अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल : पंजाबी फिल्मों की गैर-मौजूदगी खली

गोवा में हाल ही में मुकम्मल हुए भारत के 56वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में वह सब कुछ था जो फिल्मी ग्लैमर के साथ भरे एक समारोह में होना चाहिए था : रैड कार्पेट, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फिल्में, चर्चा, वर्कशाप, फिल्मी उद्योग के साथ जुड़ने वाले हुनरमंद लोगों के लिए मंच, फिल्मों को देखने की कवायद को प्रोत्साहन देने का यत्न आदि, परन्तु इस बड़े आयोजन में कुछ निराशा भी हाथ लगी। सबसे पहले और अहम थी इस अंतर्राष्ट्रीय स्तर के समारोह में पंजाबी फिल्मों की ़गैर-मौजूदगी। दूसरे, बड़े फिल्म स्टारों की इस फिल्म मेले से दूरी।
पंजाबी फिल्मों की ़गैर-मौजूदगी
भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में इंडियन पैनोरमा सैक्शन के तहत हर बार क्षेत्रीय भाषाओं की चयनित फीचर फिल्में और ़गैर-फीचर फिल्में/दस्तावेज़ी फिल्में दिखाई जाती हैं। इसी रिवायत के तहत भारत के 56वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल (आई.एफ.एफ.आई.) में 25 फीचर फिल्मों और 20 ़गैर-फीचर फिल्मों की स्क्रीनिंग की गई, परन्तु दोनों वर्गों में एक भी पंजाबी फिल्म नहीं थी।
अफसोस की बात यह भी है कि यह पहली बार नहीं है जब पंजाबी फिल्मों की अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में से अनुपस्थिति रही हो बल्कि यह कहना अधिक मुनासिब होगा कि पंजाबी फिल्मों को यह सम्मान बहुत ही कम बार हासिल हुआ है। इस क्रम के साथ 2012, 2014 और 2021 का नाम हम ़फख्र के साथ ले सकते हैं। 2014 में कविता बहल और नंदन सकनंदा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘Candles in the wind’ ने चयनित ़गैर-फीचर फिल्मों के वर्ग में अपना स्थान बनाया था। अंग्रेजी और पंजाबी भाषा में बनी यह फिल्म किसानों की आत्महत्याओं पर आधारित थी, जिसमें उसकी मौत के बाद परिवार के हालात का दिल हृदय-विदारक चित्रण किया गया था।
2012 में गुरविन्दर सिंह द्वारा निर्देशित ‘चौथी कूंट’ को भी चयनित क्षेत्रीय भाषाओं की ़गैर फीचर फिल्मों की सूची में स्थान मिला था। यह फिल्म 80 के दशक में पंजाब के हालात पर आधारित थी। तब आतंकवाद शिखर पर था। यह फिल्म 2015 में कान्स फिल्म फैस्टिवल में प्रीमियर होने वाली पहली पंजाबी फिल्म भी बनी थी। इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल 2012 में बेहतरीन फिल्म का ‘गोल्डन पीकॉक’ अवार्ड भी प्राप्त हुआ था।
इसके अलावा 2012 में ही पंजाबी फिल्म धरती अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में शुरुआत भाव ओपनिंग वाले दिन सक्रीन की जाने वाली पहली क्षेत्रीय फिल्म भी बनी थी। धरती के साथ ही अन्य क्षेत्रीय फिल्में तेलगू और मराठी भी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल के पहले दिन की सक्रीनिंग की सूची में शामिल थीं। नवनीयत सिंह द्वारा निर्देशित यह फिल्म पंजाब के किसानों के संघर्ष, उनकी क्षेत्रीय पहचान और सामाजिक मुद्दों पर आधारित थी।
लम्बे समय से चल रहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के समारोह में पंजाबी फिल्मों की उंगलियों पर गिनती किए जाने वाला प्रतिनिधित्व विचार करने वाली बात है। उल्लेखनीय है कि पंजाबी फिल्मों का इतिहास 9 दशकों से भी पुराना है। आज़ादी के बाद के इतिहास की ओर देखें तो 1948 में रूप कुमार शोरी की निर्देशित फिल्म ‘चमन’ के साथ पंजाबी फिल्मों का आ़गाज़ हुआ था। 1951 में के.डी. मेहरा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘पोस्ती’ पहली पंजाबी कॉमेडी फिल्म थी और 1969 में पंजाबी फिल्मों ने टैक्नॉलोजी के साथ जुड़ते हुए ‘नानक नाम जहाज़ है’ फिल्म बनाई जोकि पहली रंगदार फिल्म थी। पंजाबी फिल्मों में 80 के दशक के बाद का कुछ समय ठहराव का समय रहा, जहां सुरक्षा और विषय के कारण दर्शकों ने थियेटरों से किनारा कर लिया।
