धर्म की आड़ में सक्रिय पाखंडियों से सावधान रहने की ज़रूरत

हमारा देश आदि काल से संत, महात्मा, आचार्य, गुरु के प्रति सदा निष्ठा, समर्पण, आदर सम्मान दिखाता आया है। इनके द्वारा कहा उचित, अनुचित का भेद किए बिना मान लिए जाने की परम्परा थी। वे भी बहुत सोच समझकर सार्वजनिक हित की बात कहते और करते थे। एक तरह का संतुलन बना रहता था, परन्तु वर्तमान में तर्क की कसौटी पर कसे बिना स्वामियों से लेकर शंकराचार्य, मंडलेश्वर या किसी अन्य का कथन आंख-कान बंद कर मान लेना खतरे से खाली नहीं होता। 
सनातन शाश्वत सत्य है : सबसे पहले तो उन लोगों से सावधान हो जाइए जो कहें कि सनातन खतरे में है, हम उसे बचाने निकले हैं। समझ लीजिए कि जो आदि और अंत दोनों है, उसकी रक्षा की बात कहने वाले बहरूपिये हैं, जो कहे कि भारतीय संस्कृति की रक्षा करने निकले है, वे ढोंगीं हैं, जो इसके लिए कोई यज्ञ, अनुष्ठान करने का आह्वान करे, वह पाखंडी है और जो अपना सब कुछ अर्पित करने को कहे, वह लंपट है। यह समय वह नहीं रहा जब स्वामी विवेकानंद, राम कृष्ण परमहंस, स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी शिवानंद, महर्षि अरविंद, मां अमृतानंदमयी जैसी महान विभूतियां मार्गदर्शन करती थीं, आज गुमराह करने वाले की सूची लम्बी है। एक गुरु ढूंढो हज़ार मिल जाते हैं। इनके महलनुमा आश्रमों की झलक एक वेबसीरीज़ में दिखाई गई जो बहुत लोकप्रिय हुई। इसके बावजूद, न जाने क्या आकर्षण है कि ऐसे लोग अपनी शक्ल, सूरत और प्रवचन से इतना प्रभावित करते हैं कि उनके खोट दिखाई देने के बजाय उनके मोहपाश में खिंचे चले आते हैं। 
चैनल या समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में पैठ बनाते हैं। अपनी रोनी सूरत से देश पर अभूतपूर्व संकट के बादल और सनातन को पुन: स्थापित करने का संकल्प दोहराते हैं। इसके बाद ये झोंपड़ी से महलों तक पहुंच जाते हैं। अफसोस इस बात का है कि जहाँ भारत की आध्यात्मिकता, सनातन की व्याख्या और जीवन की संपूर्णता के बारे में गंभीर ज्ञान, आत्मिक शक्ति और नेतृत्व क्षमता चाहिए, वहां रंगीन वस्त्रधारियोंए फूहड़ और महिलाओं के बारे में अपमानजनक भाषा बोलने वालों और विलासिता की वस्तुओं को भक्तों का प्रेम बताने वालों की भरमार है। इनकी शान ओ शौकत आम आदमी की मेहनत से कमाई पूंजी पर निर्भर है। अंध विश्वास को भक्ति का चोला पहनाकर, अनहोनी का डर और अनर्थ की आशंका से इन्हें चढ़ावे के तौर पर बेहिसाब धन मिलने लगता है। केवल उज्ज्वल भविष्य का सपना बेचकर ऐसे लोग मालामाल होते जाते है, कोई ऐसा व्यसन या शौक नहीं जो ये न करते हों। लड़कियों का यौन शोषण और बाल मज़दूरी इनके यहां प्रथा है। जब कहीं ये फंस जाते हैं तो अपनी राजनीतिक पहुंच से अपने बुरे कृत्यों को छिपाने की हर सम्भव कोशिश करते हैं, हालांकि कानून के लम्बे हाथों के कारण इनकी करतूतें अक्सर समाज के सामने आती रहती हैं।
