शिव कुमार बटालवी के वारिस एवं यादें
गत सप्ताह मेरे घर में शिव कुमार बटालवी का बेटा मेहरबान तथा शिव पर फिल्म बनाने के लिए यत्नशील हनी त्रेहन इकट्ठे हुए। मेहरबान को भूपेन्द्र मलक लेकर आया था और त्रेहन को चंडीगढ़ प्रैस क्लब वाली अर्शदीप। शिव कुमार की यादों तथा बरकतों का ज़िक्र तो होना था, उस समय का लेखा-जोखा भी किया गया।
शिव कुमार बटालवी (8.10.37 से 7.5.73) अल्प आयु में बड़ी उपलब्धियां हासिल करने वाले कवि थे। 1960 से 1966 के सात वर्षों में उनके सात काव्य संग्रह ‘पीड़ा दा परागा’, ‘लाजवंती’, ‘आटे दीआं चिड़ियां’, ‘मैंनू विदा करो’, ‘बिरहा तूं सुल्तान’, ‘दर्दमंदां दीआं आही’ तथा ‘लूणा’ प्रकाशित हो चुके थे। इनमें अंतिम रचना ‘लूणा’ उनकी शाहकार रचना थी, जिसे भारतीय साहित्य अकादमी ने 1967 के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। तीस वर्ष का छोटी आयु में यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वही थे, आज तक भी वही हैं। चयन करने वाली तीन सदस्यीय ज्यूरी में करतार सिंह दुग्गल भी थे, जिनका वोट सबसे अहम माना गया। तब नई दिल्ली का निवासी होने के कारण मैं दुग्गल तथा शिव दोनों को जानता था। शिव दिल्ली जाकर मेरे या अमृता प्रीतम के घर ही रहते थे। उनका व्यवसाय पटवारी होने के कारण ही उनकी नवविवाहिता अरुण को मज़ाक में ‘मुंडा पंझीयां पिंडां दा पटवारी, अग्गे तेरे भाग लच्छिये’, लोक-बोली सुना कर छेड़ता था।
शिव की महिमा दिल्ली-दक्षिण ही नहीं देश-विदेश में हो रही थी। यह बात अलग है कि उनकी ब्रिटेन वाली यात्रा उन्हें ले बैठी। वहां के पंजाबी प्रेमियों ने उनकी कविता सुनने तथा आनंद लेने के लिए महंगी तथा बढ़िया व्हिस्की का प्रबंध किया होता, जो शिव को जबरदस्ती पिलाई जाती थी। उन्होंने शिव को इतनी शराब पिलाई कि वहां से लौटर कर वह पहले वाले शिव, नहीं रहे और अंत में 36 वर्ष की आयु में अलविदा कह गए।
यदि उनकी कमाई के पैसों से तोलना हो तो पच्चीस गांवों के पटवारियों से चार गुणा थी और महिमा के पक्ष से कई गुणा अधिक। यही कारण है कि उनके निधन के बाद पंजाबी विश्वविद्यालय ने उनकी पत्नी को सिर्फ नौकरी ही नहीं दी, रहने के लिए घर भी दिया। यहां रह कर उसने अपने बेटे मेहरबान तथा बेटी पूजा का पालन-पोषण किया तथा पढ़ाया-लिखाया। शिव के निधन के समय मेहरबान पांच वर्ष का तथा पूजा उससे डेढ़ वर्ष छेटी थी। आज वही पूजा अमरीका के शिकागो शहर में परिवार सहित आनन्द ले रही है और मेहरबान कनाडा के कैलगरी शहर में। मेहरबान अब पचपन से ऊपर है। शरीरिक ढांचा तथा दिख शिव वाली।
मेरे पास शिव तथा शिव की कविता बारे बहुत-सी बाते ंहैं, परन्तु ताज़ा बात का अंत मैं करतार सिंह दुग्गल के घर की 1967 की उस महफिल से करता हूं जिसका ज़िक्र मैंने पहले कभी नहीं किया। यह महफिल दुग्गल ने शिव को निवाजने के लिए रखी थी जिसमें प्रीतम सिंह स़फीर, अली सरदार ज़ाफरी, सज़्ज़ाद ज़हीर, कुलवंत सिंह विक्र आदि दो दर्जन महारथी उपस्थित थे। दुग्गल ने शराब नहीं पीने के बावजूद बढ़िया व्हिस्की ला रखी थी। सभी ने शाम के आठ बजे दुग्गल के पटौदी हाऊस वाले घर पहुंचना था।
दुग्गल समय के पाबंध थे। उन्होंने साढ़े आठ बजे तक इंतज़ारन किया, परन्तु शिव नहीं आए। दुग्गल ने खाना लगवाया तथा सभी ने शिव को याद करते हुए खाया। जब वहां से चलने लगे तो शिव तथा उसका कार वाला मित्र पहुंच गए, दोनों ने पी हुई थी।
दुग्गल ने शिव को नालायक कह कर खाना खिलाए बिना लौटा दिया। मेरा घर पंडारा रोड कालोनी में दो मील की दूरी पर था। मैंने अपनी कार उनकी कार के पीछे लगाई और उन्हें ढाबे से खाना खिला कर अपने घर ले गया। शिव कुमार रात भर सो नहीं सके। सुबह पता चला कि वह कोई गीत लिखते रहे जो एक तरह का माफीनामा था। उसका नाम था ‘एक गीत का जन्म।’ उसकी पंक्तियां तो मुझे अब याद नहीं परन्तु मैं लेख का अंत उनके इस गीत की दो पंक्तियों से करता हूं :
अज्ज दिन चढ़िया तेरे रंग वरगा
तैनूं चुम्मण पिछली संग वरगा
है किरणां दे विच्च नशा जिहा
किसे छींबे सप्प दे डंग वरगा
प्राकृतिक आपदा तथा मानवीय साझ
मैं नब्बे वर्ष का हो गया हूं, परन्तु अपनी होश में मैंने प्राकृतिक आपदा का वह दृश्य नहीं देखा, जो इस वर्ष की बरसात ने पेश किया है। जगह-जगह बादल फट रहे हैं और बाढ़ का पानी पेड़-पौधों, कच्चे-पक्के घरों तथा पशु धन को अपनी ज़द में ले रहा है। नावों की कमी हैलीकाप्टर भी पूरी नहीं कर रहे। व्यक्ति ही व्यक्ति का दारू है। ऊंचे घरों वाले निचले वालों का दुख बंटा रहे हैं।
मेरी आयु के लोगों ने इस तरह का प्रकोप 1947 के बाद देखा तो था, परन्तु तब आज-कल जैसा कहर नहीं ढहा था। इस बार पूर्वी पंजाब में ही नहीं, पाकिस्तानी पंजाब का भी यही हाल है।
अंतिका
(नज़ीर कैसर)
उस तों रब्ब इबादत मंगे,
रब्ब तों रहिमत मंगे ओह
दोहां दे हत्थां विच्च कासा,
किहड़े पासियों लन्घां मैं।