बाल कलाकार से करियर की शुरुआत करने वाली  मुमताज

ईरानी मूल की सरदार बेगम हबीब आगा का विवाह बहुत कम आयु में एक अन्य ईरानी अब्दुल समीद अस्करी से हुआ था। दोनों मुंबई में ही रहते थे। सरदार बेगम जब मात्र 16 बरस की थीं तो अस्करी ने उन्हें दो बेटियां पैदा हुईं (मुमताज़ व मलका) इसके बाद वह अपनी पत्नी को तलाक देकर मुंबई छोड़कर हैदराबाद चले गये। अब मुमताज़ की परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी मां, नानी व मौसी पर आन पड़ी। बाद में मुमताज़ ने इस व्यवस्था के लिए ‘एक बेटी और तीन मांएं’ के शब्द इस्तेमाल किये थे। बहरहाल, इतने बड़े परिवार का भार उठाने के लिए सरदार बेगम के पास पर्याप्त पैसे न थे। इस कमी को पूरा करने के लिए वह नाज़ नाम रखकर फिल्मों में छोटी छोटी भूमिकाएं करने लगीं लेकिन यह भी पर्याप्त न था। उन्होंने दूसरी शादी कर ली और दो बेटों को जन्म दिया, एक का छुटपन में निधन हो गया, दूसरा शाहरुख अस्करी अब भी मुंबई में रहता है। लेकिन यह सहारा भी आर्थिक तंगी दूर करने के लिए काफी न था। इसलिए मुमताज़ को बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में आना पड़ा।
31 जुलाई, 1947 को जन्मी मुमताज़ ने मात्र 5 वर्ष की आयु में फिल्म ‘संस्कार’ के लिए पहली बार कैमरा का सामना किया। यह 1952 की बात है। इसके बाद अनेक फिल्मों जैसे ‘सोने की चिड़िया’ (1958) आदि आयी जिनमें वह बाल कलाकार के रूप में थीं। बाल कलाकार से लीड कलाकार का सफर बहुत कठिन होता है। बहुत तो बीच में ही गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाते हैं (राजू, जूनियर महमूद आदि), लेकिन कुछ अपने परिश्रम व लगन से सफलता को भी दामन से लगा लेते हैं (नीतू सिंह, उर्मिला मातोंडकर, मुमताज़) ऐसी ही कलाकार थीं।
मुमताज़ जब बड़ी हुईं तो कोई उन्हें हीरोइन लेने के लिए तैयार न था। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक्स्ट्रा के तौर पर काम करने लगीं (वल्लाह क्या बात है, स्त्री, सेहरा आदि), फिर छोटे-छोटे रोले मिलने लगे (मुझे जीने दो, सूरज, हमराज़, आदि), ऐसे में खूबसूरत, चुलबुली व प्रतिभाशाली मुमताज़ पर दारा सिंह की निगाह पड़ी, जो एक्शन फिल्में बनाया करते थे। उन्होंने मुमताज़ को अपनी हीरोइन बनाया। दोनों ने साथ-साथ 16 फिल्में कीं, जिनमें से 10 सुपरहिट रहीं, जैसे ‘टाज़र्न’, ‘सिकंदर-ए-आज़म’ आदि और मुमताज़ स्टंट फिल्म हीरोइन के रूप में मशहूर हो गईं। हालांकि उन्होंने फिल्मों में कभी स्टंट नहीं किया। एक स्टंट फिल्म हीरोइन के साथ कोई मुख्यधारा का हीरो काम करने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि उन दिनों एक्शन फिल्मों को बी ग्रेड फिल्म समझा जाता था। मुमताज़ के लिए संघर्ष अब भी जारी था। उन्हीं दिनों वी शांताराम अपनी बेटी राजश्री को लेकर ‘बूंद जो बन गयी मोती’ फिल्म बना रहे थे, इसमें मुमताज़ को मॉडर्न आउट फिट में एक गाने पर डांस करना था, जिसे आजकल आइटम सोंग कहते हैं। हुआ यह कि राजश्री ने शादी कर ली और फिल्में छोड़ने का फैसला किया। शांताराम ने मुमताज़ को मुख्य भूमिका में लेने का निर्णय लिया। लेकिन फिल्म के नायक जितेन्द्र ने ‘स्टंट फिल्म हीरोइन’ मुमताज़ के साथ काम करने से इंकार कर दिया। शांताराम को यह बात पसंद न आयी। उन्होंने जितेन्द्र से कहा कि वह खुद फिल्म छोड़कर जा सकते हैं, उनकी जगह किसी दूसरे हीरो को ले लिया जायेगा, लेकिन हीरोइन तो मुमताज़ ही रहेंगी। जितेन्द्र ने अपनी जिद छोड़ दी। इसके बावजूद भी मुमताज़ का टॉप हीरोइन बनने का सपना अधूरा ही रहा क्योंकि मुमताज़ के साथ काम करने से इंकार करने वाले हीरो की सूची बहुत लम्बी थी। मसलन शशि कपूर ने फिल्म ‘सच्चा झूठा’ को इसलिए छोड़ दिया था कि उसमें मुमताज़ हीरोइन थीं। इस बीच महमूद मुमताज़ के लिए मसीहा बनकर उभरे। महमूद मुमताज़ की कुछ तस्वीरें व फिल्मों के अंश लेकर दिलीप कुमार के पास पहुंचे और उनसे आग्रह किया कि वह इस लड़की को एक चांस दें। 
दिलीप कुमार ने फिल्मों के अंश देखे और कहा, ‘लड़की सुंदर व प्रतिभाशाली है और नाचती भी अच्छा है।’ अपने इसी निष्कर्ष के तहत दिलीप कुमार ने ‘राम और श्याम’ में मुमताज़ को अपनी हीरोइन बना लिया। अब जब मुमताज़ को दिलीप कुमार ने अपनी हीरोइन बना लिया तो किसकी हिम्मत थी कि उनके साथ काम करने से इंकार कर दे। ‘चोर मचाये शोर’ के लिए शशि कपूर ने जिद करके मुमताज़ को अपनी हीरोइन लिया। इसी तरह शुरुआती इंकार के बाद राजेन्द्र कुमार (तांगेवाला), धर्मेन्द्र (लोफर, झील के उस पार) आदि भी मुमताज़ के साथ काम करने के लिए मजबूर हुए। राजेश खन्ना के साथ मुमताज़ ने हिट पर हिट 10 फिल्में दीं, बिंदिया चमकेगी.. और वह टॉप की हीरोइन बन गईं, जो उस समय सबसे ज्यादा फीस लिया करती थीं, साढ़े सात लाख रुपये, जो बहुत बड़ी रकम थी। सावन कुमार टाक जब मीना कुमारी के साथ ‘गोमती के किनारे’ बना रहे थे तो आर्थिक संकट के कारण उनके पास मुमताज़ को देने के लिए पूरे पैसे न थे। मीना कुमारी बहुत बीमार थीं, उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि अब वह अधिक जीने वाली नहीं हैं, उन्होंने सावन की मदद करने के लिए फीस के बदले में मुमताज़ के नाम अपना बंगला कर दिया। मीना कुमारी के निधन के बाद यह बंगला मुमताज़ को मिल गया, जिसमें आज भी उनकी बहन का परिवार रहता है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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