पंजाब के पास ही हो राज्य की नदियों का प्रबंध

ये ज़ुल्म नहीं है तो भला है भी क्या और,
शर्त-ए-रज़ा उनकी है तकाज़ा भी न करें।
-लाल फिरोज़पुरी 

वास्तव में गत सप्ताह ही पंजाब की बाढ़ बारे एक पूरा लेख इन कालमों में लिखा गया था। बेशक उस में भी बहुत कुछ जो लिखा जाना चाहिए था, लिखा नहीं जा सका या शायद मैंने लिखने का साहस नहीं कर सका था, परन्तु फिर भी मैंने आज बाढ़ की पीड़ा के एहसास की बात नहीं करनी, क्योंकि इस पीड़ा का एहसास शायद प्रत्येक पंजाबी ही कर रहा है। हां, जो लोग इस पीड़ा को अपने शरीर पर सहन कर रहे हैं, उनके एहसास को सही तरीके से सिर्फ वे ही समझ सकते हैं, परन्तु इस पीड़ा के एहसास को कम करने के नाम पर टी.वी. स्क्रीनों, समाचार-पत्रों तथा सोशल मीडिया में प्रकाशित नेताओं की तस्वीरें तथा वीडियो देखकर खुशी नहीं हो रही, जिनमें राजनीतिक पार्टियों के नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, उनके बॉस, राज्यपाल तथा केन्द्रीय मंत्री हालात का जायज़ा लेते दिखाई देते हैं या कुछ स्थानों पर नेता अपने कंधों पर एक-एक, दो-दो बैग उठा कर कीचड़ तथा पानी में से गुज़रते हुए फोटो तथा वीडियो बनवा रहे हैं, हो सकता है कि यह क्रिया उन्हें कोई मानसिक संतुष्टि देती हो, परन्तु वास्तविकता यह है कि इन लोगों द्वारा लिए जा रहे ये जायज़े, हालात सुधार नहीं रहे, अपितु इसमें बाधा ही प्रतीत हो रहे हैं, क्योंकि इससे प्रशासन तथा लोगों द्वारा किए जा रहे राहत कार्यों में जड़ता ही आती है। मैं समझता हूं कि इन लोगों को कार-सेवा का दिखावा करने की बजाय, समाचार-पत्रों की सुर्खियों में जगह लेने की बजाय, अलग-अलग सरकारी विभागों से रिपोर्टें लेकर, उनकी ज़रूरत के अनुसार प्रशासन को लोगों की मदद करने के आदेश देने चाहिएं। यही काम अन्य राजनीतिक पार्टियों को अपने कार्यकर्ताओं को करने के लिए कहना चाहिए। यह समय वी.आई.पीज़ का मौके पर पहुंच कर कार्य में बाधा डालने का नहीं है। 
खैर, बाढ़ से हुए नुकसान की पीड़ा सिर्फ बाढ़ के दौरान ही नहीं, अपितु असली पीड़ा तो बच गये तथा तबाह और बर्बाद लोगों की मुश्किलें हल करने तथा उनके पुनर्वास की होगी। शुक्र है कि देर से ही सही, पंजाब को प्राकृतिक आफत से पीड़ित राज्य करार दे दिया गया है, परन्तु ज़रूरत तो इसे राष्ट्रीय आपदा करार दिये जाने की भी है, ताकि आपदा पीड़ित लोगों की खुल कर मदद हो सके और फंडों की कमी न आए। वैसे हमें पंजाबियों पर गर्व है कि वे अपने भाइयों की मदद के लिए स्वयं ही खुल कर सामने आए हैं, परन्तु हैरानी है कि केन्द्र ने सीमा से 50 किलोमीटर तक का क्षेत्र बी.एस.एफ. के अधिकार  क्षेत्र में दे दिया था, परन्तु अब मुश्किल के समय में इस 50 किलोमीटर में बी.एस.एफ. कहीं दिखाई क्यों नहीं दी?
