लोकतंत्र में ‘बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते’

नवनिर्वाचित बिहार विधानसभा के पहले सत्र में शपथ ग्रहण के दौरान विगत 1 दिसंबर को भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की वास्तविकता का एक अजीब दृश्य देखने को मिला जबकि राज्य के नवादा विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित जनता दल (यूनाइटेड) विधायक विभा देवी को हिंदी में भी शपथ पत्र पढ़ने में कठिनाई का सामना करना पड़ा। अनपढ़ होने के कारण वह ठीक से शपथ नहीं पढ़ पा रही थीं। इस संबंधी वायरल हुई वीडियो में देखा गया कि शपथ लेने के दौरान वह बार-बार रुक गईं और उन्होंने पास में बैठी एक अन्य जेडीयू विधायक मनोरमा देवी से शपथ पूरी करने में मदद मांगी जिन्होंने उन्हें शब्दों का उच्चारण बताया। स्वयं स्पीकर महोदय ने बार-बार शपथ लेने में मनोरमा देवी की सहायता की जिसके बाद ही विभा देवी किसी तरह शपथ लेने की ‘औपचारिकता’ निभा सकीं। विभा देवी का परिचय व उनकी योग्यता केवल यह है कि वह पूर्व विधायक और विवादित ‘बाहुबली’ राजबल्लभ यादव की पत्नी हैं। वह आर.जे.डी. के प्रत्याशी कौशल यादव को 27,594 वोटों से हराकर विजयी घोषित हुई हैं। गोया अब बिहार का भाग्य लिखने वालों में एक नाम विधायक विभा देवी का भी शामिल होगा। राज्य के नेतृत्व में ऐसे और भी कई उदाहरण हैं।
इसी बिहार विधानसभा चुनाव में पहली बार देश के प्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर शायद यह सोचकर जन सुराज नामक अपनी पार्टी बनाकर मैदान में उतरे होंगे कि जब वह दूसरे दलों व उनके नेताओं को चुनावी जीत दिला सकते हैं तो स्वयं अपने गृह राज्य में अपनी पार्टी बनाकर विजयी क्यों नहीं हो सकते? सुख और विलासिता के जीवन को त्याग कर गत तीन वर्षों तक पूरे बिहार की खाक छानने के बाद अपनी ही कमाई के करोड़ों रुपये पानी में बहाकर जो मुद्दे वह जनता के सामने रख रहे थे निश्चित रूप से वही मुद्दे आज की राजनीति विशेषकर बिहार की ज़रूरत हैं। जैसे शिक्षा, पलायन, बेरोज़गारी व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को उन्होंने अपने चुनाव के सर्वप्रमुख मुद्दे के रूप में उठाया। इतना ही नहीं बल्कि जितने शिक्षित, अनुभवी, सज्जन, योग्य व दूरदर्शी लोगों को प्रशांत किशोर ने जन सुराज पार्टी का प्रत्याशी बनाया, शायद राज्य के किसी अन्य दल ने नहीं बनाया। परन्तु भारतीय राजनीति व देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का आज का सच यही है कि नवादा की जिस नवनिर्वाचित विधायक विभा देवी के अनपढ़ होने के कारण उनका मज़ाक उड़ाया गया, उनके मुकाबले में जन सुराज पार्टी ने जिस अनुज सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया था, वह संसाधन भूगोल में पीएचडी धारक थे परन्तु उन्हें कुल 19349 वोट हासिल हुए और वह तीसरे नंबर पर रहे, जबकि अनपढ़ विभा देवी ने कुल 87423 वोट पाकर जबरदस्त जीत दर्ज की।
