चिकित्सा और शिक्षा के बाज़ारीकरण पर अंकुश लगना ज़रूरी
एकदम शत प्रतिशत, श़ुद्ध 24 केरेट का खेल चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में खेला जा रहा है। तेजी से बढ़ाते चिकित्सा एवं शिक्षा के बाज़ारीकरण से यह बात सिद्ध हो चुकी है। पिछले बीस वर्षों में देश में लाखों की संख्या में निजी क्षेत्र लग्जरी ट्रामा सेन्टर, बीमारी विशेष के स्पेसलिस्ट चिकित्सालयों की स्थापना, ऐसी एवं सर्व सुविधायुक्त फाइव स्टार संस्कृति से परिपूर्ण प्ले स्कूल, टेक्निकल कालेजों ने चिकित्सा एवं शिक्षा के महत्व को कम कर इसे मुनाफे के व्यवसाय में तब्दील कर दिया है। इस बात से न तो सरकार, न ही आम जनता अनभिज्ञ है, बल्कि उनके सामने इसका विकल्प नज़र नहीं आ रहा है। सरकार के सरकारी चिकित्सालयों और सरकारी शिक्षा केन्द्रों की दशा-दिशा और दुर्दशा का फायदा देश के चंद पूंजीपतियों, राजनेताओं, कतिपय नौकरशाहों द्वारा उठाया जा रहा है।
देश की हर प्रादेशिक राजधानी और मेट्रों शहरों में खुलने वाले निजी क्षेत्र के विशेष शैली और सुविधाओं वाले निजी अस्पतालों एवं स्कूल, कालेजों के मालिकाना हक में कही न कही कोई न कोई राजनेता, मंत्री, सांसद, विधायक, नौकरशाह का नाम जुड़ा है। यही नहीं चिकित्सा के क्षेत्र में कतिपय सीएमओ की सेवा में रहते एवं सेवानिवृत्ति के बाद की भागीदारी इस बात का संकेत है कि पैसे की हवस के आगे इन लोगों ने समाजसेवा और देश विकास के साथ खिलवाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
शिक्षा और चिकित्सा का जिस तेज़ी से बाज़ारीकरण हुआ है, उसने आम आदमी को बदहाली के कगार पर पहुंचाया है। महंगी शिक्षा ने जहां अभिभावकों का बजट हिला दिया है, वहीं चिकित्सा के नाम पर मुनाफाखोरी ने लाखों परिवारों को गरीबी के दलदल में धकेल दिया है। इस सम्बंध में आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत द्वारा दी गई चेतावनी सत्ताधीशों की आंख खोलने वाली है। इंदौर में एक किफायती कैंसर देखभाल केंद्र का उद्घाटन करते हुए भागवत ने चेताया कि भारत में स्वास्थ्य व शिक्षा को सामाजिक दायित्व मानने की परम्परा रही है। दुर्भाग्य से आज स्कूल-कॉलेज और अस्पताल लाभ संचालित उपक्रमों में तब्दील हो गए हैं। मुनाफाखोरी की अंतहीन लिप्सा ने कथित गुणवत्ता वाले स्कूलों व अस्पतालों को आम आदमी की पहुंच से दूर किया है। उन्होंने कॉर्पोरेट शैली के कथित कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआर के जुमले के बजाय जन-कल्याण के धार्मिक सिद्धांतों के अनुसरण की अपील करते हुए स्वास्थ्य-शिक्षा को सामाजिक दायित्व का निवर्हन करने का आग्रह किया था।
चिकित्सा और शिक्षा की वर्तमान स्थिति नि:संदेह,यह चिंता हमारे समय की विसंगतियों पर तीखा प्रहार करती है। आज आम भारतीय परिवारों पर स्वास्थ्य सेवाओं का भारी वित्तीय बोझ बढ़ रहा है। विडम्बना यह है कि इस खर्च का छोटा हिस्सा ही सरकारी खज़ाने से वहन किया जाता है, जो कि चिकित्सा खर्च का महज 17 फीसदी है। करीब 82 फीसदी चिकित्सा खर्च लोगों को मुश्किल हालात में वहन करना पड़ता है। आज देश की बड़ी आबादी गैर-संक्रामक रोगों, मसलन हृदय रोग, मधुमेह व उच्च रक्तचाप आदि से जूझ रही है। इनकी जांच, चिकित्सकीय परामर्श और उपचार के लिये मरीज़ों को एक बड़ी रकम चुकाने को मजबूर होना पड़ता है। जो कि बीमा योजनाओं के द्वारा बमुश्किल ही पूरी की जाती है। इन स्थितियों के चलते अस्पताल में भर्ती होने के बाद कई परिवार जीवन भर के लिये कज़र् में डूब जाते हैं। तो कई परिवार हमेशा के लिये गरीबी की दलदल में धंस जाते हैं।
सरस्वती के मंदिर आज व्यापार के केंद्र बन गये हैं। अभिभावकों को उल्टे उस्तरे से मूंडने के लिये नये-नये तौर-तरीके निकाले जा रहे हैं। ट्यूशन, एडमिशन, बिल्डिंग फीस, ट्रांसपोर्ट जैसे तमाम मदों के नाम पर अभिभावकों का दोहन किया जाता है। इतना ही नहीं किताबें व ड्रेस तक शिक्षण संस्थानों की हिस्सेदारी वाली दुकानों से खरीदने को बाध्य किया जाता है। यहां तक कि आम शहरों में, माता-पिता प्रति बच्चे पर सालाना साठ हज़ार से भी ज्यादा खर्च कर रहे हैं।
कुछ अभिभावक तो अपनी आय का लगभग आधा हिस्सा ट्यूशन और शिक्षा से जुड़े मदों पर खर्च कर रहे हैं। फीस, कापी-कितबें और ड्रेस का विवाद लगभग हर नए सत्र के दौरान देश के किसी न किसी शहर और नामी स्कूलों देखा जाता है और विरोध भी होता है, लेकिन फिर अभिभावक मजबूरी में अपना दोहन कराता है। हैदराबाद के एक स्कूल में नर्सरी में दाखिले की सालाना फीस अढ़ाई लाख रुपये बतायी गई। जिससे अभिभावकों में भारी रोष व्याप्त हो गया। जिसके बाद महंगी होती शिक्षा को लेकर नई बहस छिड़ गई। दिल्ली, लखनऊ, मुम्बई जैसे देश के तमाम शहर ऐसे है जिनमें छोटी छोटी कक्षाओं की सलाना फीस लाखों रुपये है। नि:संदेह, बढ़ती फीस के ये आंकड़े शिक्षा के बढ़ते व्यवसायीकरण को भी रेखांकित करते हैं। पिछले दिनों दिल्ली के निजी स्कूलों में अनाप-शनाप फीस बढ़ाए जाने के खिलाफ अभिभावक सड़कों पर उतरे। जिसने दिल्ली सरकार को बाध्य किया कि इस दिशा में सकारात्मक पहल करे। इस आंदोलन के उत्साहजनक परिणाम सामने आए।