चौरासी का चार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
अगली सुबह हमने सोचा, सर्विस लेन वाली दुकान से ब्रेड, बटर, अंडे, दूध आदि ले लें, कुछ अधिक मात्रा में ही। कर्फ्यू तो लग चुका था, लेकिन हमें लगा पीछे वाली दुकान संभवत: खुली होगी, इस बैक लेन में इसे कौन टोकेगा। दुकान खुली मिल भी गई। देखते ही दुकानदार बोलने लगा, ‘बस आप जैसे ही लोगों के लिए आज यह रिस्क उठाया है मैंने। कोठी वालों के घर में तो राशन-पानी महीनों के लिए पड़ा रहता है। पर आप जैसे स्टूडेंट्स क्या करेंगे? ढाबे तो बंद हो जाएंगे। फिर यही सोचा कि ब्रेड, अंडे आदि ले लें तो कम-से-कम दो-चार दिन निकल जाएगा। चलो जल्दी करो, जो कुछ भी लेना है, ले लो, फिर पता नहीं दुकान कब खुल पाएगी। दो सिपाही चक्कर लगा चुके हैं, मैंने उन्हें समझा-बूझा कर टाल दिया, यह कह कर कि एक घंटे में बंद कर दूंगा, डेली वाले ग्राहक तब-तक अपना सामान ले लेंगे’।
हमारे लिए एक पल में यह निर्णय लेना कि कौन सी चीज किस मात्रा में ले ली जाए, आसान नहीं था।
फिर भी निर्णय तो लेना ही था। नवंबर शुरू हो चुका था। मौसम में हल्की ठंड का अहसास होने लगा था। दूध तो फिर भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा, पर मक्खन बिन फ्रिज भी इस मौसम में पिघल कर नहीं बहेगा। अंडे भी शायद जल्दी खराब ना हों और ब्रेड हफ्ते दिन तो चल ही जाएगा, बिना फंगस लगे। हमने फटाफट दो दर्जन अंडे, ब्रेड के चार ल़ोफ, 100 ग्राम वाली मक्खन की दो टिकिया, दो लीटर दूध का आदेश दे दिया लेकिन ब्रेड अंडे पर जिंदगी कितने दिनों कटेगी? यह सोचते ही लगा कि कुछ चावल, दाल, आलू, नमक, मसाला आदि भी ले लेना चाहिए। राकेश के कमरे में स्टोव था और यूटेन्सिल के नाम पर एक छोटा कुकर, एक सौसपैन, दूध लाने वाला डोल और एकाध प्लेट। फिर खिचड़ी-चोखा या चावल-एगकरी या फिर कभी चावल दाल चोखा तो बन ही जाएगा। चोखा, एगकरी या उबली आलू की तरी वाली सब्जी की सोच कर सरसों का तेल लेना ज़रूरी हो गया। और स्टोव के लिए मिट्टी का तेल भी।
मिट्टी के तेल के लिए राकेश के पास दो लिटर की जरिकेन तो थी, पर सरसों तेल तो कभी इस्तेमाल करता नहीं था कि उसके लिए कोई डिब्बा या बोतल रहे उसके पास। उन दिनों तेल के बोतल बाज़ार में आए भी नहीं थे। कोल्हू ब्रांड तेल टिन के डिब्बे में आता था लेकिन महंगा होने के कारण हर दुकान में मिलता नहीं था। पीछे की गली की दुकान सर्वेन्टस क्वार्टर में रहने वालों को ही कैटर करती थी और हम जैसे कुछ स्टूडेंट्स को, कोठियों को नहीं, तो यहां वह टिन वाला कोल्हू ब्रांड तेल मिलना संभव ही नहीं था। वह तेल का बड़ा टिन, 18 लीटर वाला ही रखता था। ग्राहक अपना बोतल लेकर आते थे और दुकानदार माप कर उसमें डाल देता। दुकानदार को जब हमारी उलझन का पता चला, तो उसने अपने घर से कांच की बोतल का इंतजाम कर उसमें सरसों तेल हमें दे दिया।
