पंजाब का संघर्ष और नागा आन्दोलन का स़फर
अरे ये बात और है कि तेरा नुक्ता-चीं हूं मैं ए दिल,
मगर कुछ बातों में तारीफ के काबिल भी तुम्हीं हो।
यह सच है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हिन्दू राष्ट्र-पक्षीय नीतियों तथा घोर राष्ट्रवाद जो देश के संघीय ढांचे का निरन्तर क्षरण कर रहा है और, ‘एक राष्ट्र तथा शेष सब कुछ भी एक’ के संकल्प की मैंने लगातार आलोचना की है, परन्तु यह भी सच है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में कुछ विशेष खूबियां भी हैं, जिनकी तारीफ करना भी बनता है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह दुविधा में कदम नहीं उठाते। एक बार वह जिस चीज़ को लागू करने का मन बना लेते हैं, फिर वह उसे लागू करने का प्रत्येक प्रयास करते हैं और किसी नुकसान या तनकीद की परवाह नहीं करते। चाहे मेरी उनकी इस सोच एवं काम करने के उनके तरीके से सहमति नहीं, परन्तु उन्होंने अपनी दृढ़ता तो कई बार दिखाई ही है। जैसे उन्होंने कश्मीर में धारा 370 खत्म करने, जी.एस.टी. लागू करने, नोटबंदी तथा ‘एक देश-एक कानून’ के कई अलग-अलग नमूने पेश किए हैं। यही कारण है कि उन्होंने 1947 से भी पहले से चले आ रहे नागा संकट के समाधान के लिए अपने प्रधानमंत्री बनने के शुरुआती दौर में ही नागा समस्या से निपटने के लिए बातचीत की मेज़ पर आकर 2015 में ही नैशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नागालिम-इसाक मुइवाह (एन.एस.सी.एन.-आई.एम.) के नेता थुइलिंग मुइवाह के साथ मामले के समाधान के लिए एक फ्रेमवर्क एग्रीमैंट ( अर्थात समझैते की रूपरेखा क्या होगी बारे समझौता) करने का साहस दिखाया था। चाहे इस समझौते की पूरी रूपरेखा अभी तक गोपनीय है और अभी तक यह सम्पन्न भी नहीं हुआ, परन्तु अब जब 22 अक्तूबर, 2025 को प्रधानमंत्री के साथ समझौता करने वाले नागा नेता 91 वर्ष की आयु में लगभग 50 वर्षों से भी अधिक की कथित जलावतनी के बाद देश में अपने जन्म स्थान सोमदल (मणिपुर) में वापस लौट आए हैं और जिस तरह उनकी वापसी पर नागा समुदाय की ओर से स्वागत हुआ है, वह इस बात का उदाहरण है कि उनका अपने लोगों में कितना सम्मान है। यह अवसर जहां नागा आन्दोलन की मज़बूती का प्रभाव देता है, वहीं शांति की सम्भावना का प्रतीक भी प्रतीत होता है।
हालांकि पंजाब से लगभग साढ़े 28 सौ किलोमीटर दूर बसे मणिपुर तथा नागालैंड की इस घटना का पंजाब से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं, परन्तु यह दृश्य देख कर मुझे पंजाब का आनंदपुर साहिब का प्रस्ताव याद आ गया है, जिसकी पूर्ति के लिए लगाये गये मोर्चे में नेतृत्व की अक्षमता के दृष्टिगत हम पंजाबियों तथा सिखों ने बेहिसाब चोट खाई, हज़ारों लोग मरवाए, परन्तु आज परिणाम में हमारी हालत यह है कि जो प्रधानमंत्री नागा आन्दोलन के समाधान के लिए नागा नेताओं से देश से बाहर भी बैठकें करने से नहीं झिझकते, वह पंजाबियों तथा सिखों के प्रतिनिधिमंडल को सज़ा पूरी कर चुके बंदियों की रिहाई संबंधी बातचीत हेतु भी समय देना उचित नहीं समझते।
