तीन भाषाई फार्मूले पर संसदीय सीटों का हल निकाले केन्द्र सरकार
देश में भाषा और संसद में प्रतिनिधित्व के सवाल पर एक बार फिर ज़ोरदार बहस छिड़ गई है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही मसलों पर हमारे पास ताज़े आंकड़े नहीं हैं। आंकड़े आएं भी आएं कहां से। 2021 में जो राष्ट्रीय जनगणना होनी चाहिए थी, वह अभी तक नहीं हो सकी है। जिस समय जनगणना होनी चाहिए थी, उस समय कोविड महामारी चल रही थी। इसलिए सरकार ने उसे टाल दिया। लेकिन उसके बाद से न जाने कितने चुनाव हो चुके हैं, लेकिन जनगणना नहीं की गई। जबकि, दुनिया में बहुत से देशों ने देर से ही सही, अपनी-अपनी जनगणना करवा ली। अगर हमने भी करवा ली होती तो आज हमें पता होता कि किस भाषा के बोलने वाले इस समय कितने हैं। और लोग त्रिभाषा-सूत्र के तहत कौन सी भाषा किसके साथ मिला कर बोलते हैं। साथ ही हमें यह भी पता होता कि दक्षिण भारत में आबादी कितनी बढ़ी है, बढ़ी भी या नहीं। और, उत्तर भारत के पहले से ही बड़ी आबादी वाले राज्यों में जनसंख्या में कितनी बढ़ोतरी हुई है। इससे हमें यह भी पता चल जाता कि आबादी के आधार पर संसद का परिसीमन कराने पर किस राज्य को कितना लाभ होगा, और किसको कितना घाटा होगा।
हालांकि संघवाद का मसला पिछले कुछ वर्षों से बहसों के केंद्र में था, लेकिन यह अंदाज़ा किसी को नहीं था कि यह अचानक दक्षिण बनाम उत्तर, विकास बनाम पिछड़ापन, आबादी-नियंत्रण बनाम आबादी के विस्तार और हिंदी-संस्कृत बनाम तमिल के रूप में निकल कर आ जाएगा। अभी केवल तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन और कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने ही इसे उठाया है। ऐसा लगता है कि जल्दी ही तेलंगाना और केरल से भी ऐसी ही आवाज़ें आनी शुरू हो जाएंगे। आंध्र में सरकारी पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ गठजोड़ की सदस्य है, इसलिए मुख्यमंत्री इसे उठाने से हिचकेंगे, पर उनके विपक्ष में खड़ी वाईएसआर कांग्रेस इस पर तत्परता से ज़ोर देगी। अगर केंद्र ने कुशलता और ऩफासत से इसे संबोधित नहीं किया तो हो सकता है कि नज़ारा एक बार फिर 60 के दशक जैसा बन जाए। इतिहास हमें बताता है कि ऐसे ही मसलों के कारण 60 के दशक में तमिलनाडु के द्रविड़ नेता (खासतौर से करुणानिधि) अपनी राष्ट्रीयता भारतीय न बताकर द्रविड़ बताने लगे थे। इस मसले को द्रविड़ बनाम आर्य के रूप में परिभाषित किये जाने का खतरा भी है। ऐसा होने पर कुछ महाराष्ट्रियन तत्व भी इसके समर्थन में सामने आ सकते हैं। ऐसा करने के लिए बस उन्हें महात्मा फुले की उस विरासत को जगाने की ज़रूरत है जिसके केंद्र में आर्य आक्रमण की थीसिस है। सच्चाई तो यह है कि इस बार इस विवाद में 60 के दशक से भी ज्यादा तीखापन आने का डर है। इसके दो कारण हैं:-
पहला, दक्षिण भारतीय राज्यों को लग रहा है कि उनके ऊपर परिसीमन की तलवार लटक रही है। अगर जनसंख्या को आधार बना कर संसद की सीटों का नया परिसीमन किया गया तो एक अनुमान के अनुसार लगभग 900 सदस्यों वाली लोकसभा में 80 प्रतिशत से ज्यादा सीटें बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के हिस्से में आएंगी, और ब़ाकी 20 प्रतिशत सीटों में दक्षिण भारत सिमट जाएगा। कहना न होगा कि नये परिसीमन में सीटें उत्तर भी बढ़ेंगी, और दक्षिण की भी। लेकिन दक्षिण को आबादी-नियंत्रण और आर्र्थिक विकास करने की सज़ा मिलेगी। यानी उसकी सीटों में बहुत कम वृद्धि होगी, और उत्तर को आबादी बढ़ने देने और विकास की होड़ में पिछड़ने का राजनीतिक इनाम हासिल होगा यानी उसकी सीटों में बहुत अधिक बढ़ोतरी हो जाएगी।