तकरीबन हफ्ते भर की चीजें लेकर हम कमरे में आ गए। दिल किया कि कमरे में सामान रख कर, लखनऊ ढाबा चलें। खुला मिला तो आज कुछ अच्छा खा लेंगे, पता नहीं फिर कब तक सेल्फ कुकिंग पर डिपेंड करना पड़े। लेकिन लखनऊ ढाबा कहां खुला मिलता, वो इस किरयाने वाली दुकान की तरह पीछे की गली में थोड़े ही था। वह तो बीडी एस्टेट को माल रोड से जोड़ने वाली मुख्य सड़क लखनऊ रोड के बीचोबीच अवस्थित था। इस रोड के नाम पर ही इस ढाबा का नाम था। आधे रास्ते से ही उसका बंद शटर दिख गया और हम वापस हो लिए।
लखनऊ ढाबा का ख्याल आते ही लगा था कि सुबह का चाय-नाश्ता बनाने से जिम्मा छूट गया पर वह नहीं हो पाया। कमरे में वापस आकर चाय बनी और चाय की चुस्कियों के साथ माहौल की गंभीरता और अपनी रणनीति पर चर्चा शुरू हो गई। नाश्ते को लेकर कोई अधिक चिंता थी नहीं, अंडे उबल जाएंगे और ब्रेड-मक्खन के साथ बॉयल्डएग परफेक्ट नाश्ता हो जाएगा। जलपान के साथ चाय का दूसरा राउंड भी हो जाएगा। एग उबलने के लिए रखते हुए चर्चा आगे बढ़ी, ‘क्या लगता है माहौल जल्दी काबू में आ जाएगा?’ उस समय तो त्वरित प्रतिक्रिया तो यही थी, ‘पता नहीं’, पर स्थिति की गंभीरता समझ में आते देर नहीं लगी।
अंडे उबाल मार रहे थे, फड़फड़ाहट की ध्वनि के साथ। मित्रों की चर्चा में भी उफान आने लगा था। युवा नेता के ‘क्विक डिसीजन’ की क्षमता को हाईलाइट करते हुए संजय ने कहा, ‘स्थिति जल्दी ही नियंत्रण में होगी। मुझे नहीं लगता है कि घबराने वाली कोई बात है।’ संजय जिसके लिए श्रीमती गांधी भरोसे का पर्याय थीं और कांग्रेस धर्म का, उसके मन में उनके लिए अगाध श्रद्धा थी। उसने राष्ट्रपति की त्वरित और दूरदर्शी सोच को सराहा। बोला, ‘प्रॉब्लम तब होती जब अगले पीएम के लिए निर्णय में देरी होती, पर ज्ञानी जी ने अभूतपूर्व सूझ-बूझ का परिचय दिया है। अगर राजीव गांधी की जगह और कोई भी नाम होता, तो मतैक्य नहीं हो पाता और देश राम भरोसे हो जाता। ‘किन्तु वस्तुस्थिति संजय के विश्वास के अतिरेक से लबरेज इस विशेषज्ञ राय के विपरीत थी। देश की सड़कें मनचलों और उपद्रवियों का क्रीड़ागाह बनने लगी थीं।
सिखों पर हमले और उनकी दुकानें लूटे जाने की छिट-पुट घटनाओं की सूचना आने लगी थी। सिखों पर हमले की रिपोर्ट बराबर आ रही थी। पुलिस और प्रशासन व्यस्त थे, पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन और अन्त्येष्टि की व्यवस्था में। काफी नामी-गिरामी लोग आने वाले थे, दर्शन के लिए भी और अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने के लिए भी। उसकी व्यवस्था के साथ आगंतुकों की सुरक्षा की कड़ी चुनौती थी प्रशासन के समक्ष। खासकर श्रीमती गांधी की हत्या के कारणों को देखते हुए। फिर सड़कों और बाज़ारों की शांति की किसी को क्या फिक्र! हम बाहर निकल कर वास्तव में क्या घट रहा था वह देख तो पा नहीं रहे थे किन्तु छन-छन कर जो खबरें पहुंच रहीं थीं, कुछ रेडियो के माध्यम से और कुछ दुस्साहसी दोस्तों से जो हिम्मत कर बाहर का हाल टटोलने निकल पड़ते, उससे स्थिति की गंभीरता का अहसास हो रहा था। एक नवम्बर की सुबह से स्थिति अति गंभीर हो गई थी। (क्रमश:)