बहुपक्षीय शख्सियत थे ‘भारत रत्न’ भूपेन हज़ारिका
जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष
भारतीय संस्कृति और संगीत से लगाव रखने वालों के लिए आज 8 सितम्बर का दिन बहुत खास है। विशेषकर इस दिन के साथ असम के मेरे भाइयों और बहनों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। आज भारत रत्न डॉ. भूपेन हज़ारिका की जन्म जयंती है। वह भारत की सबसे असाधारण और सबसे भावुक आवाज़ों में से एक थे। यह बहुत सुखद है कि इस वर्ष उनके जन्म शताब्दी वर्ष का आरंभ हो रहा है। यह भारतीय कला-जगत और जन-चेतना की दिशा में उनके महान योगदानों को फिर से याद करने का समय है। भूपेन दा ने हमें संगीत से कहीं अधिक दिया। उनके संगीत में ऐसी भावनाएं थीं जो धुन से भी आगे जाती थीं। वह केवल एक गायक नहीं थे, वह लोगों की धड़कन थे। कई पीढ़ियां उनके गीत सुनते हुए बड़ी हुईं। उनके गीतों में हमेशा करुणा, सामाजिक न्याय, एकता और गहरी आत्मीयता की गूंज है।
भूपेन दा के रूप में असम से एक ऐसी आवाज़ निकली जो किसी कालजयी नदी की तरह बहती रही। भूपेन दा सशरीर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी आवाज़ आज भी हमारे बीच है। वह आवाज़ आज भी सीमाओं और संस्कृतियों से परे है। उसमें मानवता का स्पर्श है। भूपेन दा ने दुनिया का भ्रमण किया, समाज के हर वर्ग के लोगों से मिले, लेकिन वह असम में अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे। असम की समृद्ध मौखिक परम्पराएं, लोकधुनें और सामुदायिक कहानी कहने के तरीकों ने उनके बचपन को गढ़ा। यही अनुभव उनकी कलात्मक भाषा की नींव बने। वह असम की आदिवासी पहचान और लोगों के सरोकार को हर समय साथ लेकर चले।
बहुत छोटी उम्र से उनकी प्रतिभा लोगों को नज़र आने लगी। केवल पांच वर्ष की उम्र में उन्होंने सार्वजनिक मंच पर गाया। वहां लक्ष्मीनाथ बेझबरुआ जैसे असमिया साहित्य के अग्रदूत ने उनके कौशल को पहचाना। किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने अपना पहला गीत रिकॉर्ड कर लिया। लेकिन संगीत उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक पहलू था। भूपेन दा भीतर से एक बौद्धिक व्यक्तित्व थे। जिज्ञासु, साफ बोलने वाले, दुनिया को समझने की अटूट चाह रखने वाले। ज्योति प्रसाद अग्रवाला और विष्णु प्रसाद रभा जैसे सांस्कृतिक दिग्गजों ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला, और उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को और बढ़ावा दिया।
सीखने की यही लगन उन्हें कॉटन कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तक ले गई। वह बीएचयू में राजनीति शास्त्र के छात्र थे, लेकिन उनका अधिकतर समय संगीत साधना में बीतता था। बनारस ने उन्हें पूरी तरह संगीत की तरफ मोड़ दिया। काशी का सांसद होने के नाते मैं उनकी जीवन यात्रा से एक जुड़ाव महसूस करता हूं और मुझे बहुत गर्व होता है। उन्होंने अमरीका में कुछ समय बिताया। भूपेन हज़ारिका संगीत के साथ ही मां भारती के भी सच्चे उपासक थे। भूपेन दा के पास अमरीका में रहने का विकल्प था, लेकिन वह भारत लौट आए और संगीत साधना में डूब गए। रेडियो से लेकर रंगमंच तक, फिल्मों से लेकर एजुकेशनल डॉक्यूमेंट्री तक, हर माध्यम में वह पारंगत थे। जहां भी गए, नई प्रतिभाओं को समर्थन दिया।
भूपेन दा की जीवन यात्रा में ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। उनकी रचनाओं ने भाषा और क्षेत्र की सीमाएं तोड़ कर देश को एकजुट किया। उन्होंने असमिया, बांग्ला और हिन्दी फिल्मों के लिए संगीत रचा। उनकी आवाज़ में जो पीड़ा थी, वह बरबस हम सभी का ध्यान खींच लेती थी। ‘दिल हूम हूम करे’ में जो पीड़ा बहती है, वह सीधे दिल की गहराइयों को छू लेती है। और जब वह पूछते हैं, ‘गंगा बहती है क्यूं’, तो ऐसा लगता है मानो हर आत्मा को झकझोर कर जवाब मांग रहे हों।
भूपेन दा राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, फिर भी जनसेवा की दुनिया से जुड़े रहे। 1967 में वह असम के नौबोइचा से निर्दलीय विधायक चुने गए। यह दिखाता है कि लोगों को उन पर कितना गहरा विश्वास था। उन्होंने राजनीति को अपना करियर नहीं बनाया, लेकिन हमेशा लोगों की सेवा में जुटे रहे। भारत की जनता और भारत सरकार ने उनके योगदान का सम्मान किया। उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, दादासाहेब फाल्के अवार्ड समेत कई सम्मान मिले। 2019 में हमारे कार्यकाल के दौरान उन्हें भारत रत्न मिला। यह मेरे लिए और एनडीए सरकार के लिए भी सम्मान की बात थी।
मुझे 2011 का वह समय याद है जब भूपेन दा का निधन हुआ। मैंने टीवी पर देखा, उनके अंतिम संस्कार में लाखों लोग पहुंचे थे। हर आंख नम थी। जीवन की तरह मृत्यु पर भी उन्होंने लोगों को साथ ला दिया। इसलिए उन्हें जलुकबाड़ी की पहाड़ी पर ब्रह्मपुत्र की ओर देखते हुए अंतिम विदाई दी गई, वही नदी जो उनके संगीत, उनके प्रतीकों और उनकी स्मृतियों की जीवन रेखा रही है। अब यह देखना बहुत सुखद है कि असम सरकार भूपेन हज़ारिका कल्चरल ट्रस्ट के कार्यों को बढ़ावा दे रही है। यह ट्रस्ट युवा पीढ़ी को भूपेन दा की जीवन यात्रा से जोड़ने में जुटा है। भूपेन दा की सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने के लिए देश के सबसे बड़े पुल को भूपेन हज़ारिका सेतु नाम दिया गया है। 2017 में जब मुझे इस सेतु के उदाघटन का अवसर मिला, तो मैंने महसूस किया कि असम और अरुणाचल...इन दो राज्यों को जोड़ने वाले, उनके बीच की दूरी कम करने वाले इस सेतु के लिए भूपेन दा का नाम सबसे उपयुक्त है।
भारत भूपेन हज़ारिका जैसे रत्न से धन्य है। जब हम उनके शताब्दी वर्ष का आरंभ कर रहे हैं, तो आइए, यह संकल्प लें कि उनके संदेश को दूर-दूर तक पहुंचाएंगे। यह संकल्प हमें संगीत, कला और संस्कृति के लिए और काम करने की प्रेरणा दे, नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करे, भारत में सृजनात्मकता और कलात्मक उत्कृष्टता को बढ़ावा दे। मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएं।