राहुल गांधी के एटम बम का हो रहा है इन्तज़ार 

उधर इंग्लैंड में ओवल के मैदान पर क्रिकेट का टैस्ट मैच चल रहा है और इधर कांग्रेस और विपक्ष के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी रोज़ ही फ्रंट-फुट पर बल्लेबाज़ी करते नज़र आ रहे हैं। शुक्रवार को तो उन्होंने उन लोगों का दिल ही जीत लिया जो भारतीय लोकतंत्र के प्रति चिंता में डूबे हुए हैं। राहुल ने पहले अपने लोकतांत्रिक मिजाज़ का सबूत दिया और फिर भारत की चुनाव-प्रणाली में लगी हुई घुन को खत्म करने के अपने पक्के इरादे का मुज़ाहिरा कर दिया। मौका था कांग्रेस के कानून सम्मेलन का जो नयी दिल्ली के विज्ञान भवन में हो रहा था। 
जैसे ही राहुल बोलने के लिए खड़े हुए उत्साही कार्यकर्ताओं ने नारेबाज़ी शुरू कर दी। नारों की टेक थी—देश का राजा कैसा हो, राहुल गांधी जैसा हो। राहुल ने इस पर खुश होने के बजाय तुरंत हस्तक्षेप किया। उन्होंने कहा.. नहीं भाई नहीं, न मैं राजा हूं, और न ही बनना चाहता हूं। मैं तो इस तरह की समझ के ही खिलाफ हूं। राहुल की यह बात लोगों को एक तुलना करने की तरफ ले जाती है। नरेंद्र मोदी से तुलना करने की तरफ, उन नरेंद्र मोदी से जो 2013 में प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करने में लगे हुए थे और उनके सामने देश के बड़े-बड़े पूंजीपति बायब्रेंट गुजरात सम्मेलनों में उनका (मोदी) नाम लेते हुए उन्हीं के सामने कहते थे कि देश का राजा तो ऐसा होना चाहिए। मोदी मंद-मंद मुस्कराते हुए अर्थपूर्ण ढंग से सिर हिलाते रहते थे। मोदी का यही रवैया 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्हें इस हद तक ले गया कि वह राजा से भी आगे बढ़ कर ख़ुद को नॉन-बायलॉजीकल बताने लगे। संघ के कई प्रचारक नेता चाटुकारिता के साथ कभी तो उन्हें विष्णु का अवतार कहते, तो कभी देवताओं का देवता। जिस समय राहुल भारत जोड़ो यात्रा कर रहे थे, जिस समय वह कड़ी सर्दी में केवल टी-शर्ट पहन कर सारे देश को चकित कर रहे थे, मोदी जी उस समय कभी केदारनाथ की कंदराओं में श्वेतवस्त्रधारी तपस्वी का वेष बना कर तस्वीरें खिंचा रहे थे, कभी समुद्र में फर्जी किस्म की गोताख़ोरी करके पाताल-लोक वासी होने की छवि पेश करने में लगे हुए थे। मोदी जी ने उन दिनों न केवल अयोध्या में राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा की, बल्कि वह अबूधाबी के मंदिर और सम्भल में कल्किधाम की प्राणप्रतिष्ठा करते हुए भी दिखाई दिये। 
वह हर कीमत पर एक ऐसे शासक की छवि पेश करना चाहते थे जो न केवल देश का राजनीतिक मुखिया हैं, बल्कि आध्यात्मिक मुखिया भी हैं। शायद वह योगी आदित्यानाथ की नकल कर रहे थे। आदित्यनाथ  ऐतिसाहिसक गोरखनाथ पीठ के मुखिया हैं और उ.प्र. सरकार के भी। मोदी जी का इरादा भी कुछ ऐसा ही करने का था। वह चाहते थे कि अगर एक बार इस देश की जनता उन्हें तपस्वी, आध्यात्मिक और ईश्वरीय अंशों से सम्पन्न मान ले तो उनकी सत्ता हमेशा-हमेशा के लिए पक्की हो जाएगी। जिस समय मोदी जी की यह नौटंकी चल रही थी, उस समय राहुल गांधी कभी मोची की दूकान पर दिखते थे, कभी धान की रुपाई करती हुई किसान औरतों के साथ होते थेए और कभी किसी अतिपिछड़े कारीगर के साथ और कभी मार्शल आर्ट सीखने वाले युवकों के साथ। दोनों के रवैये में और स्वयं को जनता के साथ जोड़ने के तरीके में ज़मीन-आसमान का अंतर था। 
कांग्रेस के कानून सम्मेलन में भी यह अंतर साफ हुआ। राहुल गांधी यहीं नहीं रुके। उन्होंने वह बात एक बार फिर कही जो आजकल सभी तरफ गूंज रही है। उन्होंने कहा कि कनार्टक में लोकसभा का चुनाव किस तरह से चुराया गया, उससे उन्हें यकीन हो गया है कि अगर 2024 में भाजपा पंद्रह-बीस सीटें और हार जाती तो सत्ता में नहीं आ पाती। मोदी जी आज संसद में विपक्ष के नेता होते। मुझे तो लगता है कि राहुल ने भाजपा की वह तिकड़म खोज निकाली है जिसके सहारे वह कनार्टक, ओडीशा और आंध्र में स्वयं जीती या अपने सहयोगी दलों को उसने जिताया। मुझे यह भी लगता है कि राहुल जल्दी ही कनार्टक के दो लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के वोटर-विश्लेषण से यह साबित कर देंगे कि उसने कहीं न कहीं ऐसे अदृश्य वोटरों का एक विशाल दल तैयार कर लिया है जो किसी भी राज्य में मतदान से पहले वहां वहीं के कागज़ तैयार करके जम जाता है और फिर भाजपा के लिए रणनीतिक वोटिंग करके कड़ी लड़ाई में पलड़ा उसके पक्ष में झुका देता है। शायद यही है राहुल गांधी का वह एटम बम जो वह चुनाव आयोग सिर पर चलाना चाहते हैं। सारा देश इस एटम बम के फटने की प्रतीक्षा कर रहा है। 
