चौरासी का चार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
इस विषयांतर से पुन: लौटते हैं अशोक विहार के उस ईटिंगजॉइन्ट पर जो अब तक की स्टोरी का केन्द्र था। रांची के उस लाइन होटल का संदर्भ दिमाग में कौंधते ही जिस आसन्न भय की बात में मन आई थी वह कुछ स्पष्ट होने लगी। आंखों-आंखों में संजय से बात हो गई। हमें अशोक विहार से शीघ्र ही यूनिवर्सिटी एरिया में किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाना चाहिए। यहां अशोक विहार में हम दोनों का जानने वाला कोई था नहीं। अपने ग्रुप के अन्य स्टूडेंट्स भी तो नहीं थे अशोक विहार में। अगर कोई ऐसी वैसी स्थिति पैदा होती है तो बिल्कुल अकेले होंगे क्योंकि सारे दोस्त तो उधर तीमारपुर-बीडी एस्टेट की तरफ रहते थे। तिमारपुर-बीडी एस्टेट का ध्यान आते ही बीरेंद्र और राकेश याद आ गए। अशोक विहार से पहले मैं विजय नगर में बीरेंद्र के साथ ही तो रहता था। और उसके पहले बीडी एस्टेट में, जहां राकेश अब भी रह रहा था।
तय हुआ हम तुरंत ही तिमारपुर के लिए निकल जाते हैं, वहां बीरेंद्र के साथ चर्चा के बाद निर्णय लेंगे कि आगे क्या करना है। विजय नगर छोड़ने के बाद मैं संजय के साथ अशोक विहार शिफ्ट कर गया था और बीरेंद्र तीमारपुर में दिल्ली सरकार के किसी कर्मचारी के क्वार्टर में सबलेटिंग बेसिस पर रहता था, देवनीति के साथ। देवनीति के घर जाने की वजह से बीरेंद्र भी उन दिनों अकेला था। चार साढ़े चार का वक्त होगा, जब हम बीरेंद्र के कमरे में पहुँचे थे, तीमारपुर के बिल्कुल आखिरी छोर पर, बालक राम बस स्टॉप के निकट। तीमारपुर मार्केट थोड़ी दूर था वहां से। आकाशवाणी ने श्रीमती गांधी की मृत्यु अभी भी घोषित नहीं की थी लेकिन यह सच्चाई अब तक छुपी नहीं रही थी। जैसे बीबीसी के हवाले से हम सब को पता लग चुका था, वैसे ही देश के हर कोने में खबर आग की तरह फैल चुकी थी। किन्तु इस आम हो चली खबर को भी आधिकारिक तौर पर गुप्त रखना प्रशासन की मजबूरी थी, जब तक वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती।
इंदिरा गांधी की मृत्यु और राजीव गांधी का अगले प्रधानमंत्री के रूप में मनोनयन और शपथ कार्यक्रम की सूचना आकाशवाणी और दूरदर्शन पर लगभग साथ ही आई। शाम में छ: बजे के आस-पास। देश को नया प्रधानमंत्री मिल रहा था, पर अनिश्चितता के साथ। अनुभव विहीन राजनीतिक रूप से अपरिपक्व प्रधानमंत्री इस विकट समय में क्या कर पाएगा? ऑपरेशन ब्लू स्टार का घाव किस रुप में भरेगा, कैसे भरेगा, भरेगा भी या नहीं! जो हुआ वो होना नहीं चाहिए था। इस पल ऐसे कई प्रश्न दिमाग में चल रहे थे।
किन्तु अधिक भय तो तात्कालिक प्रतिकार का था। उस क्षण तक प्रतिकार की आशंका मन को डरा रही थी। प्रतिकार हो ही, यह ज़रूरी नहीं था लेकिन अगर कुछ होता है तो उसका रूप क्या होगा, इसका अंदाजा भी नहीं था। हां शांति भंग न हो, कोई उपद्रव की ना सोचे, इस वास्ते एहतियातन प्रशासन निषेधाज्ञा तो लागू करेगा ही, यह अवश्यम्भावी था। इस सूरत-ए-हाल हमारी आगे की योजना तय होनी थी। निषेधाज्ञा जैसी कोई स्थिति बनती है, तो हम किस तरह अपना ख्याल रखेंगे? खाने-पीने तक के लिए बाहर नहीं निकल पाएंगे।
