कहानी - पैसा और प्यार
चन्दर ने लौटकर अपने कमरे का दरवाजा खोलने से भी पहले पड़ौस के शर्मा अंकल से पूछ लिया - ‘अंकल मेरा कोई मनी आर्डर तो नहीं आया?’
‘तुम्हारी दो पत्रिकाएं तो आई थीं बेटा पर मनी आर्डर तो कोई नहीं आया’, शर्मा जी ने अपनी बाल्कनी की रस्सी पर तौलिया डालते हुए वहीं से जवाब दिया।
धत् तेरे की। चन्दर ने मन ही मन कहा। अब कल मीता को कनॉट प्लेस में बुलाया हुआ है चाय के लिए और पास खर्चने को धेला नहीं है।
कुछ दिन पहले नई किताब छपकर आई थी तो बधाई देते हुए मीता ने कुछ चंचल होकर कहा था, ‘इस बार ऐसे ही काम नहीं चलेगा। अच्छी सी चाय-पार्टी देनी पड़ेगी।’
चंदर ने उल्लासित होकर कहा, ‘हां-हां क्यों नहीं। वैसे भी तुम्हारी पार्टी तो बहुत समय से डयू है।’
अंत में यह तय हुआ कि चंदर झांसी से लौट आए और इस बीच मीता की परीक्षा हो जाए तो चंदर ने लौटने के अगले दिन कनॉट प्लेस में स्टैंडर्ड रेस्त्रां में मिलते हैं।
यह रेस्त्रां कुछ महंगा तो था, पर मीता को पसंद था। उसके परिवार में बहुत पहले से यहां उठने-बैठने का चलन था और उसे यहां आना अच्छा लगता था। चन्दर को यह कुछ महंगा तो लगता, पर मीता की खुशी के आगे महंगाई की ऐसी-तैसी।
चंदर को पूरा विश्वास था कि झांसी में उसकी किताबाें की जो पेमैंट डयू है, वह इस यात्रा के दौरान ज़रूर मिल जाएगी। फिर कुछ अखबारों में छपे लेखों के मनीआर्डर भी ओवर डयू थे। अत: चंदर को मिलने का दिन निश्चित करते हुए पूरा विश्वास था कि इस समय चाहे कंगाली हो, उस समय तक जेब भरी होगी।
पर न तो झांसी में पेमेंट मिली न मनीआर्डर आए। अब चंदर हैरान कि क्या करे। अब तो बस एक ही उम्मीद बची थी कि कल अखबार के कार्यालय में बहुत पहले ही पहुंच जाए और जैसे ही अरविंद वहां पहुंचें उनसे सबसे पहले मिल कर अपनी नकद पेमेंट शीघ्र प्राप्त कर ली जाए। यही एकमात्र ऐसा अखबार कार्यालय था जहां नकद पेमैंट मिल जाती थी। अरविंद जी लेख की लंबाई नाप कर वाऊचर बना देते थे और एकाऊंटेंट प्राय: वहीं तुरंत भुगतान कर देते थे।
अगले दिन चंदर ने भली-भांति शेव कर, नहा-धोकर वे कपड़े पहने जो उसने पहले से इस दिन के लिए प्रेस करवाकर रखे हुए थे। फिर बस पकड़कर ठीक दो बजे अखबार के दफ्तर पहुंच गया था। अरविंद जी इस समय के कुछ बाद ही दफ्तर आते थे।
जैसे ही अरविंद जी आते नज़र आए, चंदर ने लपक कर उन्हें नमस्ते की और उनके पीछे-पीछे ही उनके केबिन में आ गया। अरविंद जी ने बहुत तसल्ली से उसे सामने की कुर्सी पर बिठाया। कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। वह समझ गए थे कि चंदर पेमैंट के लिए ही आया है। वह अखबाराें का बंडल निकालकर उसके लेख निकालने लगे।
‘मार्च में चार लेख छपे हैं अरविंद जी, और दो लेख फरवरी के भी बकाया हैं।’
अरविंद जी ने सिर हिलाया और लेख छांट कर पेमेंट लगाने लगे। छ: लेखों के लिए कुल 270 रुपए का वाऊचर बना।
‘बहुत है’, चंदर मन ही मन बुदबुदाया। उसका अनुमान था कि आज की शाम के लिए 150 रुपए की ज़रूरत होगी। शेष 120 रुपए किसी विशेष स्थिति के लिए, उसने मन में सोचा तो एक मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आ गई।
अरविंद जी से वाऊचर लेकर उसने ‘थैंक्स’ कहा और एकाऊंटेंट के केबिन की ओर लपका। उसने यह तसल्ली पहले ही कर ली थी कि वह अपने केबिन में मौजूद थे।