साल 2000 के बाद पंजाबी फिल्मों के म्यार और गिनती में वृद्धि हुई। साल 2012 में 24, साल 2013 में 42 और साल 2019 में 61 पंजाबी फिल्में रिलीज़ हुईं और इसके बाद तो यह संख्या लगातार इसी क्रम में रही।
अब सवाल यह है कि साल में 50 से अधिक पंजाबी फिल्में बनाने वाली इंडस्ट्री के पास एक भी ऐसी फिल्म नहीं है जो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में पंजाब का प्रतिनिधित्व कर सके। जब यह प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल की ज्यूरी के चेयरपर्सन राजा बुंदेला से पुछा गया तो उन्होंने कहा कि अभी पंजाबी फिल्मों को अपना स्तर और बढ़ाने की ज़रूरत है। ज़िक्रयोग्य है कि इंडियन पैनोरमा वर्ग में एक बार 4 पंजाबी फिल्में नामज़द  थीं, परन्तु किसी को भी फाईनल सूची में स्थान नहीं मिला था।
ज्यूरी के ही एक सदस्य अरुण बख्शी, जो खुद भी पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं, के मुताबिक पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री, जोकि एक निश्चित दर्शक वर्ग तक ही महदूद हैं, को अपना दायरा बढ़ाने के लिए अन्य क्षेत्रीय फिल्मों खासतौर पर जो फिल्में म्यारी फिल्म फैस्टिवल का हिस्सा बनी हों, के कंटैंट पर बारीकी के साथ देखने की ज़रूरत है, ताकि वे समझ सकें कि वे कौन से पड़़ाव पर खड़े हैं और कितना चलने की ज़रूरत है।
बड़े चेहरों की फिल्म फैस्टिवल से दूरी
दूसरी निराशा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में बड़े अभिनेताओं और डायरैक्टरों सहित प्रसिद्ध चेहरों की ़गैर-मौजूदगी को लेकर थी। अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल भारत सरकार, गोवा की प्रदेश सरकार और एन.डी.एफ.सी. द्वारा करवाया जाने वाला वार्षिक फिल्म फैस्टिवल है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर का होने के कारण इसका आकार कान्स, बर्लिन और वीनस के साथ मेच में देखा जाता है, परन्तु अपने ही देश के बड़े चेहरों द्वारा इस फिल्म मेले से दूरी बनाने के कारण इसके स्तर और आयोजन पर सवाल खड़ा होता है।
 बिना शक गोवा में हुए 56वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में बड़े स्तर पर लोगों ने भाग लिया। इसमें सिर्फ फिल्म जगत से संबंधित लोग ही नहीं, डेलीगेट भी शामिल थे। इससे पहली बार भारत के अलग-अलग सभ्याचारों का प्रगटावा करती कारनिल परेड भी निकाली गई। फिल्मों की को-प्रोडक्शन के मौकों के बारे में सजा वेवज़ (ङ्खड्ड1द्गह्य) फिल्म नगर, सिनेमा के बारे में प्रभावी चर्चाओं के लिए वर्कशाप और बातचीत और 127 देशों की 240 से अधिक फिल्मों की स्क्रीनिंग, यह सब कुछ अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल की हालिया सालों में बढ़ रही भागीदारी के कारण है।परन्तु घरेलू दौर और मुम्बई फिल्म फैस्टिवल और धर्मशाला इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल भारतीय फिल्म जगत और नौजवान फिल्म निर्माताओं में अधिक मकबूल हैं।
इस संबंध में मौजूदा फिल्म जगत के साथ जुड़े कुछ लोगों ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि फिल्म मेले की रहनुमाई करने के लिए किसी सिंगल विज़न या समर्पित शख्सियत की कमी है। स्पेन जो 56वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में भारत का भागीदार देश भी रहा, के एक डायरैक्टर ने ‘अजीत समाचार’ के साथ बातचीत करते हुए बताया कि जैसे कि कान्स में Thierry Fremaux 2004 और Artistic Director हैं, जिनके नेतृत्व में नये हुनर भी आगे आ रहे हैं। ऐसे विज़न और समर्पण की इस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में कमी रही। 
उस ऊंचाई पर ले जाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल का एशिया के सबसे बड़े फिल्म फैस्टिवल होने का दावा किया जाता है, को बालीवुड स्टार्स के साथ-साथ नये फेस को भी अपने साथ जोड़ना होगा और एक समर्पित विज़न के साथ इसको आगे लेकर जाना होगा, जिसके फोक्स में सिनेमा हो।

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