स्टालिन अपनी राजनीति के लिए देश को उत्तर व दक्षिण में न बांटें
कोयंबटूर में 26 फरवरी, 2025 को भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि परिसीमन पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन द्वारा ‘लोगों को गुमराह करना निंदनीय है’। उनके अनुसार, स्टालिन का यह दावा सही नहीं है कि परिसीमन के बाद तमिलनाडु की लोकसभा सीटें कम हो जायेंगी; क्योंकि प्रधानमंत्री स्पष्ट कर चुके हैं कि परिसीमन के कारण कोई राज्य अपनी लोकसभा सीटें नहीं खोयेगा, बल्कि तमिलनाडु व दक्षिण भारत के अन्य राज्य प्रो-राटा (अनुपात में) आधार पर अधिक सीटें पायेंगे। दूसरी ओर परिसीमन के संभावित परिणामों पर चर्चा करने के लिए स्टालिन ने 5 मार्च, 2025 को एक सर्वदलीय बैठक बुलायी है। तमिलनाडु में फिलहाल लोकसभा की 39 सीटें हैं। स्टालिन और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू अपने-अपने राज्यों के नागरिकों से जनसंख्या वृद्धि करने की अपील कर रहे हैं ताकि उनके राज्यों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कम न हो और वह उत्तर के राज्यों के मुकाबले में राष्ट्रीय राजनीति में कमज़ोर न पड़ें। एक तरह से यह उत्तर बनाम दक्षिण करने का प्रयास है और संभवत: स्टालिन तथाकथित ‘हिंदी थोपे जाने’ का मुद्दा भी इसी वजह से उठा रहे हैं।
सेंसस ऑफिस का जो भारतीय जनसंख्या के लिए मार्च 2025 का अनुमान है, अगर उसके आधार पर मोटा-मोटा हिसाब लगाया जाये तो राज्यों की लोकसभा सीटों में कमी नहीं, होने के बावजूद जनसंख्या के आधार पर जो सीटों में उनकी हिस्सेदारी प्रतिबिम्बित हो रही है, उससे लोकसभा की सीटें 543 से बढ़कर लगभग 790 हो सकती हैं। इस परिदृश्य में केरल की लोकसभा सीटें तो 20 ही रहेंगी, लेकिन शेष सभी प्रमुख राज्य अपनी सीटों में इजाफा देखेंगे। बहरहाल, लोकसभा सीटों में हिस्सेदारी की दृष्टि से दक्षिण के राज्यों को बड़ा नुकसान हो सकता है। वर्तमान में पांच दक्षिण राज्यों के पास 129 सीटें हैं यानी लोकसभा में उनकी हिस्सेदारी 24 प्रतिशत है, लेकिन 790 सीटों वाली लोकसभा में उनके पास 152 सीटें होंगी यानी उनकी हिस्सेदारी घटकर 19 प्रतिशत के आसपास रह जायेगी। तमिलनाडु की वर्तमान में हिस्सेदारी 7.2 प्रतिशत है, जो घटकर 5.4 प्रतिशत रह जायेगी। इसकी तुलना में हिंदी पट्टी के राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान व मध्य प्रदेश) के पास वर्तमान में 174 या 32 प्रतिशत सीटें हैं। लेकिन 790 सदस्यों वाली लोकसभा में यह संख्या बढ़कर 300 या लगभग 38 प्रतिशत हो जायेगी। अकेले उत्तर प्रदेश की सीटें 80 से बढ़कर 133 हो जायेंगी, लेकिन यह तो जनगणना के बाद का सामान्य अनुमान है, क्योंकि पहले से ही यह कुचर्चा फैली हुई है कि दक्षिण भारत की सीटें कम हो जाएंगी, इसलिए ऐसा नहीं होगा इसके लिए कोई न कोई रास्ता निकाला जायेगा, ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी कह चुके हैं।
हर जनगणना के बाद परिसीमन करना तय किया गया था ताकि जनसंख्या के आधार पर प्रत्येक राज्य की सीटों में हिस्सेदारी को प्रतिबिम्बित किया जा सके और आवश्यक रूप से एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत को सुनिश्चित किया जा सके। यह आवधिक एक्सरसाइज़ इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जनसंख्या के बढ़ने के साथ अगर सांसदों या विधायकों की संख्या में वृद्धि नहीं होगी तो बढ़ी हुई जनसंख्या का सही से प्रतिनिधित्व करना उनके लिए असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जायेगा। चूंकि जनसंख्या नियंत्रण उस समय का प्रमुख मुद्दा था, इसलिए आपातकाल के दौरान लाये गये 42वें संशोधन में कहा गया कि 2001 की जनगणना तक राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को आवंटित सीटों में कोई परिवर्तन नहीं किया जायेगा। फिर 2001 के 91वें संशोधन ने इस प्रतिबंध को 2026 के बाद की पहली जनगणना तक के लिए बढ़ा दिया गया। विचार यह था कि जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा काम किया है या कर रहे हैं, उनकी सीटों का हिस्सा कम करके उन्हें ‘सज़ा’ नहीं दी जानी चाहिए और ऐसा कई बार कहा जा चुका है।
इस पचास वर्ष से अधिक के ‘प्रतिबंध’ का नतीजा यह निकला है कि आज सीटों में राज्यों की हिस्सेदारी उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है। अगर मार्च 2025 की अनुमानित जनसंख्या के आधार पर देखा जाये तो केरल में हर 18 लाख लोगों के लिए एक सांसद है और राजस्थान में हर 33 लाख लोगों के लिए एक सांसद है, जबकि 1970 के दशक में सभी राज्यों (वास्तव में बहुत छोटे राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़कर) लगभग हर 10 लाख लोगों के लिए एक सांसद था। अगर एक सांसद 33 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, तो उसके लिए मुमकिन ही नहीं है कि वह अपने क्षेत्र के सभी लोगों की समस्याओं व परेशानियों को जान व समझ सके और उसके क्षेत्र के सभी लोगों की पहुंच उस तक हो सके। स्थिति यह है कि अधिकतर लोकसभा क्षेत्रों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपने सांसद से मुलाकात तो दूर, उसे देखा तक नहीं। इस समस्या का बहुत आसानी से समाधान निकाला जा सकता हैष हिस्सेदारी को बदले बिना सीटों की संख्या में इजाफा कर दिया जाये, लेकिन यह अनुपात सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
अगर अनुपात सिद्धांत को बरकरार रखना है तो उसका अर्थ सीट हिस्सेदारी की दृष्टि से क्या होगा? ज़ाहिर है जिन राज्यों की जनसंख्या पिछले पचास वर्षों के दौरान तेज़ी से बढ़ी है, उनकी सीटें बढ़ जायेंगी और जिनकी जनसंख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है, उनकी सीटें कम हो जायेंगी। लेकिन यह परिवर्तन कितना होगा, इसका अनुमानित जवाब ऊपर दिया जा चुका है और वही इस समस्या कि जड़ है। बहरहाल, असल पहेली तो यह है कि परिसीमन पर इस समय क्यों विवाद व बहस है जबकि इसका होना 2026 के बाद की पहली जनगणना के बाद ही होना निर्धारित है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर