भाजपा तथा संघ के बीच फिर बढ़ रही है दूरी !
कहीं वो दूर धुंधलका सा
जो छाया है वो कुछ तो है,
कभी बे-आग धुआं तुमने
उठते देखा है तो कहो।
एक समाचार जिसे व्यापक स्तर पर उछाला नहीं गया, परन्तु इस पर विचार करना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि यह समाचार देश की राजनीति में एक नया मोड़ लाने वाला सिद्ध हो सकता है। कुछ बड़े और विश्वसनीय समाचार पत्रों का समाचार है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) ने फैसला किया है कि अब वह अपनी रानजीतिक शाखा भाजपा को नियमित रूप में प्रचारक देने से गुरेज़ करेगा और साथ ही अब से आर.एस.एस. भाजपा के नित्यप्रति मामलों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप भी नहीं करेगा। हालांकि भाजपा तथा आर.एस.एस. से संबंधित सूत्र इस नई व्यवस्था को संघ तथा भाजपा के रिश्तों में किसी तरह का बिगाड़ नहीं मानते, परन्तु यह ज़रूर मानते हैं कि यह भाजपा की संघ के प्रत्यक्ष नियंत्रण से दूर होने की चाहत का परिणाम है, परन्तु कभी भी आग के बिना धुआं उठता नहीं दिखाई देता। बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 11 वर्षों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने संघ की चाहत से भी तेज़ी से संघ के लक्ष्य प्राप्त किए हैं, परन्तु यह भी सच है कि मोदी के शासन में भाजपा संघ के नियंत्रण से बाहर होने के प्रयास भी करती रही है।
सब को पता है कि भाजपा में अध्यक्ष के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद संगठन महासचिव (महामंत्री) का होता है। कई बार तो संगठनात्मक मामलों में इस पद पर बैठा व्यक्ति अध्यक्ष पर भी हावी हो जाता है। भाजपा में यह पद स्थायी रूप में संघ के प्रतिनिधि के पास ही रहता है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी भी इसी काडर में से ही आए हैं। इस समय भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महासचिव बी.एन. संतोष भी संघ प्रचारक ही हैं और पंजाब भाजपा के संगठन महासचिव मंथरी श्रीवासुल भी संघ के ही प्रतिनिधि हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि क्या नये संगठन महासचिव आर.एस.एस. के प्रचारक ही नियुक्त होंगे या भाजपा अपने काडर में से ही ये नियुक्तियां करेगी। वैसे तो इस तरह प्रतीत होता है कि संघ का यह फैसला अपनी नाराज़गी दिखाने का एक तरीका है।
क्यों बिगड़ रहे हैं आपसी रिश्ते?
फैला हुआ है वक्त की दहलीज़ पर धुआं,
उस आग का जो आज भी रौशन नहीं हुई।
(हुसैन मज़रूह)
वास्तव में भाजपा तथा आर.एस.एस. में रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक वर्ष बाद ही शुरू हो गई थी। उल्लेखनीय है कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय संघ तथा सरकार के बीच पुल का काम संघ के दूसरे या तीसरे नम्बर के अधिकारी सह-कार्यवाह या सह-संघ कार्यवाह करते थे जिनकी प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्रियों के साथ सामान्य मुलाकातें होती रहती थीं। ये अधिकारी संघ के निर्देशों के बारे में सरकार को तथा सरकार की स्थिति बारे संघ प्रमुख को सूचित करते थे, परन्तु प्रधानमंत्री मोदी ने यह परम्परा नहीं अपनाई। मोदी काल के पहले 10 वर्षों में सिर्फ सितम्बर 2015 में एक बैठक मध्य प्रदेश भवन, दिल्ली में हुई बताई जाती है। उसके बाद संघ तथा सरकार में उच्च स्तर की कोई सहयोग बैठक कहीं भी 10 वर्षों में हुई नहीं बताई जाती। प्रधानमंत्री मोदी पहली दो सरकारों के कार्यकाल में तो संघ के मुख्य कार्यालय भी नहीं गए, अपितु चर्चा तो यह भी है कि कई बार कई कार्यक्रमों में संघ प्रमुख डा. मोहन भागवत तथा प्रधानमंत्री मोदी के मंच साझा करने के बावजूद दोनों में कोई अलग मुलाकात नहीं हो सकी। हद तो उस समय हो गई जब 2024 के आम चुनावों के दौरान भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने बाकायदा घोषणा कर दी कि भाजपा को संघ की ज़रूरत नहीं। अब भाजपा स्वयं चुनाव जीतने में समर्थ है। परिणाम सबके सामने है कि भाजपा की सीटें उम्मीद से कहीं कम हो गईं। बाद में संघ प्रमुख ने प्रधानमंत्री पर तीव्र व्यंग्य भी किये और यहां तक कह दिया कि कुछ लोग स्वयं को महा-मानव तथा देव-तुल्य समझते हैं। उन्होंने मणिपुर के हालात पर भी तीव्र टिप्पणियां कीं। इसके बाद ही प्रधानमंत्री अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में संघ के मुख्य कार्यालय पहुंचे। बाद में भी उनकी डा. मोहन भागवत के साथ एक और निजी मुलाकात अवश्य हुई। इस बीच संघ के एक अन्य बड़े नेता इन्द्रेश कुमार ने कहा कि राम की भक्ति करने वाली पार्टी के अहंकार के कारण ही सीटें कम हुई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भगवान राम भेदभाव नहीं करते।
नाराज़गी के ताज़ा कारण?
