नरेन्द्र मोदी की दूसरे प्रधानमंत्रियों से तुलना बेमतलब
पूरी दुनिया की राजनीति जब ज़बरदस्त बदलाव और स्वयं को प्रतिष्ठित करने के दौर से गुज़र रही है। ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तुलना भारत के दूसरे प्रधानमंत्रियों से की जा रही है। तुलना भी कई तरीके से। कहीं पर उनकी तुलना श्रीमती इंदिरा गांधी से हो रही है तो कहीं पर उन प्रधानमंत्रियों से जिन्होंने देश के प्रधानमंत्री के रूप में सर्वाधिक दिन शासन चलाया। एक तुलना इस बात से भी हो रही है कि उनके शासन के 11 वर्ष और दूसरे प्रधानमंत्रियों के शासन के 11 वर्ष कैसे रहे? देश को क्या मिला तथा किस तरह से उन्होंने जनता और अपने दल को संभाला?
हाल में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकाल के 11 वर्ष पूर्ण किए तो पक्ष-विपक्ष में हर्ष और विशाद दोनों ही देखने को मिले। ज़ोर इस बात पर दिया जाने लगा कि क्या वह अपनी बनाई नीतियों के तहत 75 वर्ष की आयु पूरी होने पर वही प्रक्रिया अपनाएंगे, जो दूसरों पर भाजपा में 75 वर्ष के होने पर लागू होती है। मतलब साफ कि क्या वह प्रधानमंत्री पद के इतर किसी और ज़िम्मेदारी को देख रहे हैं? इस दौरान बहस इस बात पर भी हो रही है कि उन्होंने देश को क्या दिया? पक्ष जहां उनके किए कार्य को गिना रहा है, वहीं विपक्ष का सारा ज़ोर इस बात पर है कि वह जनता को समझा सके कि मोदी शासन में उनके हित सुरक्षित नहीं हैं। इसके लिए दूसरे प्रधानमंत्रियों से तुलना और उनके कार्यों को गिनाया जाना प्रमुख है।
मोदी की सर्वाधिक तुलना इंदिरा गांधी से की जा रही है। दूसरे देशों से संबंध और उनके प्रति हमारी अवधारणा को लेकर कहा जा रहा है कि भारत को सर्वाधिक नुकसान पाकिस्तान से हो रहा है और हम कई बार सर्जिकल स्ट्राइक या ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भी पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को नहीं ले पा रहे हैं जबकि कहा जा रहा है इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़ कर बांग्लादेश बनवा दिया था। तुलनात्मक देखें तो उस वक्त जब बांग्लादेश बना तो दूसरे देशों की स्थितियां अलग थीं और इंदिरा गांधी को देश की रक्षा के लिए यही उपाय बेहतर लग रहा था। आज भारत को जितना विदेशी ताकतों खासकर पाकिस्तान, बांग्लोदश, चीन से जूझना पड़ रहा है, उतना ही कूटनीतिक तरीके से प्रतिदिन अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के उन बयानों तथा धमकियों से भी लड़ना पड़ रहा है, जो भारत के हितों के खिलाफ हैं।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर किए जाने वाले प्रश्नों में सिर्फ यही प्राथमिकता में हैं कि भारत को कितना नुकसान हुआ। ट्रम्प ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नहीं रुकवाया तो प्रधानमंत्री बयान क्यों नहीं दे रहे? क्या किसी विपक्षी नेता ने अमरीका में जाकर यह बात कही कि भारत ने ऑपरेशन खुद की रणनीति से रोका है। कोई विपक्षी इस बात के लिए ट्रम्प की बुराई नहीं कर रहा कि वह पाकिस्तान के साथ डिनर कूटनीति से भारत को दबाव में लेना चाहता है? इस बात को क्यों नहीं पूछा जाता कि आखिर जब हम पाकिस्तान को गैर-भाजपा शासन में शिकस्त दे चुके थे, तो पीओके क्यों नहीं लिया। आखिर तुलना के लिए देश की रक्षा व्यवस्था पर प्रश्न क्यों?
मोदी के प्रधानमंत्री काल के 11 वर्ष को इंदिरा के शासन से तुलना करते समय विपक्ष, खासकर कांग्रेस यह भूल जाती है कि आपात्काल ने देश के हर नागरिक को हलकान करके रख दिया था। हर बात के लिए पीएमओ की तरफ देखना मजबूरी हो गयी थी। इसके विपरीत आज देश के हिंसाग्रस्त राज्यों में शांति स्थापना के लिए जो प्रयास हो रहे हैं, वे बताते हैं कि अब जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटने के बाद वहां के हिंदू अब देश को एक कानून के तहत चलता हुआ पा रहे हैं। धारा 370 कश्मीर में हिंदुओं के लिए एक तरफ से अघोषित आपात्काल ही था।
देखा जाए तो मोदी शासन में जिस तरह से छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और तेलंगाना में नक्सलियों का सफाया हो रहा है, उससे वहां पर जनता खुद को सुरक्षित महसूस कर रही है। अनुमान है कि अब तक कम से कम दस हज़ार नक्सलियों ने या तो आम समाज की धारा में खुद को वापस किया है या फिर वह आतंक के रास्ते से इतर हो गए हैं।
मोदी सरकार पर सबसे बड़ा आरोप इस बात पर है कि उनके शासन में निजीकरण हो रहा है। माना जाता है कि देश की महत्वपूर्ण सरकारी कम्पनियों को निजी क्षेत्र में दिया जा रहा है। इंदिरा गांधी ने जब देश के बैंकों को सरकारीकरण किया था, तो यह सोच थी कि इससे जनता को लाभ होगा पर हुआ क्या? आज एसबीआई से लेकर दूसरे सभी बैंकों की स्थिति क्या है? सरकारी बैंकों के घोटाले रोज़ ही अखबारों की सुर्खियां बन रहे हैं। आज निजी क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र के मुकाबले अधिक रोज़गार मिल रहे हैं और दूसरे देश हमारे उत्पाद को पाने के लिए खुद समझौते कर रहे हैं।
कश्मीर में वंदे भारत रेल की सफलता इसका एक उदाहरण है। इसे मोदी की तुलनात्मक बेहतर योजना ही कहा जाएगा कि जहां पर जाने के लिए पर्यटक सोचते थे, वहां पर अब पर्यटकों की संख्या इतनी हो चुकी है कि इसे नियंत्रित करने के लिए उत्तराखंड सरकार को तो यह कहना पड़ रहा है कि अब तीर्थस्थलों पर भक्तों की संख्या सीमित करने पर विचार करना पड़ेगा। आखिर जब समय और समाज स्वयं केन्द्रित हो रहा है, तो इस तुलना का औचित्य क्या है?
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