ज़रूरत है पंजाब के भविष्य संबंधी चिन्ता करने की 

इस समय पंजाब में कुछ मामले बहुत चर्चा में हैं। यह हैं—पंजाब का बजट, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का बजट अधिवेशन, हटाए गए सिंह साहिबान की बहाली तथा पांच सदस्यीय समिति की भर्ती आदि। वैसे सच्चाई यह है कि बजट पर चर्चा इतनी ज़रूरी नहीं क्योंकि आजकल सभी राज्यों तथा यहां तक कि केन्द्रीय बजट भी बस एक हिसाब-किताब जैसा ही बन कर रह गया है, अपितु पंजाब की अर्थव्यवस्था तथा इसके के भविष्य की चिन्ता बारे चर्चा करना अधिक ज़रूरी है, क्योंकि पंजाब जो प्रति व्यक्ति आय में पहले स्थान पर होता था, अब 15वें स्थान पर आ गया है। इसमें किसी एक पार्टी की सरकार का दोष नहीं अपितु पूर्व तथा मौजूदा सरकार सभी दोषी हैं। दूसरा विषय भी वास्तव में उतना ज़रूरी नहीं जितना इस बात पर चर्चा ज़रूरी है कि सिख कौम के एक स्वीकृत एवं मज़बूत नेतृत्व का उभार कैसे हो? शायर हऩीफ अ़खगर का एक शे’अर है : 
सच्चाई तो ़खुद चेहरे पे हो जाती है तहरीर,
दावे जो करें लोग तो आईना दिखा दो। 
वैसे पंजाब का बजट इस बार कुछ बातों में काफी अच्छी हैं। सबसे अच्छी बात यह कि इस बार सबसे अधिक पैसा शिक्षा विभाग के लिए रखा गया है। यह विगत वर्ष के 16987 करोड़ रुपये के मुकाबले इस बार 17975 करोड़ रुपये है, जो पिछली बार से 988 करोड़ रुपये अधिक है। यह वृद्धि लगभग 5.82 प्रतिशत है। मैडीकल शिक्षा का बजट भी बढ़ाया गया है, जो विगत वर्ष 1133 करोड़ था। इस वर्ष 1336 करोड़ रुपये है। यह वृद्धि लगभग 18 प्रतिशत है। कुल मिला कर 12 प्रतिशत वृद्धि की बात की जा रही है, जो वास्तव में काबिले-तारीफ है। स्वास्थ्य सेवाओं की ओर विशेष ध्यान दिया गया है, विशेषकर स्वास्थ्य बीमा 5 लाख से बढ़ा कर 10 लाख करना तथा इसे 65 लाख परिवारों तक बढ़ाना बड़ा कदम है, परन्तु उल्लेखनीय बात यह है कि बहुत-से निजी अस्पताल मरीज़ों का सरकारी बीमा कार्ड आप्रेशनों, स्टंट डालने आदि के लिए तो स्वीकार करते हैं, परन्तु उन मरीज़ों का शेष उपचार करने से आम तौर पर इन्कार कर देते हैं। वे निजी बातचीत में कहते हैं कि उपचार के लिए दाखिल गंभीर मरीज़ों पर खर्च अधिक होता है और इस आयुष्मान या सरबत स्वास्थ्य कार्ड से पैसे कम मिलते हैं और कई बार बहुत देरी से भी मिलते हैं। इसलिए दो बातें अवश्य हैं, एक तो निजी अस्पतालों को दिए जाने वाले रेट सच्चाई पर आधारित होें तथा दूसरा उनके लिए बीमारियों से इस बीमा कार्ड के आधार पर उपचार करना ज़रूरी हो। वे बहाना बना कर मरीज़ को टरका देते हैं।
नये टैक्स न लगाना बजट में एक प्रथा बन गई है। अब टैक्स बाद में चोर रास्ते से ही लगाए जाते हैं। पंजाब की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे चिंता की बात यह है कि पंजाब अपने सकल घरेलू उत्पाद का 46.6 प्रतिशत ऋणी है जो अरुणाचल प्रदेश को छोड़ कर देश में सबसे अधिक है। पंजाब इस वर्ष भी लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपये नया ऋण ले रहा दिखाई देता है। इस समय पंजाब के सिर पर 3 लाख 78 हज़ार 453 करोड़ रुपये का ऋण है। सो, यह अगले वर्ष सवा 4 लाख करोड़ हो जाएगा, परन्तु हैरानी की बात है कि मुफ्त बिजली, मुफ्त यात्रा तथा अन्य सुविधाएं जारी हैं। इनमें कोई कटौती शायद इस लिए नहीं की गई कि आगामी चुनावों में सिर्फ डेढ़ वर्ष ही सरकार के पास शेष है। यदि आगामी वर्ष प्रति माह 1100 रुपये महिलाओं को देने शुरू कर दिए गए तो, ऋण और भी बढ़ेगा। हां, इस बजट में लगभग सभी वर्गों का ध्यान रखा गया है, परन्तु देखना होगा कि इसमें से सिर्फ कागज़ों पर क्या रहता है तथा क्रियात्मक रूप में लागू क्या-क्या होता है। 
नीयत पर संदेह नहीं परन्तु...