अब एक नज़र डालते हैं पूर्व केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह प्रकरण पर। भाजपा के वरिष्ठ नेता राज कुमार सिंह ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान ही बिहार की नितीश सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुये सरकार की नीतियों, भ्रष्टाचार और पार्टी नेताओं पर कुछ गंभीर सवाल उठाए थे। उन्होंने बिहार सरकार व अडानी पावर लिमिटेड के मध्य 62,000 करोड़ के घोटाले का आरोप लगाते हुये यह दावा किया था कि यह अडानी को फायदा पहुंचाने की साज़िश है। उन्होंने इस विषय पर सीबीआई जांच की मांग की थी। इसके अलावा उन्होंने भाजपा नेताओं जैसे भाजपा के उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर 1995 के हत्या मामले में आरोपी होने, अपनी आयु व शिक्षा छिपाने जैसे प्रशांत किशोर के गंभीर आरोपों का समर्थन किया था। आर.के. सिंह ने अनंत सिंह जैसे एनडीए उम्मीदवारों को अपराधी बताते हुए लोगों से उन्हें वोट न देने की अपील भी की थी। परन्तु ‘बलिहारी’ हो इस ‘लोकतंत्र’ के, कि सम्राट चौधरी भी चुनाव जीतकर पुन: राज्य के उप मुख्यमंत्री बन गये और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अनंत सिंह भी विजयी हो गये। दूसरी ओर इनको आईना दिखाने वाले आर.के. सिंह जैसे ईमानदार व शिक्षित नेता के आरोपों को भाजपा ने ‘अनुशासनहीनता’ व ‘पार्टी-विरोधी गतिविधियां’ मानते हुये उल्टे उन्हें ही पार्टी से निलंबित कर दिया। उधर अपने निलंबन के कुछ ही घंटों बाद सिंह ने भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को पत्र लिखकर पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपने इस्तीफे में भी साफ कहा कि यह कार्रवाई ‘भ्रष्ट लोगों के साथ साठगांठ’ को साबित करती है। उन्होंने भाजपा आलाकमान से यह भी पूछा कि भ्रष्टाचार व अपराधियों के विरुद्ध आवाज़ उठाना क्या भाजपा की नज़रों में अनुशासनहीनता है? परन्तु लोकतंत्र में तथ्य व आरोप से भी बड़ा है जनमत या ‘बहुमत’— यानी जो जीता, वही सिकंदर।
अब एक नज़र राहुल गांधी की बिहार में की गयी पदयात्रा पर भी डालिये। राहुल गांधी ने बिहार में कभी पलायन रोकने के विषय को मुद्दा बनाकर तो कभी वोट अधिकार यात्रा के नाम पर बिहार के लोगों को जागरूक करने की पूरी कोशिश की। राजनीति व राज्य के विकास के बुनियादी मुद्दों पर उन्होंने जनता को जागृत करने का प्रयास किया। परन्तु चुनाव नतीजों ने उन सभी बुनियादी मुद्दों पर पानी फेर दिया। गोया मतदाताओं को न तो शिक्षित व चरित्रवान राजनीतिज्ञ समझ आये, न ही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम, न ही राहुल गांधी, आर.के. सिंह व प्रशांत किशोर जैसे स्पष्ट बोलने व राजनीतिक दूरदृष्टि रखने वाले संघर्षशील नेता। राज्य की जनता जनार्दन ने मुफ्त राशन, बैंक खातों में मुफ्त पैसा, धर्म-जाति, परिवारवाद, अनपढ़, अपराधी जैसे मुद्दों व प्रत्याशियों के पक्ष में अपनी राय ज़ाहिर की।
दरअसल आज के चतुर व शातिर राजनेता यह समझ चुके हैं बहुमत हासिल करने के लिये क्या क्या हथकंडे अपनाये जाने चाहिएं और किस तरह मतदान में ‘बहुमत’ को अपने पक्ष में करना चाहिये। शायद लोकतंत्र की इसी ‘त्रासदी’ से प्रभावित होकर ही अल्लामा इकबाल ने लिखा था कि -‘जम्हूरियत वह तज़र्-ए-सियासत है कि जिसमें बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते।’

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# तौला नहीं करते’