राहुल बिहार में तेजस्वी यादव के साथ मिल कर वहां चुनाव आयोग द्वारा फैलाये गये नयी वोटर लिस्टें बनाने के प्रपंच के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे हैं। इसे विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) कहा जा रहा है। इसका पहला दौर ख़त्म हो चुका है। आज दूसरे दौर का दूसरा दिन था। पहले दौर से ही इसकी असलियत साफ होनी शुरू हो गई है। कुछ आंकड़े देखिए। अभी भारत में नयी जनगणना तो नहीं हुई है, परन्तु अगर पिछली जनगणना के आधार पर वहां के वयस्कों की आबादी को 2015 पर प्रोजेक्ट किया जाए तो वह 8 करोड़ 18 लाख निकलती है। लेकिन, एक अगस्त को आयोग ने वोटर लिस्ट का जो ड्राफ्ट प्रकाशित किया, उसमें वोटरों की संख्या कुल 7 करोड़ 24 लाख निकली। कायदे से तो जितने वयस्क नागरिक हों, उतने वोटर होने चाहिए। अगर उतने हों तो उससे थोड़े ही कम होने चाहिए। 2024 के चुनाव में जिस वोटर लिस्ट पर वोट पड़े थे, उसमें कुल वयस्क आबादी का 97 फीसदी हिस्सा शामिल किया गया था, लेकिन इस बार वोटरों की 94 लाख संख्या कम कर दी गई यानी कुल वयस्क आबादी के 88 फीसदी हिस्से को ही वोटर लिस्ट में शामिल किया गया। इसी तरह की एसआईआर पूरे देश में होनी है। अगर बिहार के उदाहरण को पूरे देश पर प्रोजेक्ट किया जाए तो इस हिसाब से देश भर में कोई नौ करोड़ वोटर सूचियों से निकाल दिये जाएंगे। 
बात यहीं तक नहीं रुकने वाली है। यह तो ड्राफ्ट वोटर लिस्ट है। अभी 25 सितम्बर तक लाखों-लाख वोटरों के नाम और कटेंगे। न जाने यह सिलसिला कहां रुकेगा। वोट कटने का पैटर्न भी दिखने लगा है। सीमांचल के इलाके में सबसे ज़्यादा वोट कटे हैं। यानी चुनाव आयोग और भाजपा की इस साठगांठ का सबसे बड़ी गाज़ मुसलमान वोटरों पर गिरी है। हम जानते हैं कि सीमांचल में चार ज़िले आते हैं। अररिया, कटिहार, पूर्णिया और किशनगंज। हम यह भी जानते हैं कि यह क्षेत्र सघन मुसलमान आबादी वाला है, लेकिन इसकी सीमा बांग्लादेश से नहीं बल्कि नेपाल से लगती है। इसे बांग्लादेश की सीमा से नज़दीक कह सकते हैं, परन्तु मिली हुई नहीं। योगेंद्र यादव ने एक बेहतरीन विश्लेषण करके बताया है कि बांग्लादेश में तो शेख हसीना सरकार का तख्ता-पलट होने से पहले प्रति व्यक्ति आय टेक्सटाइल बूम के कारण 19,200 रुपये थी जबकि बिहार के लोग 2024 में प्रति व्यक्ति केवल 5570 रुपये ही कमाते थे। भला चौगुनी आय छोड़ कर बांग्लादेशी बिहार में घुसपैठ क्यों करने लगे। नतीजा साफ है। अभी तक चुनाव आयोग एक भी ऐसे वोटर की शिनाख्त नहीं कर पाया है जो बांग्लादेशी होने के कारण मतदान के अधिकार से वंचित किया गया हो। इसके बावजूद सीमांचल के वोटरों को सबसे ज़्यादा कटौती का सामना करना पड़ा है। वहां के लाखों वोटर मतदान के अपने अधिकार से वंचित हो गए हैं। 
मुझे तो लगता है कि जब तक राहुल गांधी अपना एटम बम फोड़ने की स्थिति में होंगे, तब तक अगले पंद्रह-बीस दिनों में वह पैटर्न भी साफ हो जाएगा कि एसआईआर के दूसरे चरण में किसके वोट कट रहे हैं और किस आधार पर कट रहे हैं। तब राहुल, तेजस्वी, सीपीआई-एमएल के दीपंकर भट्टाचार्य और मदन सहनी को बैठ कर यह तय करना होगा कि वे बिहार का चुनाव लड़े या उसका बायकाट करें। वह दिन भारत के चुनावी लोकतंत्र के लिए कयामत का दिन हो सकता है। हम दम साध कर उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमारा लोकतंत्र इस समय दोराहे पर खड़ा हुआ है। यहां से या तो वह पतन के गर्त में चला जाएगा और अगर संभल गया तो फिर उसका ग्राफ ऊपर ही ऊपर जाना तय है। 


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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