पुस्तक संस्कृति का मर्सिया
इन्कार है उस पूजा-अर्चना से जो उन अलेखकों की करनी पड़ती है जो तिकड़म दर तिकड़म गुट दर गुट अकादमियों, विभागों और सांस्कृतिक संस्थानों पर वर्चस्व जमाए रखते हैं, लेकिन फिर भी इस चिन्ता से सूखते नज़र आते हैं कि लोग पढ़ते नहीं। पुस्तक संस्कृति काल कलवित हो गई। संगीत बेसुरी और कोलाहल भरी धुनों में खो गया और लिखने वालों की पहचान अन्धकूपों की कैदी हो गई।
हम स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि अचानक पिछले चन्द बरसों में देश के सांस्कृतिक संस्तरण और इतिहास के पुन: जागरण के लिए बहुत कुछ समाज और साहित्य के मीर-मुशियों ने अपने भाषाओं में किया है। नतीजा नाम बदल गए हैं। शहरों से लेकर मुहल्लों और सड़कों के। लेखन की महामना सूचियों से लेकर पुरस्कारों की घोषणा में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। जो बरसों से साधना में लीन थे, उन्हें बिना पढ़े चुके हुए कह कर नकार दिया गया है, और चतुर सुजान चोरी की खिड़कियां ही नहीं मुख्य द्वार खोल कर अकादमियों के भीतर घुस गए हैं। यह घुसपैठ नहीं, बाकायदा महिमामंडन है, उन लोगों का जो हथेलियों पर हिमालय उगाना जानते हैं।
देश में अकादमियां धनी गईं, साहित्य सांस्कृतिक संस्थान समृद्ध हो गए। हर बरस खातों में विकास के नाम मोटी रकमों का अनुदान आता है, लेकिन चन्द घरौंदों तक सिमट जाता है। साहित्य के इन अभियानों के द्वारा मौलिकता को प्रोत्साहन मिलना चाहिए था। देश ने भी तो जय जवान, जय किसान के साथ जय अनुसंधान अपना लिया है। लेकिन अनुसंधान और शोध के नाम पर पिटी पिटाई लकीरों की पुन: स्थापना सुलभ रहती है। इसे गरिमामय अतीत में लौटना कह कर उचित ठहरा दिया जाता है, लेकिन इस अतीत का आज या वर्तमान क्या है, भविष्य क्या होगा, इसके लिए तो कुछ परेशान करने वाले सवालों का सामना करना होगा न।
सवालों के जवाब तलाशने पड़ेंगे, लेकिन आज तलाश कौन करता है? सृजन की अलम्बरदारी करने वाली बड़ी अकादमी से लेकर छोटी अकादमियों तक, बड़ी संस्थाओं से लेकर छुट भय्या संस्थाओं तक अनुदान की उदारता को प्रेरित करने में जुटी हैं। नई चेतना के स्फुरण के नाम पर विदेश यात्राओं से लेकर देशाटन तक होता है। उत्सव प्रेमी देश है। चुनिन्दा उचित महानुभावों के संग साथ में उत्सव मनाए जाते हैं। इन्हें राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी कह दिया जाता है, लेकिन नतीजा वही टांय-टांय फिस्स है जो समाचार पत्रों और सोशल मीडिया में प्रशंसा सूचक उदगार बटोरने तक सिमट जाता है।
साहित्य, कला, संस्कृति के काया-कल्प के नाम पर इन संस्थानों के बड़े-बड़े परिसर उभर आए हैं, लेकिन यहां सृजन नहीं, संकोच की वयार बहती है। प्रसार मंचों पर जिन्हें होना चाहिए, वे लक्ष्मण रेखाओं से प्रतिबंधित होने के कारण नज़र नहीं आते, और जो चेहरे साल-दर-साल यहां चमकते रहते हैं, ये वे लोग हैं जो कुर्सी पर जमने के बाद साहित्य के आदाब सीखते हैं, अपनी पहली कृति का धूमधाम से उद्घाटन करवाते नज़र आते हैं।
आपकी चिन्ता है कि आने वाले युग में पुस्तक संस्कृति का देहावसान क्यों हो रहा है? नहीं उसकी शोकांजलि के श्रद्धा पुष्प प्रस्तुत न कीजिए, आइए वे चेहरे पहचान लें जो ज़िम्मेदार गद्दियों पर बैठ कर भी अपना दायित्व पहचान नहीं पाए।
जनाब अकरम इलाहावादी ने कहा था, ‘हाकिम को बहुत चिन्ता है रियाया की, लेकिन अपना डिनर खाने के बाद।’
लेकिन यहां तो डिनर खत्म होता ही नज़र नहीं आ रहा। जमानासाज़ी के कीलकारों से दुरुस्त महानुभावों और उनके अनुयायियों की एक फौज खड़ी हो गई है। एक अपनी पारी पूरी करता है, जब कि उम्र ने जवाब दे दिया, तो कुर्सी उसके पट्टशिष्य के हवाले हो जाती है। परिवारवाद को बढ़ावा नहीं देना है, नारा तो लग गया, लेकिन समान विचारधारा को समर्पित व्यक्तित्व को तलाशना है, का सुरक्षित तर्क तो है न। इसलिए एक मिटते जाते हैं, और उनके मिट्ठू तशरीफ ले आते हैं। कारवां यू ही बिना व्यवधान चलता रहता है। इसी को मुख्य धारा घोषित कर दिया जाता है, नए खून की आमद कह दिया जाता है। इन कतारों से बाहर छिटक गई है, केवल पूरी की पूरी पीढ़ी ही नहीं, उनके पीछे आ सकने वाली पीढ़ियां भी, जिन्हें बहुत कुछ लीक से हट कर कहना और करना है, लेकिन एक विशेष रंग से रंगी चिंताओं और चिन्तन ने अपने कटमुल्ले मन से उनका रास्ता रोक दिया।
यहां नई घोषणाओं की कमी नहीं है। नव-अभियानों की घोषणा होती रहती है। पुस्तकों के प्रकाशन से नव-ज्ञान पैदा होता है, इससे उन्हें इन्कार नहीं। लेकिन वह ज्ञान उनकी मीमांसा और समीक्षा की कसौटी पर पूरा उतरे, शर्त है। यहां तो उल्टे बास बरेली को चले गए भय्या। पहले प्रतिभान और सीमा रेखाएं निश्चित की जाती हैं, यहां, फिर उन पर खरा उतरने वाला सृजन होता है, साहित्य में, समाज में राजनीति में। ‘दिन-रात होता है तमाशा मेरे आगे’ यह गगनचुम्बी संस्थान साहित्य और समाज के मार्ग दर्शक, मित्र, दार्शनिक और पथ-प्रदर्शन बनने थे। आज वे नई परियोजना प्रस्तुत करते हैं, जो उनकी बस्तियों तक आने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। कुर्सियों पर जमे हुए लोग और भी स्थायी हो जाते हैं, अपनी पारियों का विस्तार पाते हैं, लेकिन नई पौध के आह्वान करने या उसे निमंत्रित करने में कमी नहीं होगी, कहते हैं। यह दीगर बात है कि यह आहन इन दीवारों से पार नहीं जा पाते। दीवारें जो निस्तर ऊंची ही रही हैं, और किलेबन्दी को कट्टरता के नए गुण सिखा रही हैं।