दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध का विरोध क्यों ?

जब राजनीति से भ्रष्टाचार और अपराध खत्म करने के दृष्टिगत केंद्र सरकार ही गम्भीर नहीं है, तब इसे रोक पाना न्यायपालिका के लिए कतई संभव नहीं है। चूंकि केंद्र सरकार अपने वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के इशारे पर हर फैसले लेती है, इसलिए बेलगाम नेताओं को कानूनी ज़जरिए से बांधने की अधिकांश न्यायिक पहल भी व्यर्थ हो जाती है।
यह इसलिए कहा जा रहा है कि खुद केंद्र सरकार ने ही दोषी करार दिए गए राजनीतिक नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने का अनुरोध करने वाली एक याचिका का सुप्रीम कोर्ट में विरोध किया है। इससे सरकार की नीयत का पता चलता है। एक तो वह समय रहते ही कानून नहीं बनाती है और दूसरा जब इसकी मांग उठती भी है तो उसका बचाव किया जाता है।
तभी तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि इस तरह की अयोग्यता तय करना केवल संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। अदालत दाखिल अपने हलफनामे में केंद्र ने कहा है कि यचिका में जो अनुरोध किया गया है, वह विधान को फिर से लिखने या संसद को एक खास तरीके से कानून बनाने का निर्देश देने के समान है। चूंकि संविधान ने संसद को अयोग्यता से जुड़े ऐसे अन्य कानून बनाने का अधिकार दिया है, जिसे बनाना वह सही समझती हो।
सरकार के मुताबिक, संसद के पास अयोग्यता के आधार और उसकी समयसीमा, दोनों तय करने की शक्ति है। ऐसे में आजीवन प्रतिबंध लगाना सही होगा या नहीं, यह पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकार का तर्क है कि कानून का स्थापित सिद्धांत है कि दंड या तो समय या मात्रा के अनुसार तय होते हैं। लिहाजा, सज़ा के असर को एक समय सीमा तक सीमित रखना कोई असंवैधानिक बात नहीं है। बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 संसद, विधानसभा या विधानपरिषद की सदस्यता के लिए अयोग्यता से सम्बन्धित है।
अपने हलफनामे में केंद्र ने रेखांकित किया है कि सुप्रीम कोर्ट ने लगातार यह कहा है कि एक विकल्प या दूसरे पर विधायी विकल्प के असर को लेकर अदालतों में सवाल नहीं उठाया जा सकता। ऐसे में इस विषय पर न्यायिक हस्तक्षेप उचित नहीं है। इसलिए अदालत विवेकसम्मत व न्यायसंगत निर्देश दे। बता दें कि वर्तमान में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 (1) के तहत किसी भी नेता को सज़ा होने के बाद 6 साल तक चुनाव लड़ने से रोका जाता है। इसलिए केंद्र ने कहा है कि उक्त धाराओं के तहत आजीवन प्रतिबंध लगाना सही नहीं होगा।
इस प्रकार सरकार अदालत के समक्ष तीन बातें स्पष्ट कर चुकी है। पहली यह कि संविधान ने संसद को अयोग्यता से जुड़े कानून बनाने का अधिकार दिया है। दूसरी यह कि यह न्यायिक समीक्षा से जुडी सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों से पूरी तरह परे है और तीसरी यह कि दोषी राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध सही है या नहीं, यह सवाल पूरी तरह से संसद के दायरे में आता है।
इससे साफ है कि सरकार में शामिल राजनीतिक नेतृत्व अपने दूरगामी राजनीतिक हितों के दृष्टिगत राजनेताओं के खिलाफ सही और तर्कसंगत कानून भी नहीं बनने देता है और जब-जब ऐसी बात उठती है तो वह तमाम तरह के किंतु-परन्तु करता है। यही वजह है कि हमारी संसद में गरीबों को छोड़कर हर तरह के लोग मिल जाएंगे। गम्भीर अपराध और चरित्रहीनता के आरोपी भी, क्योंकि कानून राजनेताओं के पक्ष में है, जिसका ये भरपूर लाभ उठाते हैं।
लिहाजाए यह एक गम्भीर प्रशासनिक विडम्बना है, संवैधानिक त्रासदी है और समाज में बढ़ती अपराधिक और राजनीतिक मनमानी की सबसे बड़ी वजह भी है। ऐसा इसलिए कि राजनेताओं के खिलाफ यथोचित कानूनों की कमी है। कई मामलों में उन्हें अनैतिक संरक्षण भी विशेषाधिकार के तौर पर हासिल है। ऐसे सभी मामलों में सत्ता पक्ष-विपक्ष एक जैसे प्रतीत होते हैं। 
इसलिए भ्रष्ट और दोषी नेताओं के खिलाफ  उतनी मुकम्मल कार्रवाई नहीं हो पाती है, जितनी कि आम जनता के खिलाफ तुरंत हो जाती है। क्या अमृतकाल में यह प्रवृत्ति बदलेगी?। खासकर लगातार तीन बार केंद्र में सत्तारूढ़ हुई राजग के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को इससे बचना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक सुधार के लिए उससे जनता को बहुत उम्मीदें है।

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