डिजिटल अपराध में जकड़े बचपन को मुक्त कराने की चुनौती

‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट ने बच्चों पर बढ़ते अपराधों पर फिर से सोचने पर विवश किया है। पिछली रिपोर्ट के मुताबिक इस बार करीब 10 फीसदी आपराधिक मामलों बढ़ोतरी बताई गई है। वर्ष 2023-24 में बच्चों के विरुद्ध  देश भर में 1,77,335 आपराधिक मामले दर्ज हुए। ये मामले हिन्दी पट्टी वाले क्षेत्रों में ज्यादा रहे जिनमें उत्तर प्रदेश, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, बिहार, उत्तराखंड जैसे राज्य कतार में सबसे उपर हैं। दरअसल ये मामले सामान्य नहीं, असामान्य हैं।  असामान्य का मतलब, ऑनलाइन शोषण और साइबर ग्रूमिंग। इन तकनीकों ने नए सिरे से नए अपराध को जन्म दे डाला है। तस्करों के चंगुल में नौनिहाल ऑनलाइन या ग्रूमिंग के जरिए आसानी से फंस रहे हैं। चाइल्ड क्राइम की इस नई तकनीक को कानून ने ‘डिजिटल अपराध’ का नाम दिया है। बाल अपराधों में डिजिटल खतरों का बढ़ना नि:संदेह चिंताजनक कहा जाएगा। इन बढ़ते अपराधों पर लगाम लगाने को लेकर सरकारी तंत्र भी हांफने लगा है। केंद्र सरकार की पहल पर विभिन्न राज्यों में अलग से साइबर थानों को स्थापित करना, डिजिटल क्राइम प्रोटेक्शन विंग का बनाना, पुलिसकर्मियों की अलग से तैनाती के अलावा विदेशी तकनीकों का इस्तेमाल करने के बावजूद भी सफलता नहीं मिल रही।
साल-दर-साल चाइल्ड क्राइम घटने के बजाय बढ़ रहे हैं। इन नाकामियों पर हम सिर्फ  शासन-प्रशासन को ही दोषी नहीं ठहरा सकते बल्कि समाज की सामूहिक असफलता भी बड़ा कारण है। ऐसे अपराधों को रोकने में सामाजिक चेतना शांत है। अब उनका जगना बेहद ज़रूरी हो गया है। अपराध होते देखकर भी लोग मुंह फेर लेते हैं, लेकिन इतना ध्यान रहे, नए ज़माने का ये नया अपराध कभी भी, कहीं भी, किसी के चौखट पर दस्तक दे सकता है। इसलिए सब को मिलकर इसके खिलाफ लड़ना होगा। बाल तस्करी देश के हर कोने से हो रही है। वैसे, देखा जाए तो बाल अपराध सर्वाधिक घरों से ज्यादा पनप रहे हैं। मौजूदा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी इसी ओर इशारा करती है। चाइल्ड क्राइम में तकरीबन 90 फीसदी भागीदारी अपनों की बताई गई है। छोटे बच्चों से ज़बरदस्ती करने के मामलों में रिश्तेदार अन्य किसी अन्य करीबी का होना ही बताया गया है। बाल अपराधों को घटित करने में चाहे बाहरी हो या घर का, सभी डिजिटल का सहारा लेते हैं।
एनसीआरबी की  मानें तो हैदराबाद, देहरादून, लखनऊ, बरेली व चंडीगढ़ में कुछ ऐसे केस रिपोर्ट हुए हैं, जहां अपनों ने ही अपने बच्चों को फोन में अश्लील फिल्में दिखाकर उनका शोषण किया। इन घटनओं को देखकर ही लगता है कि बच्चों पर डिजिटल खतरा अब ज्यादा मंडराने लगा है। बचाव के लिए बच्चों पर निगरानी ही समाधान का पहला रास्ता है। बच्चे किसी भी क्राइम जैसे हिंसा, शोषण, अपहरण और यौन अपराधों की भेंट न  चढ़ें, उसके लिए चौबीसों घंटे बच्चों के प्रति चौकन्ना रहना होगा। जितना हो सके बच्चों को फोन मुहैया न करवाएं तो बेहतर होगा। एनसीआरबी के आंकड़े न सिर्फ  सोचने पर मजबूर कर रहे हैं बल्कि शर्मसार भी कर रहे हैं। पिछले वर्ष दर्ज पॉक्सो मामलों में इस बार एक तिहाई बच्चियों का यौन शोषण उनके अपनों ने ही किया। 3,569 मामलों में 3,224 में परिवार के सदस्य ही आरोपी रहे। 
बढ़ते बाल अपराध पर केंद्रीय सरकार से लेकर पॉक्सो अधिनियम, जुवेनाइल जस्टिस एक्ट व बाल अधिकार आयोग, निपसिड जैसे विभाग भी चिंतित और रोकने को लेकर प्रयासरत हैं, लेकिन उतनी सफलता नहीं मिल रही जितनी मिलनी चाहिए। बहरहाल, बाल अपराधों को रोकने का समाधान क्या हों? ये ऐसा विषय बन चुका है जिस पर विमर्श लम्बे वक्त से जारी है। अब तक के विमर्श से जो निष्कर्ष निकला, उसमें मुकम्मल रूप से दो कारण तेजी से उभरें। पहला, एकल परिवार के संस्कारों में तेज़ी से होता बिखराव, वहीं दूसरा पारिवारिक एकता में आयी गिरावट से अपराध में वृद्धि हुई है। निश्चित रूप से डिजिटल खतरे बच्चों पर मानसिक और भावनात्मक असर डाल रहे हैं। जो बच्चा इन अपराधों का पीड़ित रहा हो, उससे जल्द बाहर निकलना उसके लिए उतना आसान नहीं होता। प्रत्येक अभिभावक को अपने व्यस्ततम समय से थोड़ा समय निकालकर अपने बच्चों से संवाद करना चाहिए। हर प्रकार की बातें उनसे साझा करते रहना चाहिए, बच्चों को पारिवारिक कलहों से दूर रखना चाहिए। बच्चों के साथ दोस्ताना वातावरण रखना चाहिए। (अदिति)

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