बिहार में चल रही वोटर लिस्टों की फिल्म बहुत दूर तक चलेगी 

बिहार में मतदाता सूचियों का विशेष सघन पुनरीक्षण (एस.आई.आर.) जारी है। जिस समय यह लेख छप कर पाठकों के सामने पहुंचेगा, उस समय तक मतदाताओं के फॉर्म जमा करने की ताऱीख बहुत नज़दीक आ चुकी होगी। इस ताऱीख तक जो कुछ भी बिहार में घटेगा या घट रहा है, वह तो दरअसल इस प्रक्रिया का टे्रलर है, असली फिल्म तो अब चलने वाली है। यह फिल्म बहुत लम्बी चलेगा, एक बार जब बिहार में यह वोटर लिस्ट बन जाएगी, तो नम्बर बाकी प्रांतों का आएगा। 
मुझे पता है और आपको भी पता है, दरअसल सभी को पता है कि पंजाब के खेत-खलिहान और फैक्ट्रियां बिहार से आने वाले मज़दूरों से भरपूर हैं। कुछ को छोड़ कर इन सभी के वोट बिहार में ही हैं। वे वहीं जा कर वोट डालते हैं। अगर आप बिहार के वोटर हैं, बिहार में हैं या पंजाब में और गारंटी करना चाहते हैं कि आपका नाम मतदाता सूची में बना रहे, तो फॉर्म भर कर जमा कर दीजिए। जो विधानसभा चुनाव होने वाला उसमें आप वोट डाल पाए। फॉर्म जमा करवाने की अंतिम तारीख यानी 25 जुलाई है, जिसके बाद नया खेल शुरू हो जाएगा। अभी तक आपका वास्ता आपको फॉर्म देने और लेने वाले चुनाव आयोग की तरफ से नियुक्त होने वाला बूथ लेविल अफसर यानी (बी.एल.ओ.) (जो सरकारी कर्मचारी, शिक्षा-मित्र, आंगनवाड़ी का कर्मचारी हो सकता है) और राजनीतिक दलों से आये बीएलए यानी बूथ लेविल एजेंट से पड़ रहा था। 25 के बाद एक वोटर के रूप में आपकी किस्मत ई.आर.ओ. या असिस्टेंट ईआरओ के हाथ में होगी। यह ईआरओ कौन है। यह है इलेक्टोरल रजिस्टट्रेशन अफसर। यह अफसर ही तय करेगा कि आप वोटर बने रहेंगे या नहीं। 1 अगस्त से 25 सितम्बर के बीच यही ई.आर.ओ. फैसला करेगा या नहीं और उसमें सही दस्तावेज़ लगाये हैं या नहीं। किसी ने आपके दस्तेवज़ों पर आपत्ति तो नहीं कर दी है। 
ध्यान दीजिए अगर आपने ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं लगाए तो एक मतदाता के रूप में आपकी छुट्टी होना तय है। भले ही आपने पिछले 20 साल में अनगिनत बार वोट डाला हो। अगर लगाए हैं और ईआरओ को कोई शक हो गया या किसी ने आपत्ति कर दी, तो वह आपके बारे में जांच का आदेश दे देगा। जांच के बाद अगर वह दस्तावेज़ों से संतुष्ट नहीं हुआ तो वोटर के तौर पर आपके खिलाफ एक स्पीकिंग ऑर्डर जारी होगा। यानी, एक मौखिक आदेश दिया जाएगा कि वोटर लिस्ट से आपका नाम क्यों निकाला जा रहा है। अगर आपको लगता है कि यह आदेश अन्यायपूर्ण है तो 15 दिन के भीतर-भीतर कलक्टर के यहां अपील कर दीजिए। कलक्टर तीस दिन के भीतर-भीतर तय करेगा कि आपकी बात सही है या ईआरओ की। यहां असली सवाल यह है कि जांच कैसे होगी? ई.आर.ओ. संतुष्ट किस आधार पर होगा? उसके पास ऐसा कौन सा डेटाबेस है जिसके आधार पर वह तय करेगा कि आपके दस्तावेज़ सही हैं या नहीं? वह कौन सी मशीनरी है जो उसे कथित सच्चाई बताएगी? क्या उसके पास ऐसा कोई जांच करने वाला स्टाफ होगा? या वह किसी की राय पर भरोसा करेगा? 
