धर्म का एक दशक : मोदी युग में सांस्कृतिक पुनर्जागरण
जनवरी 2024 को पावन नगरी अयोध्या में सूर्योदय हुआ, तो सदियों से लुप्त हो चुकी प्रार्थना आखिरकार गुंजायमान हो उठी। श्री राम की अपने मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा महज एक धार्मिक उपलब्धि नहीं थी। यह सभ्यता के उद्धार का क्षण था। सदियों के आक्रमण, औपनिवेशिक विकृति और राजनीतिक देरी के बाद मंत्रों से गूंजता हुआ और इतिहास के स्पंदन सहित बलुआ पत्थर में उकेरा गया यह मंदिर शान से खड़ा था। यह सिर्फ वास्तुकला के बारे में नहीं था, यह एक घायल आत्मा के उपचार के बारे में था। श्री राम की अपनी जन्मभूमि पर वापसी ने उस राष्ट्र की आस्था को फिर से जागृत कर दिया जिसने लम्बे समय तक अपने दिल में निर्वासन की खामोशी को समेटे रखा था।
कुछ महीने पहले भारत की प्राचीन आस्था का एक और प्रतीक चुपचाप अपने सही स्थान पर लौट आया। नई संसद के उद्घाटन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सेंगोल को स्थापित किया। यह एक पवित्र राजदंड है, जिसे 1947 में तमिल अधीनमों ने सत्ता के धार्मिक हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए जवाहर लाल नेहरू को भेंट किया था। दशकों से इसे भुला दिया गया था। इसकी स्थापना केवल स्मरण का कार्य नहीं था, यह एक शक्तिशाली घोषणा थी कि भारत अब खुद को उधार की आंखों से नहीं देखेगा। सेंगोल ने साम्राज्य के अवशेषों का नहीं, बल्कि धार्मिकता पर आधारित शासन का प्रतिनिधित्व किया। यह भारत की अपनी राज्य कला और आध्यात्मिक परम्पराओं का एक महत्वपूर्ण आलिंगन था, जिसे उपनिवेशवाद के बाद के क्रम में लम्बे समय तक नज़रअंदाज़ किया गया था। इतना ही नहीं, इन क्षणों ने एक गहरे सांस्कृतिक पुनर्जागरण का संकेत दिया। यह एक सभ्यतागत गतिविधि के तौर पर ग्यारह परिवर्तनकारी वर्षों में सामने आएगी।
2014 में शुरू से ही यह स्पष्ट था कि मोदी सरकार के तहत संस्कृति अब सजावटी नहीं रहेगी, बल्कि यह मूलभूत होगी। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पहली बार 2015 में मनाया गया था। अब दुनिया भर में लाखों लोगों को एक प्राचीन भारतीय परम्परा का जश्न मनाते देखा जा रहा है, जो शरीर, मन और आत्मा को आपस में जोड़ता है। योग केवल एक स्वास्थ्य संबंधी दिनचर्या भर नहीं है, बल्कि यह पिछले कुछ वर्षों में भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक निर्यात भी बन गया है। आयुष मंत्रालय के माध्यम से पारम्परिक ज्ञान प्रणालियों के पुनरुद्धार को संस्थागत बल दिया गया। इसके परिणामस्वरूप आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी को राष्ट्रीय और वैश्विक मंचों पर पहुंचने में मदद मिली। समानांतर रूप से सरकार ने संस्कृत, तमिल, पाली और प्राकृत जैसी शास्त्रीय भाषाओं को संरक्षित करने, पांडुलिपियों के डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने और उस्ताद एवं हमारी धरोहर जैसी योजनाओं के तहत लुप्तप्राय लोक कलाओं और शिल्पों का समर्थन करने के लिए मिशन शुरू किए।
भारत की ऐतिहासिकों इमारतों में भी नई जान आ गई। 2018 में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का अनावरण केवल व्यापकता के बारे में नहीं था, बल्कि एक गाथा को पुन: प्रतिष्ठित करने जैसा था। सरदार वल्लभभाई पटेल लम्बे समय से दृष्टि-ओझल हो रहे थे। उनको राष्ट्रीय स्मृति में सबसे आगे रखा गया। राजपथ का नाम बदल कर कर्त्तव्य पथ करना एक निर्णायक बदलाव का प्रतीक था। यह औपनिवेशिक प्रतीकवाद से देशी जवाबदेही की ओर बदलाव का भी प्रतीक था।
तमिलनाडु के महाबलीपुरम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच 2019 की अनौपचारिक शिखर वार्ता की तुलना में शायद कोई भी कूटनीतिक वार्ता इस बदलाव को बेहतर तरीके से नहीं दर्शाती है। दिल्ली के गलियारों से दूर प्राचीन बंदरगाह नगर, जो कभी पल्लव राजवंश और भारत-चीनी समुद्री संबंधों का एक सम्पन्न केंद्र था, दो सभ्यताओं के बीच वार्ता की पृष्ठभूमि बन गया।यह सांस्कृतिक लोकाचार अन्य तरीकों से भी भारत की वैश्विक कूटनीति में प्रवाहित हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा विश्व के नेताओं को राजकीय उपहार के तौर पर पट्टचित्र पेंटिंग से लेकर बच्चों के लिए लाख के खिलौने भेंट किए गए जो अपने साथ भारत के कारीगरों और कालातीत परम्पराओं के संदेश लेकर गए।
इन वर्षों के दौरान 600 से अधिक चोरी की गई कलाकृतियां विदेशी संग्रहालयों और संग्रहकर्ताओं से वापस लाई गईं जिनमें मूर्तियां, शिलालेख और पांडुलिपियां शामिल हैं। इनमें से प्रत्येक की वापसी न केवल कला की बल्कि सम्मान की बहाली थी। इसी तरह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के साहिबज़ादों की शहादत को याद करने के लिए वीर बाल दिवस की स्थापना की गई जबकि जनजातीय गौरव दिवस ने आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को राष्ट्रीय केन्द्र में लाया।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद प्रगति की बाध्यकारी शक्ति के रूप में उभरा है, जिसे कभी प्रतिगामी के रूप में खारिज कर दिया गया था। भाजपा के वैचारिक कम्पास में, संस्कृति केवल एक सहायक भर नहीं है, बल्कि केन्द्र है।
इन ग्यारह सालों में मोदी युग ने केवल सांस्कृतिक नीति को ही ध्यान में नहीं रखा है, बल्कि इसने सांस्कृतिक चेतना को भी जागृत किया है। जो पुनर्स्थापना के तौर पर शुरू हुआ था, वह पुनरुत्थान बन गया। जिन्हें कभी अतीत की स्मृतियों के तौर पर उपेक्षित किया जाता था, वे सभी अब राष्ट्रीय पहचान के केंद्र बन गए हैं। राम मंदिर और सेंगोल हमेशा सांकेतिक प्रतीक बने रहेंगे लेकिन विरासत की गहराई सामूहिक अहसास में निहित है। भारत का भविष्य तब सबसे उज्ज्वल होगा जब वह याद रखेगा कि वह कहां से आया है। हम सिर्फ एक लम्बे इतिहास वाला देश नहीं हैं, बल्कि हम एक लम्बी स्मृति वाली जीवित सभ्यता हैं। इस स्मृति में धर्म की निगरानी में भारत ने फिर से अपनी आवाज़ पाई है।
- केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री, भारत सरकार