प्रसिद्ध शायर ज़़फर इ़कबाल का एक शे’अर 
मसअला इतना भी आसान नहीं है कि ज़़फर,
अपने नज़दीक जो सीधा है वो उलटा ही न हो।  
इसलिए कोट करना पड़ रहा है कि चाहे हमें पंजाब सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं कि वह नशा-जनगणना किसी राजनीतिक लाभ के लिए नहीं करवा रही। वास्तव में सरकार का इरादा तो बीमारी का निदान (डायग्नोज़) करने का ही है, ताकि यह पता चल सके कि बीमारी का वास्तव आकार क्या है, परन्तु सोचने वाली बात यह है कि ऐसी जनगणना कितना उचित हो सकेगी क्योंकि बहुत-से लोग स्वयं यह नहीं कहेंगे कि वे नशा करते हैं। उनके पारिवारिक सदस्य भी चोरी छिपे नशा करने वालों के बारे चुप ही रहेंगे, परन्तु इस प्रकार एक तरफ तो इस पर खर्च किया गया पैसा व्यर्थ जा सकता है, और दूसरी ओर ये आंकड़े पंजाब को बदनाम करने के लिए भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं। चाहिए तो यह कि सरकार पंजाब के प्रत्येक सरकारी कर्मचारी चाहे वह चपरासी हो या आई.ए.एस. या आई.पी.एस. अधिकारी, प्रत्येक चुने हुए तथा नियुक्त अधिकारी चाहे वे पंचायत सदस्य हो, कौंसलर हो या  विधायक व सांसद या कोई चेयरमैन, सबके लिए वर्ष में एक बार डोप टैस्ट अनिवार्य किया जाए तथा डोप टैस्ट के लिए ऐसा सिस्टम भी बनाया जाए कि समर्थ अधिकारी तथा राजनीतिज्ञ उसे प्रभावित न कर सकें। यदि ऐसा हो तो इसका समाज पर ही अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा अपितु अधिकारी भी नशा रोकने के लिए अधिक गम्भीर यत्न करेंगे। 
सिख नेतृत्व का फैसला 
मसअला जब भी चिऱागों का उठे, 
फैसला सिर्फ हवा करती है। 
परवीन शाकिर के इस शे’अर का ज़िक्र वर्तमान सिख तथा अकाली राजनीति के संदर्भ में करना ज़रूरी प्रतीत होता है। वास्तव में अकाली राजनीति या सिख राजनीति इस समय इतिहास के सबसे बुरे दौर में से गुज़रती दिखाई दे रही है। कल 28 मार्च को एस.जी.पी.सी. का बजट अधिवेशन है, जिसमें दोनों गुटों में सिंह साहिबान को बदले जाने के मामले पर काफी तू-तू, मैं-मैं, तो होगी ही। हमें भय है कि कहीं बात इससे भी आगे न बढ़ जाए।
 एक ओर 5 सदस्यीय समिति की समर्थक नेता बीबी किरणजोत कौर ने 42 शिरोमणि कमेटी सदस्यों के हस्ताक्षरों वाला पत्र हटाए गए सिंह साहिबान को बहाल करने के पक्ष में दिया है, जबकि दूसरी ओर काबिज़ गुट यह दावा कर रहा है कि बैठक में ये 42 सदस्य भी इकट्ठे नहीं रहेंगे, जबकि 5 सदस्यीय समिति इस मुद्दे पर शिरोमणि कमेटी सदस्यों की ओर से ज़मीर की आवाज़ पर स्टैंट लेने की आशा कर रही है। उन्हें आशा है कि उनके समर्थकों की संख्या और बढ़ेगी। जहां तक हमारी जानकारी है, उसके अनुसार काबिज़ गुट इस बैठक में बजट के अतिक्ति सिंह साहिबान की नियुक्ति बारे कोई वोटिंग आदि नहीं करवाएगा। 
दूसरी ओर यह चर्चा भी ज़ोरों पर है कि  भाजपा अब 2027 के विधानसभा चुनाव में ‘पंजाब जीतने’ की ओर पूरा ध्यान दे रही है। इसलिए वह अकाली दल के एक गुट के साथ समझौता अवश्य करेगी। जिस प्रकार की स्थिति है, उससे प्रतीत होता है कि भाजपा द्वारा यह समझौता 5 सदस्यीय समिति द्वारा की भर्ती के बाद बनने वाले सम्भावित अकाली दल से ही किया जाएगा। 
हमारी जानकारी के अनुसार भाजपा चाहती है कि शिरोमणि कमेटी के आम चुनाव 2025 में ही करवा लिए जाएं, क्योंकि यह सब को पता है कि सिखों में मुख्य रूप में वह अकाली दल ही स्वीकृत होता है, जो शिरोमणि कमेटी चुनाव में जीत प्राप्त करे। ऐसा पहले मास्टर तारा सिंह, संत फतेह सिंह, सुरजीत सिंह बरनाला तथा प्रकाश सिंह बादल तथा जत्थेदार गरचरण सिंह टोहरा गटों की लड़ाई के समय भी हुआ है। सो, भाजपा चाहेगी कि वह उस गुट के साथ ही समझौता करे जो गुट शिरोमणि कमेटी चुनाव में सिखों का विश्वास जीत सके। 
