टुकड़ों में बंटा देश

देश का संविधान बनने के साथ ही एक निश्चित समय के लिए अनुसूचित जातियों और जन-जातियों के लिए आरक्षण की नीति अपनाई गई थी, ताकि लम्बी अवधि तक जातिवाद के कारण हाशिये पर धकेले गए लोगों को आगे बढ़ाया जा सके। आरक्षण की यह नीति अब तक भी चलती आ रही है। विगत लम्बी अवधि से कुछ अन्य समुदाय भी ऐसे आरक्षण की सूची में शामिल होने के लिए आन्दोलन करते रहे हैं और इसके साथ ही यह मांग भी उठती रही है कि अन्य पिछड़ी जातियों को भी इसमें शामिल किया जाए, इसके लिए वर्ष 1979 में मंडल आयोग की स्थापना की गई थी। उस रिपोर्ट के जारी होने के कुछ वर्षों बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने सरकारी नौकरियों में अन्य अनुसूचित जातियों (ओ.बी.सी.) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की घोषणा की थी, परन्तु देश भर में इस का कड़ा विरोध होने के बाद यह घोषणा सफल नहीं हो सकी।
जहां तक जाति जनगणना का संबंध है, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय जाति आधारित जनगणना करवाए जाने का विरोध हुआ था और इस कारण यह मांग सफल नहीं होने दी गई। श्रीमती इंदिरा गांधी ने लम्बी अवधि तक देश का शासन चलाया, वह भी ऐसी जनगणना के विरुद्ध थीं। डा. मनमोहन सिंह की सरकार ने 2010 में आर्थिक कारणों को आधार बना कर सर्वेक्षण ज़रूर करवाया था परन्तु पिछले काफी समय से ज्यादातर प्रादेशिक और राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने-अपने कारणों के दृष्टिगत जाति आधारित जनगणना की लगातार मांग की जा रही है। कुछ राज्यों ने इस संबंध में सर्वेक्षण भी करवाए थे परन्तु अब अपने-अपने लाभ के कारण ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता जाति आधारित जनगणना के पक्ष में आ गए हैं। इस मांग के पक्ष में कांग्रेस पार्टी और नेहरू-इंदिरा गांधी परिवार   के उत्तराधिकारी राहुल गांधी भी आवाज़ उठा रहे हैं।
परन्तु भाजपा लगातार जाति आधारित जनगणना का विरोध करती रही है, लेकिन अब वह किसी भी तरह विपक्षी पार्टियों को इस मांग का राजनीतिक लाभ लेने से रोकना चाहती है। इस कारण बिहार और आगामी वर्ष कुछ अन्य राज्यों के होने वाले चुनावों के दृष्टिगत भाजपा और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने भी इस संबंध में नया मोड़ लिया है और जाति आधारित जनगणना करवाने के लिए सहमत हो गई है। पहले ही जाति-बिरादरियों में बंटे इस देश में ऐसी जनगणना से भारी बिखराव और फूट बढ़ने की आशंका है। यह पिटारा खुलने से नई से नई मांगों और नए से नए आन्दोलन छिड़ने की सम्भावना बनती दिखाई देती है। संविधान के अनुसार देश के सभी नागरिकों को धर्म और बिरादरियों से ऊपर उठ कर एक जैसे अधिकार देने की भावना मद्धम होती जा रही है। वर्ष 2011 में हुई जनगणना में भी जातियों और उप-जातियों का सर्वेक्षण करने का यत्न किया गया था, परन्तु उसके आंकड़ों के सामने आने से शोर-शराबा पैदा होने की सम्भावनाएं बन गई थीं।
एक अनुमान के अनुसार देश भर में लगभग 38 लाख जातियां और उप-जातियां हैं। इनके संबंध में कोई आरक्षण कितना सार्थक हो सकेगा? नि:संदेह देश के लोग और भी अनेक छोटे-बड़े टुकड़ों में बंट जाएंगे। ब्रिटिश शासन के दौरान 1931 में जाति आधारित जनगणना हुई थी। उस समय सिर्फ हिन्दू जातियों का आंकड़ा ही दर्ज किया गया था। वर्ष 2011 में दो चरणों में जनसंख्या के आंकड़े जुटाए गए थे। उस समय देश की जनसंख्या लगभग 121 करोड़ दर्ज की गई थी। प्रत्येक 10 वर्ष बाद जनगणना करवाई जाती है परन्तु कोरोना काल के आने के कारण इसे रोक दिया गया था, परन्तु अब यह जनगणना निर्धारित समय के 5 वर्ष बाद करवाई जा रही है, जिस पर काम आगामी 26 अक्तूबर से शुरू किया जाएगा। इस बार 16 वर्ष बाद हो रही जनगणना में जाति आधारित जानकारी भी शामिल की जाएगी। चाहे इस बार यह जनगणना आधुनिक डिज़िटल साधनों द्वारा करवाई जाएगी परन्तु उसे लगभग 3 वर्ष का समय लगेगा और आखिरी आंकड़े वर्ष 2030 के लगभग प्रकाशित किए जाएंगे। इसका मतलब यह है कि आगामी लोकसभा चुनाव जो वर्ष 2029 में होंगे, उसके बाद ही ये आंकड़े सामने आएंगे। पहाड़ी राज्यों को छोड़ कर शेष प्रदेशों में घर-घर जाकर गिनती का काम 9 फरवरी, 2028 से शुरू किया जाएगा।
कई विपक्षी पार्टियों द्वारा की जा रही इस मांग को मान कर भाजपा ने एक बार तो विपक्षी पार्टियों से यह मुद्दा छीन लिया है, परन्तु इससे जिस तरह का बिखराव होगा, उसे किसी भी सरकार के लिए सम्भाल पाना शायद बेहद कठिन होगा। सरकार के समक्ष यह भी बड़ी चुनौती होगी कि लाखों जातियों में बंटे लोगों संबंधी स्टीक आंकड़े कैसे इकट्ठे किए जाएं और इन सभी के लिए शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में आरक्षण कैसे लागू किया जाए? सरकार को यह भी देखना होगा कि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की बयानबाज़ी से जातियों के आधार पर देश के लोगों में  कड़वाहट न बढ़े।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

#टुकड़ों में बंटा देश