सिख समुदाय को सोच-समझ कर चलने की ज़रूरत 

हां हमें इस गर्दिश-ए-आयाम से कुछ डर नहीं,
पर हमें इस इश्क के अंजाम से डर लगता है।
बिल्कुल प्रकृति के काल-चक्र (गर्दिश-ए-आयाम) से कोई गुरु नानक नाम-लेवा नहीं डरता और न ही उसे डरना चाहिए, परन्तु यह सच है कि हमें वक्त एवं हालात पर विचार करके ही कदम उठाने चाहिएं, नहीं तो जो सोच लेकर हम चलते हैं, उसका अंजाम (परिणाम) सचमुच ही बहुत भयावह हो सकता है। गुरु साहिब ने हमें सिखाया है कि 
वख्तु वीचारे सु बंदा होए।।
(सिरी राग मा 1, अंग : 83)
तथा साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब में फरीद जी की बाणी है :
बेड़ा बंधि न सकिओ बंधन की वेला।
भरि सरवरु जब उछलै तब तरणु दुहेला।।
(सूही ललित, अंग : 794)
अर्थात जो समय एवं हालात पर विचार करता है, वही वास्तविक मनुष्य है, इन्सान है। फरीद जी के अनुसार यदि समय पर नाव न बनाई जा सके तो पानी भर जाने पर उछलते सरवर को पर करना कठिन हो जाता है। नि:संदेह कुछ लोग धार्मिक दृष्टिकोण से इन अर्थों से सहमत नहीं होंगे, परन्तु गुरबाणी सिर्फ शिक्षा ही नहीं देती अपितु यह सम्पूर्ण जीवन-प्रक्रिया भी तो सिखाती है। अत: इन पंक्तियों के दुनियावी तथा शाब्दिक अर्थ यही लिए जा सकते हैं। ़खैर, आज के इस लेख में गुरबाणी की इन पंक्तियों का ज़िक्र इसलिए करना पड़ा क्योंकि इस समय भारत तथा विश्व के हालात में सिख कौम का प्रसंगहीन होते जाना चिन्ता की बात है। हम वक्त पर भी विचार नहीं कर रहे और आने वाले तूफान या बाढ़ के लिए किसी विचार-विमर्श की नाव भी नहीं तैयार कर रहे। 
इस प्रकार प्रतीत होता है जैसे सिख कौम सिर्फ नेतृत्वहीन ही नहीं हुई अपितु किसी बौधिक कंगाली का शिकार हो गई हो। हालांकि गुरबाणी हमें हर समय, हर मुश्किल में दिशा देने के समर्थ है, परन्तु हम अपने अहं, लालच में सिखी सिद्धांतों को या तो तिलांजलि दे रहे हैं या फिर हमें विश्व घटनाक्रम की समझ ही नहीं रही है। 
कनाडा में सिखों की शान आर्थिक तथा राजनीतिक रूप में भारत से भी अधिक है। वे अपनी संख्या से कहीं बढ़ कर सांसद बनते हैं, परन्तु कनाडा में भी समय बदल चुका है। चाहे जस्टिन ट्रूडो तथा मार्क कार्नी एक ही पार्टी के हैं, परन्तु उनकी सोच अलग है। स्वयं ही देखें ट्रूडो मंत्रिमंडल में कितने सिख मंत्री थे और उनके पास कौन-से मंत्रालय थे और अब चाहे तीन सिख मंत्री हैं, परन्तु उन्हें मिले मंत्रालयों का महत्व क्या है? याद रखें, सिखों की अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन या विश्व के अन्य देशों में चढ़त उनकी संख्या के कारण नहीं अपितु उनकी सख्त मेहनत, सरबत का भला की सोच तथा कार्यों व उनकी ओर से शांति से उन देशों के विकास में डाले गये योगदान के कारण होती है, तथा सबसे बड़ी बात कि बाहरी देशों में आम तौर पर हिन्दू समुदाय तथा विशेष रूप में पंजाबी समुदाय, जिसमें पाकिस्तानी पंजाबी भी शामिल होते हैं, का उन्हें मिला समर्थन के साथ-साथ सरबत दा भला के लिए की जा रही समाज सेवा के कारण स्थानीय गैर-सिखों व अन्य धर्मों के लोगों भी उनकी ओर आकर्षित होते हैं, अन्यथा याद रखें, कनाडा में सिख आबादी 2021 की जनगणना के अनुसार 2.1 प्रतिशत है और हिन्दू आबादी 2.3 प्रतिशत जबकि मुस्लिम आबादी 4.9 प्रतिशत है। इसी प्रकार अमरीका में मुसलमान 44 लाख, हिन्दू लगभग 30 लाख तथा सिख आबादी लगभग 9 या 10 लाख है। ब्रिटेन में भी मुस्लिम आबादी 41 लाख, हिन्दू साढ़े 11 लाख तथा सिख आबादी लगभग साढ़े 6 लाख है। अत: स्पष्ट है कि यदि डाइयासपोरा इन देशों में अपने आप को हिन्दुओं विशेषकर पंजाबी हिन्दुओं से अलग कर लेगा तो उसकी शान को ठेस पहुंच सकती है। 