साफ है कि यह हमारी पंजाबियों तथा सिखों के नेतृत्व की गलतियों का ही परिणाम है कि हम न तो अब कोई मोर्चा लगाने के समर्थ दिखाई दे रहे हैं, और न ही अपनी मांगों के लिए बातचीत करने के। हां, नागा नेता थुइलिंग मुइवार की वतन वापसी यह अवश्य सिद्ध करती है कि प्रत्येक समस्या का अंतिम समाधान तो बातचीत ही होती है। नि:संदेह ऐसे हालात पैदा करने के लिए संघर्ष करना समझदार नेतृत्व की ज़िम्मेदारी होती है, और इसके साथ-साथ योग्य नेतृत्व का यह भी फज़र् होता है कि वह संघर्ष के दौरान अपने लोगों का पहले तो नुकसान होने ही ने दे, या फिर बहुत कम नुकसान से मंज़िल तक पहुंचे।
ना तो मुत़िफक किसी अमल से
ना तो मुत्तहिद किसी काम में,
मेरे लीडरों का दिम़ाग है
कि हिमाकतों का गोदाम है।
—शौक बहिराइची
नागा आन्दोलन, संक्षिप्त इतिहास तथा 2015 का समझौता
रुतबा है बड़ा तेरा मगर हम भी तो कुछ हैं,
हर बात से अपने को तो सहमत नहीं करते।
—नज़र द्विवेदी
नागा आन्दोलन तो भारत की आज़ादी से बहुत पहले ही शुरू हो गया था और उस समय के नागा नेता ए. ज़ैड फिगो ने भारत की आज़ादी से एक दिन पहले ही ‘नागा स्वतंत्रता’ की घोषणा करके अपनी सरकार तथा सेना भी बना ली थी, जिसे दबाने के लिए अंत में भारत सरकार ने 11 वर्षों के बाद 1958 में ‘आर्म्ड फोर्सिस स्पैशल पावर्स एक्ट’ लागू किया था। यह अभी तक नागालैंड के कुछ क्षेत्रों में लागू है, परन्तु इस दौरान अब तक नागा नेताओं के साथ अलग-अलग स्तरों पर समझौते के लिए लगभग 600 से ज़्यादा बार बातचीत हो चुकी है। 1966-67 में उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ 6 दौर की बातचीत हुई थी। 1975 में नैशनल नागा कौंसिल में फूट पड़ गई। एक गुट ने भारत सरकार के साथ ‘शिलांग समझौता’ करके भारतीय संविधान को स्वीकार कर लिया था, परन्तु एक गुट ने संघर्ष जारी रखा। 1980 में नैशनल कौंसिल फार नागालैंड बनी। 1988 में ईसाई धर्म पर आधारित ‘पीपल्स रिपब्लिक आफ नागालैंड’ की मांग पर फिर फूट पड़ गई। एन.एस.सी.एन.—आई.एम. का गुट सबसे अधिक ताकतवर नागा गुट बन गया। हालात बिगड़ते गए। 1995 में उस समय के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव नागा नेताओं को मुइवाह तथा स्वू के साथ पैरिस में विदेश मंत्री राजेश पायलट ने 1996 में बैंकाक में तथा प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने 1997 में स्विट्ज़रलैंड में नागा नेताओं से बातचीत की। परिणामस्वरूप 1988 में युद्धविराम हो गया। 2001 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा 2003-04 में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के स्तर पर भी बातचीत हुई। 3 अगस्त, 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नागा नेता मुइवाह के नेतृत्व में एन.एस.सी.एन. से अंतिम समझौते की रूपरेखा वाले समझौते पर भी दोनों पक्षों के दस्तखत हुए, परन्तु यह रूप-रेखा पूरी तरह आधिकारिक तौर पर किसी भी पक्ष ने अभी तक सार्वजनिक रूप (आम लोगों की पहुंच में) से नहीं जारी की। भारत सरकार ने इस रूप-रेखा समझौते बारे 7 अन्य छोटे नागा समूहों से भी सहमति ले ली थी।