पर अब जब वह केबिन तक पहुंचा तो उसने देखा कि केबिन खाली था। वह केबिन के पास की बेंच पर यह सोच कर बैठ गया कि एकाऊंटेट साहब शीघ्र ही आ जाएंगे, पर जब आधे घंटे तक वह नहीं आए तो उसने पास बैठे रमेश जी से पूछा - ‘क्या आप बता सकते हैं तिवारी जी कि एकाऊंटेट साहब कहां गए हैं।’
रमेश जी एक वृद्ध सफाई कर्मचारी थे व चन्दर उन्हें आते जाते नमस्ते अवश्य करता था। उन्होंने कहा, ‘अरे बेटा उनकी आज तबीयत ठीक नहीं थी, जल्दी ही घर चले गए।’
चन्दर की एकमात्र आय का यह स्रोत भी ढह गया। वाऊचर के पैसे तो बाद में भी मिल जाएंगे, पर उसे ज़रूरत तो आज थी। घर से चलने से पहले उसने इधर-उधर बिखरे सब पैसे टटोले थे तो कुल 45 रुपए निकले थे। इन पैसों से तो किसी ढाबे में चाय बिस्कुट भी नहीं आ सकते हैं।
बड़े बुझे मन से वह कनॉट प्लेस की ओर चला पर साथ में कुछ सोचता भी रहा।
स्टैंडर्ड के सामने खड़े-खड़े जब उसने दूर से आती मीता को देखा तो उसे लगा कि जैसे कनाट प्लेस की सीमेंट-कंक्रीट की सड़कों पर भी अचनक ढेर से फूल उग आए हों और जब मीता पास आकर मुस्कुराई तो उसे लगा कि वे सभी फूल एक साथ खिल गए हैं।
‘कैसी रही तुम्हारी झांसी की यात्रा?’ मीता ने नमस्ते कर पूछा।
‘सब कुछ ठीक ठाक, और तुम्हारी परीक्षा।’
‘सब कुछ गड़बड़।’ मीता ने शरारत से कहा और दोनों जोर से हंस पड़े।
मीता स्टैंडर्ड के दरवाजे की ओर बढ़ने लगी पर चंदर वहीं खड़ा रहा। उसने मीता को वापस बुलाते हुए कहा - ‘मीता आज मैं यहां आते हुए सैंट्रल पार्क से गुजर रहा था। बहुत खुला-खुला लगा। फव्वारे के पास तो बहुत ही अच्छा लगा। मौसम भी ढलती शाम का सुहावना हो रहा है। तभी मुझे लगा कि आज किसी बंद कमरे में बैठने की जगह वहां खुले में ही बैठें और घूमें तो कैसा रहे।’
मीता झट से मान गई। भोली-भाली मीता को इस तरह बहला कर चंदर के मन में कुछ अपराध-बोध तो उठा, पर उसने उसे दबा दिया। कितना हसीन समय है, इस समय कुछ बोझ बनाना उचित नहीं, उसने अपने आप से कहा।
वह शाम वास्तव में बहुत हसीन रही। उन्होंने बहुत अच्छी सी प्यार-भरी बातें कीं। भविष्य के सपने संजोए। आंखों में आंखें डाल कर ढेर सी बातें कीं।
जेब में सुरक्षित 45 रुपए का चंदर ने बहुत सदुपयोग किया। दस रुपए मोती के फूलों की लड़ियां खरीदने में खर्च किए। मीता ने उपहार सादर स्वीकार किया और वो लड़ियां अपने बालाें में उसी समय बांध लीं। चंदर की खुशी का ठिकाना न था। 10 रुपए की उन्होंने कुल्फी खाई। बाद में 10 रुपए के गोल-गप्पे भी खाए। फव्वारे की फुहार का आनन्द तो निशुल्क ही मिल गया।
अंत में जब जाने का वक्त हो गया तो चंदर मीता को उसके बस स्टॉप पर छोड़ने गया। वहां एक बहुत दुबली-पतली असहाय महिला को एक बच्चे के साथ देख कर मीता ने उसे कुछ देने के लिए अपना पर्स खोला। फिर उसमें से लिफाफा निकाल कर चंदर को देते हुए कहा- ‘ओ हो चंदर पापा ने कितना पक्का किया था कि मिलते ही तुम्हें यह मैं दे दूँ पर मैं तो भुल्लकड़ मास्टर हो गई हूँ - बिल्कुल भूल गई।’
‘इसमें क्या है मीता?’
‘तुमने किराए का मकान बदलने के कारण पुस्तक की बिक्री के लिए हमारे घर का पता दिया था न, तो हमारे यहां 10 पुस्तकों के आर्डर के 500 रुपए मनी आर्डर के आए थे। वही 500 रुपए पापा ने तुम्हारे लिए भेजे हैं। जिस पते पर पुस्तकें भेजनी हैं, वह मनीआर्डर की चिट पर लगा है।’ इतने में मीता की बस आ गई और वह लिफाफा चंदर के हाथ में देकर बाई कहते हुए बस पर चढ़ गई। (समाप्त)