दूसरा, केंद्र सरकार ने तमिलनाडु को दी जाने वाली समग्र शिक्षा स्कीम से संबंधित फंडिंग (2,152 करोड़ रुपए) रोक दी है। कारण यह बताया गया है कि इस प्रदेश ने 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से इंकार कर दिया है। यह बड़ी रकम शिक्षा-अधिकार अधिनियम के प्रावधान के तहत केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं के लिए दी जानी थी। स्टालिन को नयी शिक्षा नीति पर मुख्य आपत्ति त्रिभाषा सूत्र को लेकर है। यह नीति 50 के दशक में राधाकृष्णन आयोग ने तैयार की थी, और इंदिरा गांधी की सरकार ने इसे पहली बार लागू किया था। मोटे तौर पर इसका मतलब यह है कि गैर-हिंदी प्रदेशों में माध्यमिक स्तर से ही छात्रों को हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई जानी चाहिए। और, हिंदी प्रदेशों में अंग्रेज़ी और हिंदी के साथ एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा (जहां तक हो सके दक्षिण भारत की कोई एक भाषा) की शिक्षा दी जानी चाहिए।
जैसे कि हम जानते हैं कि तमिलनाडु त्रिभाषा सूत्र को लागू ही नहीं करता। वह केवल दो भाषाएं (तमिल और अंग्रेज़ी) ही पढ़ाता है (निजी स्कूल और केंद्रीय विद्यालय चाहें तो हिंदी पढ़ा सकते हैं)। वह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करना एक संवैधानिक दायित्व है। वह कहता है कि यह तो मौजूदा सरकार की नीति है, और केंद्र में सरकार बदलने पर यह बदली भी जा सकती है। तमिल नेताओं (जिनमें पी. चिदम्बरम भी शामिल हैं) की दलील है कि उत्तर भारत में त्रिभाषा सूत्र का व्यावहारिक मतलब या तो केवल हिंदी पढ़ाना है, या हिंदी और अंग्रेज़ी या तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाना है। दक्षिण भारतीय भाषाएं वहां कोई नहीं पढ़ता, और दक्षिण के ऊपर इस सूत्र के तहत हिंदी थोपी जाती है।
दक्षिण की तरफ से हो रही इस दोनाली फाइरिंग से केंद्र की भाजपा सरकार कैसे निबटेगी? इस बंदूक की एक नाल से तो राजनीतिक प्रतिनिधित्व की गोलियां चल रही हैं, और दूसरी नाल भाषा का सांस्कृतिक सवाल उगल रही है। दोनों ही मसले विस्फोटक हैं। कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा के पास संगठन भी है, लेकिन नहीं लगता कि इन दोनों प्रश्नों पर वहां के भाजपा संगठन भी सहज हो कर केंद्र के पक्ष में बोल पाएंगे।
केंद्र चाहे तो दो तऱीके से इसका समाधान कर सकता है। पहला, उसे तुरत-फुरत वह गणितीय फार्मूला तैयार करके पेश करना चाहिए जो यह गारंटी करता हो कि जनसंख्या के आधार पर किये गये परिसीमन में उन राज्यों को अपवाद बनाया जाएगा जिन्होंने आबादी को प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया है। दक्षिण के राज्यों की इस फार्मूले पर सहमति भी ज़रूरी है। बिना इस फार्मूले के गृहमंत्री कुछ भी आश्वासन देतें रहें, उनकी बात का कोई असर नहीं पड़ेगा। जहां तक भाषा का सवाल है, मौजूदा सरकार को अपने ही पहले के शिक्षा मंत्री के वक्तव्य का सम्मान करना चाहिए। स्मृति ईरानी ने मानव संसाधन मंत्री के रूप में कहा था कि हर प्रदेश अपने पाठ्यक्रमों और विषयों के बारे में स्वयं अंतिम फैसला कर सकता है। कांग्रेस के शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह का भी यही कहना था। केंद्र इस मामले में जितनी देर करेगा, राष्ट्रीय एकता के लिए अंदेशे पैदा होते चले जाएंगे। भाजपा के दक्षिण भारत में विस्तार करने के प्रोजेक्ट का नुकसान अलग से होगा।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।