अब विवाद का प्रमुख बिन्दु यह है कि नागा नेता अलग ध्वज तथा अलग संविधान पर अडिग हैं, चाहे कि वे भारत के साथ रहने तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर भारत सरकार के पक्ष को स्वीकर करते हैं। ऐसा ही नागा नेता मुइवाह ने भारत वापसी के समय कहा भी है कि ध्वज तथा संविधान के बारे में हमारा फैसला अटल है, परन्तु जबकि भारत सरकार ‘एक राष्ट्र, एक ध्वज और एक संविधान’ से पीछे नहीं हट सकती। इसके साथ ही दूसरी बड़ी मुश्किल यह है कि नागा संगठन ग्रेटर नागालिम की मांग करते हैं, जो लगभग 1 लाख, 20 हज़ार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है और जिसमें पूरे नागालैंड के अतिरिक्त मणिपुर के कुछ पहाड़ी क्षेत्र, असम के 7 ज़िले, अरुणाचल प्रदेश के 3 ज़िले तथा म्यांमार के कुछ क्षेत्र भी शामिल हैं। म्यांमार तो अलग देश है। भारत सरकार इस बारे में कुछ नहीं कर सकती। चाहे यह आसान नहीं परन्तु जानकारों का कहना है कि भारत सरकार स्वायत्त ज़िला परिषद जो 6वें संशोधन पर आधारित है या फिर असैमैटिक फैडरलिइज़्म को आधार मान कर कोई स्थायी समझौता कर सकती है। अब नागा नेता मुइवाह की 50 वर्षों के बाद देश वापसी भी इसकी उम्मीद जगाती है। देखने वाली बात यह है कि यदि नागा नेता भारत सरकार से इतना कुछ मनवाने के समर्थ हैं तो हम पंजाबी हमारी छोटी-छोटी देश के संविधान के दायरे में आती मांगों जैसे पंजाब के पानी की मालिकी, पंजाबी भाषी क्षेत्र, चंडीगढ़ राजधानी तथा राज्यों के अधिक अधिकार देने की मांगें इतनी अथाह कुर्बानियां देकर भी क्यों नहीं मनवा सके? इसके विपरीत हमारे साथ तो केन्द्र किसी बातचीत के लिए भी तैयार नहीं। जवाब एक ही है, ‘नागा नेताओं की दृढ़ता, ईमानदारी तथा कुर्बानी बेमिसाल है।’ काश, पंजाब को अब भी कोई बुद्धिमान, ईमानदार तथा कुर्बानी वाला नेता मिल जाए।
़ख्वाब ही ़ख्वाब भला कब तलक मेरी किस्मत,
काश, हम को भी कोई उन-सा रहनुमा मिलता।
इतिहास माफ नहीं करेगा
लगभग साढ़े तीन माह पहले ही इन कालमों में 4 जुलाई, 2025 को शिरोमणि कमेटी, दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, पंजाब सरकार, केन्द्र सरकार तथा अन्य सिख संस्थाओं को विनती की गई थी कि हम अपने महान पूर्वजों, गुरुओं तथा अन्य महान नायकों के ऐतिहासिक दिन तथा शताब्दियां इस प्रकार न मनाएं कि वे गुरु आशय, गुरु के भाणे तथा सिख धर्म के अव्वल सिद्धांत ‘सरबत दा भला’ पर पूरे न उतर सकें, परन्तु किसी पक्ष पर कोई असर नहीं, अपितु हम श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की याद में 350वीं शहीदी शताब्दी एक-दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने तथा अपनी-अपनी शान-ओ-शौकत दिखाने के लिए मना रहे दिखाई देते हैं। नहीं तो एक ही तारीख को दिल्ली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी तथा दिल्ली कमेटी द्वारा अलग-अलग नगर कीर्तन क्यों सजाए गए? पंजाब सरकार भी इस मुकाबले में अपनी तरह से शांिमल है और कुछ अन्य पक्ष भी, परन्तु क्या इन नगर कीर्तनों तथा प्रदर्शनों से कौम, पंजाब तथा देश का कोई भला हो रहा है? जिससे सिखी जीवन-प्रक्रिया का प्रचार तथा प्रसार हो या सरबत दा भला हो सके। क्या यह चार दिवसीय मेले जैसे नगर कीर्तन मानवता का कुछ संवारेंगे, क्या हमने कोई यूनिवर्सिटी, कोई अस्पताल या कोई ऐसी बड़ी संस्था खड़ी की है, जो गुरु साहिब को सदियों तक श्रद्धांजलि दे सके और मानवता का भला कर सके? नहीं, शायद बिल्कुल नहीं। बस हम कौम की ताकत, समय, पैसा, श्रद्धा सिर्फ आपसी राजनीतिक ईर्ष्या तथा अस्थायी शान-ओ-शौकत की भेंट ही चढ़ा रहे हैं।
बे-नतीजा, बे-सबब, बस बे-अमल चलते गए,
हासिल-ए-जुम्बश क्या, ये हमने कभी सोचा भी है?
-मो. 92168-60000