हर बार बाढ़ की ज़द में आते पंजाब में बढ़ी मुश्किलों में एक कारण बांधों का प्रबंधन केन्द्र के हाथों में होने को बताया जाता है। उल्लेखनीय है कि इन बांधों के कारण बाढ़ के बिना पंजाब की सूखी नदियों की हालत ‘मरी हुई नदियों’ जैसी दिखाई देती रहती है। मीलों तक पानी का नामो-निशान तक नहीं दिखाई देता, जबकि यह ज़रूरी है कि नदियों का प्राकृतिक बहाव कायम रखने के लिए इन की क्षमता के लगभग 20 प्रतिशत पानी इनमें लगातार छोड़ा जाना चाहिए ताकि दरियाई जीव-जंतु, पशु तथा पक्षी प्राकृतिक जीवन बिता सकें तथा राज्य के भू-जल का स्तर भी बना रह सके, परन्तु अफसोस कि बांध प्रबंधन इस बहाव को रोक कर सिर्फ इस बात की चिन्ता में लगा  रहता है कि कैसे राजस्थान तथा हरियाणा का पानी पूरा तथा लगातार दिया जाए। फिर जब भरे हुए बांध में अचानक बरसात तथा पहाड़ों का पानी आता है तो बांधों की सुरक्षा के लिए अधिक पानी छोड़ना पड़ता है। बांधों तथा नदियों की सफाई तथा डी-सिल्ंिटग भी नहीं की जाती जो प्रत्येक वर्ष नहीं तो कुछ वर्षों में एक बार तो अवश्य होनी चाहिए। प्रत्येक वर्ष फ्लड गेटों की हालत की भी जांच न किये जाने की तस्दीक माधोपुर हैड वर्क्स के गेटों के न खुलने तथा टूट जाने से होती है।
कानूनी तथा राजनीतिक प्रयासों की ज़रूरत
ठहरे हुए पानी का मुकद्दर नहीं होता,
बहते हुए पानी का तकाज़ा है गुज़र जा।
मुईद रशीदी का यह शे’अर पंजाब के सभी नेताओं पर चरितार्थ होता है। वे एक रुके तथा ठहरे हुए पानी जैसी सोच के मालिक हो गए हैं। अन्यथा बहते हुए पानी वाली सोच तो अपने अधिकारों के लिए किसी भी हद से गुज़र कर अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करती रहती है। 
केन्द्र सरकार का एक कानून ‘रिवर बोर्ड एक्ट 1956’ है, जो अंतर्राजीय दरियाई पानी के समुचित उपयोग के लिए संबंधित राज्यों की सहमति से कार्य करता है। जहां सहमति न हो, वहां केन्द्र सरकार ‘इंटर रिवर वाटर डिस्प्यूट एक्ट 1956’ के तहत काम करती है, परन्तु पंजाब की नदियों के संबंध में यह कानून सिर्फ और सिर्फ पंजाब तथा हिमाचल के विवाद में लागू हो सकता है, क्योंकि दोनों रिपेरियन राज्य हैं। इस कानून के तहत इसमें राजस्थान, हरियाणा तथा दिल्ली नहीं आ सकते, न ही भाखड़ा तथा अन्य बांधों का नियंत्रण केन्द्र सम्भाल सकता है। 
उल्लेखनीय है कि पंजाब पुनर्गठन एक्ट 1966 (पी.पी.ए.-66) की धारा 78 में माध्यम से पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान में नदी-जल के विभाजन के अधिकार केन्द्र ने अपने अधीन कर लिए थे। धारा 79 के तहत ‘भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड’ की स्थापना हुई और धारा 80 के तहत ‘ब्यास कंस्ट्रक्शन बोर्ड’ बना जबकि वास्तव में भारतीय संविधान के 7वें शैड्यूल की धारा 17 के अनुसार सिंचाई, नहरों तथा पन बिजली परियोजना के मालिक राज्य हैं। संविधान के 7वें शैड्यूल की धारा 56 तथा संविधान की धारा 262 के अनुसार अंतर्राजीय नदियों के पानी के वितरण के विवाद निपटाने का अधिकार केन्द्र के पास है, परन्तु यह उपरोक्त लिखे की भांति सिर्फ पंजाब तथा हिमाचल के विवाद में ही हो सकता है। अत: सभी विवाद एवं धक्केशाही की जड़ में गैर-कानूनी तथा गैर-संवैधानिक पी.पी.ए.-66 की धाराएं 78, 79 तथा 80 ही हैं। 
पंजाब ने 1979 में पी.पी.ए.-66 की धारा 78 को गैर-संवैधानिक करार देने के लिए याचिका दाखिल की थी, जो जग-जाहिर है कि केन्द्र के दबाव के अधीन पंजाब ने वापस लेकर अपने हाथ कटवा लिए थे। जिस कारण जब 2004 में पंजाब ने पुन: धारा 78 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो अदालत ने 4 जून, 2004 को इसे इस आधार पर ही खारिज कर दिया था कि पहले स्वयं वापस ली गई याचिका पुन: दायर नहीं की जा सकती। अब पंजाब के पास सिर्फ दो विकल्प हैं। पहला यह कि अब अदालत में धारा 78 नहीं, अपितु धारा 79 को गैर-संवैधानिक होने की चुनौती दी जाए और दूसरा विकल्प यह है कि पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मति से पंजाब पुनर्गठन एक्ट-1966 की धाराएं 78, 79 तथा 80 को रद्द कर दे और इन दोनों कदमों के आधार पर कानूनी, राजनीतिक तथा जन-रोष की लड़ाई लड़ी जाए ताकि हमारी नियति तथा हमारे अधिकार हमारे पास हों, परन्तु ऐसा तभी सम्भव है, यदि ईमानदारी से हमारा पंजाबी नेतृत्व अपने-अपने रानजीतिक हितों तथा निजी लाभ से ऊपर उठ कर पंजाब के बारे में सोचे। इसलिए पहल तो सत्तारूढ़ पार्टी को ही करनी होगी। वैसे पंजाब के लोगों के लिए एक अहम सवाल यह भी है कि क्या उन्हें पंजाब की समूह पार्टियों के मौजूदा नेतृत्व से ऐसी कोई उम्मीद है?