‘चलो राकेश के वहां चलते हैं’ तीनों के मुंह से करीब-करीब एक साथ निकला। राकेश बीडी एस्टेट की एक कोठी में रहता था। भ्रमित न हों, राकेश की अपनी कोठी नहीं थी, कोठी इन्द्र प्रकाश पाहूजा की थी, जिसका फर्स्ट फ्लोर उन्होंने स्टूडेंट्स को किराये पर दे रखा था। राकेश उसी फर्स्ट फ्लोर के एक कमरे में रहता था। तीमारपुर के सरकारी क्वार्टर्स, पूरी तौर पर एक्स्पोज्ड थे, दरवाजे सीधे सड़कों से लगे थे, बिना किसी चारदीवारी के। बीडी एस्टेट की ये कोठियां कतिपय अधिक सुरक्षित थी। पाहूजा साहब के स्वयं का दबदबा भी था उस एरिया में। फिर सुरक्षा की दृष्टि से यह और भी अच्छा था। और तो और राकेश वाली कोठी की सर्विस लेन में एक दुकान भी थी, जहां से राकेश ब्रेड, बटर, अंडे, पैकेट वाला दूध आदि लेता था। एक दो बार राकेश के साथ नाइट स्टे की अगली सुबह हम उस दुकान से ब्रेड बटर लेने गए भी थे। अपनी दुकान से सटी कोठी के सर्वेन्ट क्वार्टर में ही दुकानदार रहता था, उसी कोठी में उसकी पत्नी घर का काम करती थी।
‘चश्मेबद्दूर’ फिल्म के ‘सईद जाफरी’ के मल्टी-परपस कि ऑस्क, जहां ब्रेड ऑमलेट, बन ऑमलेट, चाय-इडली, दोसा आदि के अलावा पान-सिगरेट भी मिल जाता था, की प्रेरणा ‘लखनऊ ढाबा’ भी पास में ही था। अगर थोड़ी देर को भी यह खुले तो खाने-वाने को कुछ-ना कुछ मिल ही जाएगा। विषम परिस्थितियों में सर्वाइवल की दृष्टि से राकेश के रूम से उपयुक्त हम तीनों को उस वक्त कुछ और नहीं सूझा।
राकेश अपने रूम में ही था अपने रेडियो सेट से चिपका हुआ। सामान्य परिस्थियों में भी बीबीसी सुनना उसकी लत सी रही थी। तो आज जब आकाशवाणी से कुछ विशेष नहीं मिल रहा था, राकेश बीबीसी पूरी तन्मयता से सुन रहा था, हिन्दी सेवा ही नहीं, ‘वर्ल्ड न्यूज’ भी जो उस दिन श्रीमती गांधी की हत्या और राजीव गांधी का प्रधानमंत्री के रूप में चयन से अधिक ऑपरेशन ब्लू-स्टार और उसके ‘आफ्टरमाथ’ को उजागर कर रही थी। आज की घटना को ‘सिख समुदाय की सामूहिक पीड़ा’ के परिणाम के रूप में दर्शा रहा था, मात्र दो बॉडी गार्ड्स के कृत्य के रूप में नहीं। साथ ही अन्य समुदायों के संभावित ‘बैकलैश’ को भी। दिल्ली के कुछ कथित वफादार कांग्रेस नेताओं के हवाले से ‘बलिदान ज़ाया नहीं होगा’, ‘खून का बदला खून से लेंगे’ जैसे वक्तव्यों को बार-बार दुहराया जा रहा था, इन विदेशी सूचना तंत्रों द्वारा।
शाम में ही नए प्रधानमंत्री ने शपथ ले ली। लगा स्थिति नियंत्रण में रहेगी पर सिखों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं शुरू हो गई थीं। कई जगह से ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट आ रही थी। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और बिहार के कई शहरों से व्यापक हिंसक घटनाओं की सूचना आ रही थी। इन राज्यों के कई शहरों से सिख विरोधी दंगों की रिपोर्ट आने लगी थी। दिल्ली के अतिरिक्त अधिक प्रभावित क्षेत्रों में कानपुर, जबलपुर, बोकारो, राउरकेला आदि शहरों के नाम की चर्चा थी। इन घटनाओं ने राकेश के वहां हम चार दोस्तों के साथ रहने के निर्णय को उचित साबित कर दिया। (क्रमश:)