मुश्किल केवल इतनी ही नहीं है। बिहार में 243 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र हैं। इनमें 7.79 करोड़ वोटर हैं। मेरी जानकारी के मुताबिक बिहार में नियुक्त ई.आर.ओ. की संख्या कुल 239 है। ठीक है, उनके पास 963 असिस्टेंट ई.आर.ओ. भी हैं। लेकिन अंत में फैसला तो 239 ई.आर.ओ. को ही करना है। यानी एक ई.आर.ओ. के हिस्से में 3,30,125 वोटरों के फॉर्म आएंगे। उनकी जांच-पड़ताल और फैसला करने के लिए उसके पास 1 अगस्त से 25 सितम्बर तक कुल 56 दिन होंगे। जिसके दौरान वह दस्तावेज़ों की जांच करके उनके बारे में फैसला लेंगे। अगर वह बिना छुट्टी लिए रोज़ 8 घंटे बिना रुके काम करेगा तो प्रति दिन उसे 5,895 वोटरों की किस्मत का फैसला करना होगा। हर घंटे उसे 735 वोटरों के फार्मों से निबटना पड़ेगा। यानी प्रति मिनट उसकी दर 12 वोटरों की होनी चाहिए। क्या कोई ई.आर.ओ. ऐसा कर सकता है? क्या यह व्यावहारिक है। क्या ऐसा होना संभव है? क्या इस तरह की आपाधापी में किया गया वोटर की किस्मत का फैसला बड़े पैमाने पर असंतोष को जन्म नहीं देगा? समस्या केवल यही नहीं है। इन 56 दिनों में ईआरओ को बीच-बीच में राजनीतिक दलों को भी सूचियां दिखानी पड़ेंगी। मतदाता सूचियों की क्रॉस चेकिंग का अधिकार पार्टियों के सूची-प्रेक्षकों को होगा। इस प्रकार यह काम व्यावहारिक रूप से होगा ही नहीं, और अगर होगा तो उससे और अधिक देर लगेगी। 
मैंने यह हिसाब अपने सेलफोन के केलकुलेटर से लगाया है। इसमें कुछ हेरफेर हो सकता है। ई.आर.ओ. की संख्या कितनी है, यह नेट पर उपलब्ध है। वोटर कितने हैं यह हमें पता है। अगर यह सही है तो सवाल यह उठता है कि बिहार के ई.आर.ओ. इतना ज़रूरी काम कैसे करेंगे? आखिर इस काम पर बिहार में हमारा पूरा चुनावी लोकतंत्र निर्भर है। जिन वोटरों का देहांत हो गया है, उनके नाम काट दिये जाएंगे। मर चुके वोटरों की संख्या अभी तक कुल 12.5 लाख है। इसके लिए जांच की कोई ज़रूरत नहीं है। जो अपने पते पर उपलब्ध नहीं हैं, उनके नाम भी काट दिये जाएंगे। इनकी संख्या 17.5 लाख है। करीब साढ़े पांच लाख वोटरों का नाम दो बार मिला है। चलिए, उनके भी काट दीजिए। इस प्रकार कुल मिल कर 35-36 लाख वोटरों के नाम हटाए जाएंगे। लेकिन बाकी ज़िंदा हैं, और पते पर उपलब्ध हैं, उनका क्या होगा? क्या उनके साथ इंसाफ होगा? भाजपा और उनके समर्थक दावे कर रहे हैं कि केवल विपक्ष ही इस सघन पुनरीक्षण का विरोध कर रहा है। पर वे यह नहीं बता रहे हैं कि राज्य चुनाव आयोग की देखरेख में जनवरी में जो समरी रोल रिवीज़न हुआ था, उसके आधार पर बनी सूची में क्या समस्या है? वह विधानसभा चुनाव का आधार क्यों नहीं बन सकती? इतनी जल्दबाज़ी में यह नयी सूची क्यों बनायी जा रही है?
इसका एक ही मतलब समझ में आता है। पहले से कहीं किसी अनदेखे-अनजाने कोने में कोई योजना पक रही है, या पक-पका कर उसे तैयार कर लिया गया है। ई.आर.ओ. को दिया जाने वाला वोट काटने या न काटने का परामर्श क्या किसी पन्ना प्रमुख ने बना कर तैयार तो नहीं रख लिया है? पन्ना प्रमुख किस पार्टी का होता है, यह सभी को पता है। पन्ना प्रमुख के कहने पर अगर ई.आर.ओ. ने काम किया तो समझ लीजिए कि किस पार्टी को इस सघन पुनरीक्षण का लाभ होने वाला है। 
यशवंत देशमुख की संस्था सी-वोटर ने सर्वे किया है। बिहार के 55 प्रतिशत लोग कहते हैं कि चुनाव आयोग की इस कवायद का मकसद भाजपा को लाभ पहुंचाना है। मैं इस आंकड़े का समर्थन या विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं तो बस यह सोच रहा हूँ कि अगर ई.आर.ओ. के साथ पन्ना प्रमुखों ने जुड़ कर वोटरों की किस्मत का फैसला किया तो कुल मिला कर हमारा लोकतंत्र किस दशा में पहुंच जाएगा। 
आप भी सोचिए। सोचने की ज़रूरत है। अगर लोकतंत्र की रक्षा करनी है तो सोचना ही पड़ेगा। आज यह काम बिहार में हो रहा है, कल पूरे देश में होगा। धीरे-धीरे एक खास तरह के नज़रिये से तैयार की गई वोटर लिस्ट पर चुनाव होंगे। इसमें ई.आर.ओ. ही नहीं बल्कि पन्ना प्रमुख का भी विशेष योगदान हो सकता है। तब क्या होगा? मुसलमानों के वोट, यादवों के वोट, जाटवों के वोट और उन सभी के वोट जिनके नाम और जातिसूचक उपनाम देख कर पहचाना जा सकता है कि वे भाजपा के वोटर नहीं है, कटने का खतरा पैदा हो गया। क्या विपक्ष के पास ई.आर.ओ. स्तर पर होने वाले सघन पुनरीक्षण की कोई काट है?
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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