अशिक्षा और राजनीति का वरदान : यह स्थिति आज़ादी से पहले भी थी लेकिन साठ के दशक से इसमें बहुत बढ़ौतरी हुई। सभी दलों के राजनीति के खिलाड़ियों को इनमें अपना भविष्य बनाने के गुण दिखाई दिए और उसके बाद तो देश में आश्रम, मठ खुलने लगे। सरकार ने भी इनके द्वारा किए गए ज़मीन के अवैध कब्ज़े की तरफ से आंखें मूंद ही नहीं लीं, बल्कि सभी प्रकार की सहायता भी दी। 70-80 के दशक में इनके कारनामे उजागर होना शुरू हुए। 
सनातन धर्म, भारतीय संस्कृति, प्राचीन सभ्यता और परम्पराओं का फायदा यह प्रचारित कर उठाया जाने लगा। यह ठग विद्या का यह शुरुआती दौर था, लूट-खसोट और लालच की कोई सीमा नहीं रही। जिस पर तनिक भरोसा हुआ, वही द़ागदार निकलने लगा, यह मुश्किल हो गया कि सच और झूठ में फर्क कैसे किया जाए। मीडिया की अपनी मजबूरियां होने से वे भी इस गोरखधंधे में शामिल होकर अपना हिस्सा लेने लगे। कैसा महसूस होता है, जब यह पता चलता है कि जो लोग आजीवन कारावास भोग रहे हैं, उनके दरबार में देश के पहली पंक्ति के नेता, व्यापारी, उद्योगपति कभी उनके पैर छूते थे। उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपस में होड़ लगी रहती थी। एक सज़ायफता को तो अभी हाल ही में उम्रकैद से रिहाई मिल गई है। जो जेल में हैं, उन्हें पेरोल देने और अपनी मज़र्ी से, अवधि समाप्त होने बावजूद, वापस आने की छूट है। इस बात को कौन नहीं जानता कि उसे इसलिए छोड़ा जाता है क्योंकि इनके पास इनके अनुयायिओं की संख्या उस इलाके के राजनीतिक प्रत्याशी की जीत या हार तय करती है। 
कैसे निपटा जाए : अब तो सब कुछ सोशल मीडिया और संचार तथा संवाद के अनेक माध्यमों से मठों, पीठों, मंडलों, अखाड़ों और अन्य धार्मिक स्थलों, सांस्कृतिक प्रतीकों तथा आस्था केंद्रों पर कब्ज़ा जमाए रखने की लालसा बीच चौराहे पर पाप की हांडी की तरह फूटने लगी है। अदालतों में मुकद्दमेबाज़ी हो रही है, श्रद्धालु असमंजस में हैं कि जिसे ईश्वर के समान समझा, वही दुष्कर्मी निकल रहा है। ऐसे दृश्य देखकर गुस्सा आता है कि जो स्त्री-पुरुष अपने माता-पिता को सम्मान नहीं देते, वे इन्हें प्रणाम ही नहीं करते बल्कि उनकी कही हर बात जो अक्सर अनुचित होती है, पूरा करने में अपना समय, धन और पूरी शक्ति लगा देते हैं। 
इस स्थिति का एक ही उपाय है स्वयं को शिक्षित करना और यह मांग करना कि हमारे बच्चों के स्कूल पाठ्यक्रम में ऐसे पाठ शामिल किए जायें जिनसे बचपन से ही जिस प्रकार गुड और बैड टच की बात सिखाते हैं, उसी तरह सनातन की आड़ में और धर्म की दुहाई देकर जो भ्रम फैलाया जाता है, उसका नीर-क्षीर विवेक यानी दूध का दूध और पानी का पानी कैसे किया जाए, का भी ज्ञान दिया जाए। चाहे कोई आपको नास्तिक कहे, सच के लिए किसी की परवाह ने करें, इस तरह आप एक गंभीर संकट से बच जाएंगे। बच्चे अक्सर अध्यापक का कहना माता-पिता से ज़्यादा मानते हैं तो वे पढ़ाई के दौरान बच्चों को ऐसे उदाहरण दें जिनसे वे सही और गलत के बीच भेद करना सीख सकें। यह भी नए भारत की पहचान होगी। 

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