राजनीतिक विश्लेषक यह समझते हैं कि यदि यह फैसला वास्तव में ही आर.एस.एस. की भाजपा से नाराज़गी का प्रकटावा है तो इसके कुछ खास कारण हो सकते हैं, चाहे मोदी सरकार ने संघ की आशा से भी तेज़ी से संघ के लक्ष्य प्राप्त किए हैं। वह चाहे राम मंदिर का निर्माण हो, चाहे धारा-370 को खत्म करने या एक राष्ट्र-एक कानून की ओर बढ़ने वाले अनेक कानून बनाना, जो भारत के हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर पहले कदम माने जाते हैं, परन्तु फिर भी संघ की नाराज़गी के कारणों में पहला तो भाजपा के नये अध्यक्ष पर सहमति न होना माना जा रहा है। दूसरा कारण भारत सरकार का जाति गनगणना की घोषणा हो सकता है, क्योंकि जाति जनगणना हिन्दू एकता के लिए एक खतरे के रूप में देखी जाती है। तीसरा कारण भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ झड़पें अचानक रोक देना माना जा रहा है, क्योंकि इससे शायद भारत ने एक बड़ा अवसर गंवा लिया है, परन्तु ये सभी अनुमान हैं। वास्तविकता क्या है, कोई भीतरी जानकारी रखने वाला ही बता सकता है, परन्तु यह अवश्य है कि यदि आर.एस.एस. ने भाजपा की प्रत्यक्ष रूप में मदद से हाथ खींच लिए तो यह भाजपा के अवसान की ओर जाने की बड़ी शुरुआत होगी।
खानाजंगी की ओर बढ़ती सिख कौम
़खुदा का वास्ता तुम को यह ़खाना-जंगी मत छेड़ो,
ज़रा सोचो तुम्हारी कौम का फिर हाल क्या होगा।
जो कुछ विगत दो दिनों में श्री अकाल त़ख्त साहिब तथा उसके जवाब में त़ख्त श्री पटना साहिब में घटित हुआ है, वह बहुत खतरानाक है। यह पहली बार है कि किसी त़ख्त ने जत्थेदार अकाल त़ख्त साहिब को ही तन्खाहिया करार दे दिया हो। इससे पहले एक बार जत्थेदार ज्ञानी जोगिन्दर सिंह तथा ज्ञानी गुरदित्त सिंह को त़ख्त पटना साहिब के जत्थेदार ज्ञानी इकबाल सिंह ने समन किया था, परन्तु बाद में यह मामला सुलझा लिया गया था। इस बार मामला अधिक गम्भीर है। यह सिख कौम के लिए खानाजंगी की नींव रखने की भांति है और यह बात मुसलमानों की तरह सिखी को फिरकों में बांटेगी। वैसे सिखों में फिरके तो पहले भी बहुत हैं, परन्तु यह स्थिति कुछ ज़्यादा ही चिन्ताजनक है। हालांकि हमारी समझ के अनुसार यह मामला धार्मिक कम और रजनीतिक अधिक है। इसके साथ-साथ यह निज-परस्ती की लड़ाई भी है। यह लड़ाई अप्रत्यक्ष रूप में भाजपा तथा अकाली दल की राजनीतिक लड़ाई अधिक है, क्योंकि इस समय श्री अकाल त़ख्त साहिब शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के प्रधान के अधीन है और पंजाब से बाहर दोनों त़ख्त साहिब अप्रत्यक्ष रूप में भाजपा के नियंत्रण में हैं। दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी तो प्रत्यक्ष रूप में ही भाजपा के नियंत्रण में है और इस कमेटी का पंजाब से बाहरी त़ख्तों पर प्रभाव बहुत