हमारी जानकारी के अनुसार 5 सदस्यीय समिति इस समय सभी बादल विरोधी गुटों को एकजुट करके बादल दल के एक उम्मीदवार के मुकाबले एक उम्मीदवार उतारने तथा लड़ाई को ‘बादल परिवार बनाम समूचा पंथ’ बनाने की कोशिश में है, परन्तु इस मामले में सिमरनजीत सिंह मान के अकाली दल अमृतसर का समर्थन मिलना काफी कठिन प्रतीत होता है जबकि अकाली दल बादल भी सचेत है और इस बार वह भी अकेले मैदान में उतरने की बजाय दो या तीन पंथक कहे जाते गुटों के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरने बारे सोच रहा है ताकि बादल परिवार बनाम पंथ नहीं अपितु ‘पंथ बनाम ब़ागी’ का वृत्तांत सृजित किया जा सके। वैसे चाहे केन्द्र सरकार शिरोमणि कमेटी चुनाव करवाने के लिए तैयारी करती प्रतीत होती है, परन्तु यह देश के हालात पर भी निर्भर करेगा और इस बारे पंजाब की ‘आप’ सरकार क्या रवैया अपनाती है, यह भी देखने योग्य होगा।
कौन डूबेगा किसे पार उतरना है ज़़फर,
़फैसला वक्त के दरिया में उतर कर होगा।
-अहमद ज़़फर
‘आप’ तथा अकाली दल का सही फैसला
यह खुशी की बात है कि आपस में कड़े विरोधी आम आदमी पार्टी तथा अकाली दल बादल दोनों ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन द्वारा डीलिमिटेशन (लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाए जाने) के खिलाफ की बैठक में शामिल हुए। वास्तव में इस समय लोकसभा की 543 सीटें डीलिमिटेशन के बाद बढ़ कर 846 होने की सम्भावना है। अभी इस बारे सिर्फ चर्चा है। क्रियात्मक रूप में कोई दस्तावेज़ जारी नहीं किया गया, परन्तु जिस प्रकार की चर्चा है, उसके अनुसार उत्तर प्रदेश की सीटें 80 से बढ़ कर 143 और बिहार की 40 से बढ़ कर 79 हो जाएंगी। इसी प्रकार ही मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा अन्य उत्तरी तथा हिन्दी भाषी राज्यों की सीटें भी बढ़ जाएंगी जबकि दक्षिण भारत के राज्यों की 16 सीटें कम होने के आसार हैं। पंजाब की भी 5 सीटें बढ़ेंगी, परन्तु इसका हिस्सा जो अब लोकसभा में 2.4 प्रतिशत है, कम होकर 2.1 प्रतिशत हो जाएगा अर्थात् पंजाब का केन्द्रीय राजनीति में प्रभाव और कम होगा। हालत यह हो जाएगी कि जो पार्टी उत्तर भारत के 7-8 राज्यों में बड़ी जीत प्राप्त कर लेगी, वह पूरे भारत पर शासन कर सकेगी। ये राज्य ज़्यादातर हिन्दी भाषी तथा हिन्दू राष्ट्र के समर्थक ही माने जाते हैं, जो स्वाभाविक रूप में भाजपा के लिए लाभदायक होगा। यह स्थिति देश में संघवाद को कमज़ोर करेगी और क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी हानिकारक होगी। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह अच्छा कार्य करने वालों के लिए सज़ा तथा घटिया कारगुज़ारी का ईनाम सिद्ध होगी, क्योंकि देश ने ‘हम दो हमारे दो’ का नारा दिया था। जिन राज्यों में इसे अपनाया है, उनमें आबादी कम बढ़ी, परन्तु जिन्होंने परवाह नहीं की, उनकी आबादी बेहिसाब बढ़ी, जिसका ईनाम उन्हें अब सीटें बढ़ा कर दिया जा सकता है। हम चाहते हैं कि जैसे 1976 में 25 वर्ष के लिए सीटें बढ़ाने पर रोक लगाई गई थी, अब भी यह रोक लगाने की मांग मान ली जाने चाहिए या फिर सिर्फ आबादी ही नहीं, सीटें बढ़ाने के लिए कोई अन्य सर्व-स्वीकार्य आधार पर सोचा जाना चाहिए।

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