हालात तेज़ी से बदल रहे हैं। चाहे विश्व भर में कई देशों में युद्ध चल रहे हैं, परन्तु स्पष्ट है कि जिन देशों या कौमों की आर्थिकता मज़बूत है, वे ही सफल हैं, उनके आगे दुनिया झुकती है। अब जी-7 सम्मेलन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा कैनेडियन प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की द्विपक्षीय वार्ता में भारत-कनाडा रिश्ते तेज़ी से सुधारने संबंधी हुए फैसले का प्रत्येक भारतीय जिनमें पंजाबियों तथा सिखों की बहुसंख्या भी शामिल है, द्वारा स्वागत किया जा रहा है और यह करना बनता भी है। 
नि:संदेह शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना या रोष व्यक्त करना लोकतांत्रिक अधिकार है, परन्तु हर बार प्रदर्शन करके तथा उनमें अपने ही देश के प्रधानमंत्री पर अपमानजनक तरीके इस्तेमाल करना किसी मज़हब कौम को शोभा नहीं देता। अच्छी बात होगी कि विदेशों में रहते सिख तथा पंजाबी एक सामूहिक नेतृत्व उभारें। हम बिल्कुल साफ तथा स्पष्ट कहने से नहीं झिझकते कि भारत में सिखों के लिए अवसर कम होते जा रहे हैं। सिख नेताओं में शायद एक भय का माहौल भी प्रतीत होता है, क्योंकि कई बार वे अन्याय के खिलाफ बोलने से हिचकिचाते भी दिखाई देते हैं। यह भी ठीक है कि सिखों के साथ कई अन्याय हुए हैं और हो भी रहे हैं। कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है कि पंजाब से अन्याय भी पंजाब के सिखों की बहुसंख्या को कमज़ोर करने के लिए ही किया जाता है, परन्तु कभी-कभी सरकार सिखों को खुश करने वाले काम भी करती है। हम समझते हैं कि इसमें सिर्फ सरकार का ही दोष नहीं, अपितु हमारी कौम का भी दोष है। एक तो इस समय हम प्राय: किसी समुचित नेतृत्व से वंचित हैं। हम धार्मिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में ही पीछे नहीं गये, अपितु शिक्षा, संस्कृति, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में भी पिछड़ते जा रहे हैं। हमारी चढ़ती कला की अरदास सिर्फ शब्दों में है, असल में हम चढ़दी कला में रह कर विचरण नहीं कर रहे। अब हम आई.ए.एस., पी.सी.एस. तथा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बहुत पीछे हैं। ताज़ा उदाहरण डाक्टरी के लिए हुई नीट (यू.जी.) परीक्षा का है। पहले 100 विद्यार्थियों में 9 पंजाबी हैं। खुशी की बात है कि 2 प्रतिशत पंजाबियों ने 9 प्रतिशत स्थान हासिल किया, परन्तु देखो, इनमें एक भी सिख नहीं है।
पहली बात तो यह कि हम विदेशी धरती पर बैठ कर खालिस्तान की बात करते हैं। पहले पूरी कौम या सिख बहुसंख्या को तो पूछ लें कि वह क्या चाहती है? क्या खालिस्तान बहुसंख्यक सिखों की मांग है या कि यह सरकारों को सिखों के खिलाफ अत्याचार करने देने का एक बहाना बन कर रह गई है? क्या खालिस्तान के लिए दी जा रही कुर्बानियां का कोई मूल्य पड़ेगा? क्या आज के विश्व के हालात में यह सम्भव भी है? क्या कोई अलग देश यदि बन भी जाए तो वह सिखों को आपसी विघटन की ओर तो नहीं बढ़ाएगा? एक और विचार करने वाली बात यह भी है कि क्या महाराजा रणजीत सिंह तथा अंग्रेज़ों के अधीन अन्य सिख सल्तनतों ने सिखी का कुछ संवारा था? क्या विश्व में धर्म आधारित शासन चाहे वह मुसलमानों के हैं, या ईसाइयों के या आज के युग में हिन्दू का एकमात्र राष्ट्र रहा नेपाल या फिर यहूदी धर्म पर आधारित इज़रायल, अपने धर्म तथा कौम का कुछ संवार रहे हैं या उन्हें नई मुश्किलों में धकेल रहे हैं? क्या खालिस्तान का संकल्प गुरबाणी के विश्व-व्यापी धर्म तथा सरबत दा भला के संकल्प से मेल खाता है? 