अधिक है। इस लड़ाई की जड़ में त़ख्त पटना साहिब के जत्थेदार की कुर्सी है जहां इस समय भाई बलदेव सिंह काबिज़ हैं और दूसरी ओर श्री अकाल त़ख्त साहिब के कार्यकारी जत्थेदार ने पहले सेवा-निवृत्त जत्थेदार भाई रणजीत सिंह गौहर को सज़ामुक्त करके पुन: नियुक्त करने के आदेश जारी कर दिये हैं। इसके अतिरिक्त यह लड़ाई संत रणजीत सिंह ढडरियां वाले को माफी देने तथा उनके मुख्य विरोधी दमदमी टकसाल के प्रमुख बाबा हरनाम सिंह धुम्मा की आपसी लड़ाई भी है। चाहे जत्थेदार गौहर भी भाजपा के काफी निकट रहे हैं, परन्तु आजकल बाबा धुम्मा भाजपा के ज़्यादा करीब हैं और ज्ञानी गौहर तो स्पष्ट रूप में सुखबीर सिंह बादल के पक्ष में भुगत रहे हैं। इससे भी बड़ी लड़ाई यह है कि आंतरिक रूप में यह लड़ाई सिख ‘रहित मर्यादा’ की लड़ाई भी बन गई है। विगत लम्बे समय से श्री अकाल त़ख्त साहिब तथा श्री दरबार साहिब में अधिकतर नियुक्तियां दमदमी टकसाल के समर्थकों की ही होती हैं, परन्तु जत्थेदार कुलदीप सिंह गड़गज्ज सिख मिशनरी कालेज की सोच से संबंधित हैं। इस प्रकार यह लड़ाई दमदमी टकसाल तथा डेरों की साझ तथा सिख मिशनरी कालेज की सोच की लड़ाई भी बन गई है। हमारी जानकारी के अनुसार संत समाज बाबा धुम्मा के साथ एकजुट हो रहा है।
़खैर हम इस बात का निर्णय नहीं कर रहे कि किसका कितना दोष है, परन्तु इस लड़ाई के सम्भावित निष्कर्षों से चिन्तित अवश्य हैं। काश, कुछ साझे प्रभावशाली व्यक्ति मध्यस्थता करने का प्रयास करें। अलामा इकबाल का एक शे’अर मामूली अंतर से पेश किए बिना नहीं रह सकते :
तू ़िफक्र-ए-कौम कर नादां मुसीबत आने वाली है,
तेरी बर्बादियों के मशविरे हैं आसमानों में।
श्री दरबार साहिब पर हमले का सच—जांच ज़रूरी
हैरानी की बात है कि भारत-पाकिस्तान झड़पें खत्म होने के सप्ताह भर के बाद अचानक ही भारतीय सेना ने इऩ्कशाफ किया है कि पाकिस्तान ने श्री दरबार साहिब अमृतसर को निशाना बना कर ड्रोनों तथा मिसाइलों से हमला किया था, जो भारतीय सेना ने नाकाम कर दिया। पहले तो यह भी कहा गया कि श्री दरबार साहिब के मुख्य ग्रंथी की स्वीकृति से श्री हरिमंदिर साहिब परिसर में एयर डिफैंस सिस्टम तैनात किए गए थे, परन्तु मुख्य ग्रंथी ज्ञानी रघबीर सिंह तथा शिरोमणि कमेटी प्रधान एडवोकेट हरजिन्दर सिंह धामी ने इसे पूर्णरूपेण नकार दिया। हम समझते हैं कि मामले का सच संगत के सामने आना ज़रूरी है। इससे देश-विदेश में तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं जो सिख कौम को भी असमंजस में डाल रही हैं, और देश की सरकार तथा सेना संबंधी भी सवाल खड़े कर रही हैं। शिरोमणि कमेटी को चाहिए कि स्थिति की जांच के लिए वह स्वयं प्रमुख पूर्व सिख जजों, जरनैलों तथा वकीलों पर आधारित एक जांच टीम भी बनाए।
-मो. 92168-60000