारियों के बीच घालमेल कर देना। अरविंद केजरीवाल को चाहिए था कि वे स्वयं को राष्ट्रीय राजनीति के लिए मुक्त रखते, और दिल्ली का कामकाज बाकायदा अपने किसी साथी के हवाले कर देते। जेल से छूटने के बाद भी अगर वे सही रणनीति बनाते तो आतिशी सिंह को कामचलाऊ मुख्यमंत्री न बना कर पूरी राजनीतिक मान्यता देते, और स्वयं पूरे देश में ‘आप’ का एजेंडा लेकर निकल जाते।
इस हार के बाद ‘आप’ का भविष्य क्या है? उसे ज़बरदस्त धक्का लगा है, पर इसके बावजूद उसके पास 43.5 प्रतिशत का स्वस्थ समर्थन आधार है जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी उसका साथ दिया है। ‘आप’ की यह पराजय वैसी नहीं है जैसी भाजपा की पिछले दो चुनावों में हुई थी। आज भी उसके पास एनडीएमसी है, पंजाब की सरकार है और विपक्ष की जुझारू राजनीति करने के लिए पूरे पांच साल पड़े हैं। अगर कुछ नयी अनहोनी घटित न हुई, तो वह भाजपा की सरकार से निरंतर जवाबदेही की मांग करने वाली राजनीति कर सकती है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।