अमरीकी फंडिंग और भारतीय राजनीति : हित या हस्तक्षेप ?

डोनाल्ड ट्रम्प ने 20 जनवरी को दूसरी बार अमरीकी राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद ‘संयुक्त राज्य अमरीका की विदेशी सहायता’ का पुनर्मूल्यांकन और पुनर्गठन करने का कार्यकारी आदेश जारी कर दिया। ट्रम्प का यह फैसला स्वाभाविक तौर पर चौंकाने वाला था, लेकिन यह ट्रम्प का अपना स्टाइल है। इस निर्णय का प्रभाव मिस्र और इज़रायल को छोड़कर उन देशों पर पड़गा जिन्हें यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डिवेल्पमेंट (यूएसएड) से सहायता मिलती थी। अब ट्रम्प प्रशासन द्वारा यूएसएड को बंद कर विदेश मंत्रालय में शामिल करने का फैसला किया गया है। यूएसएड  की स्थापना राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी के कार्यकाल में वर्ष 1961 में हुई थी, जिसका उद्देश्य विकासशील देशों के स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, कृषि, जलवायु और लोकतांत्रिक गतिविधियों का उन्नयन करना था। अमरीका में ट्रम्प प्रशासन के तहत बजट कटौती पर कड़ा रुख अपनाया गया है। एलन मस्क के नेतृत्व में एक अस्थायी अनुबंधित संगठन ‘डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट इफिशिएन्सी’ (डीओजीइ) का गठन किया गया। इसका उद्देश्य संघीय खर्च में कटौती और ट्रम्प के नियामक एजेंडे को आगे बढ़ाना है। यूएसएड में की जाने वाली कटौती डीओजीइ का ही हिस्सा है। एलन मस्क ने कहा है कि यदि बजट में कटौती नहीं की गई तो अमरीका दिवालिया हो सकता है। अब प्रश्न यह उठता है कि अमरीकी प्रशासन द्वारा लिए गए निर्णय से भारतीय राजनीति में भूचाल क्यों आ गया है। इसका उत्तर इस तथ्य में छिपा है कि अमरीका की यह प्रवृत्ति रही है कि जो देश उनके अनुरूप आचरण न करे, वह उनके ऊपर बहुधा दो तरह के आरोप लगाकर उन्हें प्रतिबन्धित करता है। उस देश में या तो लोकतंत्र खतरे में है अथवा वहां मानवाधिकार का हनन हो रहा है। ऐसा करने के पीछे है उसका राष्टीय हित। अमरीका नहीं चाहता है कि वैश्विक शक्ति संरचना में उसके अतिरिक्त कोई और राष्ट्र उभरे, इसी कारण वह पूरी कायनात में प्रत्येक मुल्क को अपनी आन्तरिक समस्याओं में उलझाने का प्रयास करता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही अमरीका पूरी दुनिया में पुनर्निर्माण के नाम पर विश्व बैंक के ज़रिए सहायता प्रदान करता रहा है ताकि वह इन देशों को अपने खेमे में सम्मिलित कर सके। पहले वह आर्थिक रूप से किसी देश में प्रवेश करता है, फिर वहां की संस्कृति को भी प्रभावित करता है। परन्तु ट्रम्प ने इस बार एक अलग नीति अपनाई है और वह है आर्थिक मदद को रोकना और टैरिफ बढ़ाना। ट्रम्प प्रशासन की धारणा है कि बिना आर्थिक मदद के भी हम अपने को ‘ग्रेट पावर’ साबित कर सकते हैं और दुनिया के अन्य मुल्कों को अपनी शर्तों को मनाने पर विवश कर सकते हैं।  
भारत में हालिया विवाद तब शुरू हुआ जब अमरीका ने मतदाता भागीदारी बढ़ाने के लिए दिए जाने वाले 21 मिलियन डॉलर के फंड को बंद कर दिया। 20 फरवरी को मियामी में एक कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रपति ट्रम्प ने इस फंडिंग पर सवाल उठाया और संदेह जताया कि इसका उद्देश्य भारत में विपक्ष को सत्ता में लाना था। उनके बयान से भारतीय राजनीति में हलचल मच गई। सरकार ने आरोप लगाया कि विदेशी ताकतें भारत के चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश कर रही हैं। 21 मिलियन डॉलर की राशि मात्र दिखावा है। वास्तव में इसके अलावा भी फंडिंग होती रही है। भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने इसे जॉर्ज सोरोस से जोड़ा, जो आई.एफ.ई. एस. को फंड करते हैं। यह वही सोरेस हैं जो खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करते हैं और उन्हें सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं। अमित मालवीय ने कहा कि 2012 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने आई.एफ.ई.एस. के साथ एमओयू साइन किया था हालांकि विपक्ष ने इन दावों को खारिज किया और स्वयं कुरैशी ने 21 मिलियन डॉलर की फंडिंग को गलत बताया और कहा कि यह एमओयू फंड के लिए नहीं वरन् ट्रेनिग प्रोग्राम के लिए हुआ था।
 वाद और प्रतिवाद तो राजनीति की सच्चाई है। बिना प्रतिवाद के राजनीति निरर्थक है किन्तु ट्र्म्प द्वारा भारत में मतदान प्रतिशत (जो लगभग 66 प्रतिशत है) बढ़ाने के लिए दी जाने वाली फंडिंग रोकने के विवाद के मद्देनज़र यह कहना उचित होगा कि अमरीका जहां मात्र 59 फीसदी मतदान होता है, भारत को 21 मिलियन डॉलर की फंडिंग केवल इसलिए करता था ताकि यहां मतदाता की चुनाव में भागीदारी बढ़े, कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। इससे यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि यह फंड भारत को अस्थिर करने के लिए किया जा रहा था, जैसा अमरीका अन्य देशों में अपने हितों  के अनुरूप करता रहा है। बांग्लादेश की स्थिति इसी का नतीजा है। (अदिति)  

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