कहीं यह तो नहीं कि हम अपनी कौम को निजी लाभ के लिए जलती के मुंह की ओर धकेल रहे हैं? नि:संदेह डरना सिखों का कर्म नहीं, परन्तु इतिहास से सबक लेना तथा समय पर विचार करना तो सिखों का कर्म है। इसलिए एक बिन मांगी सलाह देना ज़रूरी समझता हूं कि बजाय खाली-पीली मार्केबाज़ी तथा नारेबाज़ी के अपने-अपने देशों में अपने-अपने एक सामूहिक नेतृत्व का निर्माण करना, यह कठिन कार्य नहीं है। संबंधित देशों के गुरुद्वारों की प्रबंधक कमेटियों तथा उन्हीं देशों में रहते प्रभावशाली सिख एकजुट होकर ऐसा कर सकते हैं। ऐसा करने के बाद यह नेतृत्व जब भी कोई भारतीय प्रधानमंत्री या बड़ा मंत्री उनके देश में आए तो उसका अपमान करने तथा उसके खिलाफ प्रदर्शन करने की बजाय उससे उसके आने से पहले ही समय लेकर सिर्फ 5 सदस्यीय समिति उसे मिल कर सिखों तथा पंजाब की मांगों के संबंध में बातचीत करने तथा लिखित ज्ञापन और यदि ज़रूरत हो तो रोष-पत्र भी दें। यदि सिख अपने-अपने देश में सामूहिक नेतृत्व का निर्माण कर लें तो फिर यह नेतृत्व आपसी सहमति से विश्व स्तर का नेतृत्व भी बना सकेगा, परन्तु इसके लिए सबसे अधिक ज़रूरत तो पंजाब तथा भारत में सिख नेतृत्व दोबारा निर्मित करने की है। यदि सिखों का कोई विश्व-स्तरीय नेतृत्व बन जाए तो सिखों की हालत विश्व स्तर पर फिर चढ़दी कला की ओर जा सकती है। वैसे तेज़ी से बदलता विश्व क्रम कल को क्या करता है, इसका कुछ पता नहीं। यदि तीसरा विश्व युद्ध होता है तो उसके क्या परिणाम होंगे, यह भी सिख कौम के लिए विचार करने योग्य मामला है, परन्तु यह तभी संभव है, यदि सिखों का कोई स्वीकृत तथा सूझवान नेतृत्व उभर सके। अन्यथा सिर्फ मार्केबाज़ी तथा शरारतपूर्ण नारेबाज़ी कौम का कुछ संवारती नहीं, अपितु पूरी कौम को और अधिक हुकूमती नफरत का शिकार ही बनाती है। वैसे सोचने वाली बात तो यह भी है कि पंजाब जहां सिख कौम बहुंसख्या में है, तो भारत जहां सिख कौम का बड़ा प्रभाव है, में सिखों में ईसाई बनने का रुझान हमरे नेतृत्व के सबसे बड़े अवसान का प्रतीक नहीं तो और क्या है, जबकि विदेशी धरती जहां ईसाई तथा मुस्लिम धार्मिक राष्ट्र भी हैं और सिखों के पास अधिक ताकत भी नहीं है, में शायद ही कोई सिख धर्म का परिवर्तन करके ईसाई या मुसलमान बनता हो।
याद रखें, कोई भी अभियान सिर्फ जोश से नहीं जीता जा सकता, परन्तु सफलता जोश के साथ-साथ होश को कायम रख कर प्राप्त की जा सकती है।
जोश-ए-कुर्बानी से ही दुनिया से कब जीता है कोई,
होश भी लाज़िम है मंज़िल तक रसाई के लिये।
(लाल फिरोज़पुरी)
-मो. 92168-60000

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