परन्तु याद रखें, इतिहास में ज़िंदा वही लोग रहते हैं जो मरने का हौसला रखते हों। सरफराज़ अबद के शब्दों में : 
ज़िंदा रहने का हक मिलेगा उसे,
जिसमें मरने का हौसला होगा। 
भारत की विदेश नीति 
कदम मिला के ज़माने के साथ चल न सके,
बहुत संभल के चले हम मगर संभल न सके।
-जिगर बरेलवी
किसी ज़माने में भारत नान अलाइनमैंट (गुट-निर्लेप) की नीति पर चलता था, परन्तु हमने उससे आगे बढ़ कर सबके साथ चलने अर्थात (मल्टी अलाइनमैंट) की नीति अपना ली, जो शायद हमें धीरे-धीरे सबसे दूर करती गई और अब रूस, चीन के गुट की ओर जाने के लिए मजबूर कर रही प्रतीत होती है। 
जहां तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संबंध है, उन्होंने देशों के बीच दोस्ती से अधिक देशों के प्रमुखों से निजी दोस्ती की ओर अधिक ध्यान दिया है, परन्तु यह नीति अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से निजी दोस्ती से निजी विरोध में बदलती दिखाई दे रही है। जो चर्चा है, तनिक ध्यान से देखें। इस दोस्ती में पहली दरार उस समय पड़ी बताई जाती है जब अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव के समय मोदी अमरीका गए और डोनाल्ड ट्रम्प ने बाकायदा ध्यान दिया कि मेरे दोस्त मोदी मुझे मिलने आ रहे हैं। उनका अभिप्राय शायद भारतीय अमरीकियों के वोट को प्रभावित करना था, परन्तु मोदी अमरीका जाकर भी ट्रम्प को नहीं मिले। ट्रम्प जीत गए और भारतीय गैर-कानूनी प्रवासियों को अपमान भरे ढंग से बेड़ियों में बांध कर उन्होंने डिपोर्ट कर दिया। भारत चुप रहा। फिर अगले दौरे में प्रधानमंत्री मोदी ने जिस प्रकार एलन मस्क के साथ मुलाकात की और उसे प्रचारित किया, चर्चा है कि उसने भी डोनाल्ड ट्रम्प को नाराज़ किया क्योंकि यह स्पष्ट है कि वह नहीं चाहते कि कोई अमरीकी कम्पनी भारत में कारखाना लगाए, परन्तु यह लड़ाई उस समय और तीव्र हो गई जब ट्रम्प ने भारत-पाकिस्तान में युद्धविराम करवाने के दावे किये और भारत ने उन्हें स्वीकार नहीं किया, क्योंकि भारत की भीतरी खासकर भाजपा की राजनीति को यह बात सही नहीं लगती। इस बीच श्री मोदी द्वारा ट्रम्प के साथ फोन पर की गई 35 मिनट की बातचीत भी कटुता का कारण बनी बताई जाती है। 
इस बीच अमरीका ने भारत से अपना व्यापार घाटा कम करने के लिए कृषि एवं डेयरी आदि क्षेत्र खोलने की मांग की, जो भारत को स्वीकार नहीं थी। फिर भी भारत ने कॉटन (कपास, नरमा) आदि क्षेत्र खोने, परन्तु अमरीका संतुष्ट नहीं हुआ। निजी रंजिश के कारण ट्रम्प ने रूस से तेल खरीदने को मुद्दा बना लिया। हालांकि भारत की ओर से खरीदे गये इस तेल का अधिक लाभ कार्पोरेट्स को हुआ, लोगों को नहीं, परन्तु अब नुकसान पूरे भारत के सहन करना पड़ेगा। अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया। भारत ने भी इस पर संयम बरतने की बजाय ‘तू नहीं तो और सही’ की नीति अपना कर चीन के साथ निकटता का संदेश दिया हालांकि चीन हमारा खरीददार बन ही नहीं सकता। इसलिए भारत को सब के साथ निकटता या मजबूरी वश रूस, चीन, उत्तर कोरिया, ईरान तथा पाकिस्तान वाले गुट के निकट जाने की बजाय फिर से गुट-निर्लेप नीति की ओर लौटने के बारे में सोचना चाहिए। 
 

-मो. 92168-60000

#पंजाब के पास ही हो राज्य की नदियों का प्रबंध