एक नये सौंदर्य बोध का जन्म
लगता है या तो हमारी आंखों में दृष्टि दोष हो गया है, या समय ने उसके युग सत्यों ने ही पहचान बदल दी है। बहुत सी सच्चाइयां हम वेदवाक्य की तरह आज तक जीते रहे। वे सच्चाइयां आज जैसे नये समय की रेलगाड़ी से उतर गईं। ज़माना तो बुलेट ट्रेन का है, उस पर मालगाड़ी की ढेंचू-ढेंचू चाल तो लादी नहीं जा सकती न!
आज जिधर देखते हैं, वहीं कुरूपता सौंदर्य की नई परिभाषा बन गई है। इस स्पूतनिक युग ने अपनी नई संस्कृति गढ़ ली है। आप हाथ पर सरसों जमायें, या प्यादे से फर्जी बन कर भी टेढ़ो-टेढ़ो नहीं जाएंगे बल्कि सीधे रंक से राजा न बन जाएंगे। तो अब कल पुराने समय की शतरंज को उठा कर किसी डम्प में न फेंक आयें? जो कल हमारे आराध्य वाक्य थे वही आज समय के प्रबल प्रवाह ने उठा हाशिये से बाहर करके असम्बद्ध कर दिये। पहले जो रक्षक था, उसी से तो कुकुरमतों की तरह उडते हुए भक्षकों से बचाना होता था। आज कहां ऐसे रक्षक रहे? हां रक्षक की नकाब पहने हुए बहुत से लोग आपको यहां वहां नज़र आते रहते हैं। आजकल तो जो भक्षक है वही रक्षक का मुखौटा लगाये घूमता नज़र आता है। इस मुखौटावादी समाज में जिसे इन्हें ओढ़ने का तरीका नहीं आता, वही तो सस्ते राशन की दुकानों के बाहर बरसों से अपनी एड़ियां रगड़ता हुआ नज़र आता है। जीवन में कर्त्तव्य- पालन की जगह नित्य नई अनुकम्पाओं की अन्ध दौड़ की प्राप्ति ने नया नवाचार बना लिया है। इस नवाचार से बहुत लाभ है, क्योंकि यह लोगों को अपरम्पार धीरज का वरदान देता है। बरसों एक अन्तहीन कतार में खड़े रहने की सामर्थ्य बख्शता है, और अपने लिए एक बड़बोलापन भी कि अपना देश रिकार्ड पर रिकार्ड बना रहा है। है कोई ऐसा देश कि जो देश की अस्सी करोड़ जनता को उनके खाने का राशन कौड़ियों के दाम प्रदान करता हो? जनता प्रसन्न है, और इसी कृपा की वजह से देश की नौकरियां देने वाली खिड़कियों पर उसकी भीड़ कम हो गई है।आज संघर्ष यह नहीं है, कि हमारे बेकार हाथों को काम दो। उचित रोज़ी रोज़गार की गारण्टी दो, बल्कि यह है कि हमारे खातों के खुलने पर उनमें इक्कीस सौ रुपये महीने से लेकर पन्द्रह लाख रुपये जमा हो जाने का चमत्कार हो।
आज जन-सेवा का अर्थ अनुकम्पा घोषणा से हो गया है। अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसका क्षेत्रफल भी विशाल है, एक प्रायद्वीप जैसा। परिवार नियोजन की नीति के बावजूद यहां आबादी दिन दुगनी और रात चौगुनी उन्नति करती है। देखते ही देखते हमने आबादी के लिहाज़ से दुनिया के सबसे बड़े देश चीन को पछाड़ दिया। अब जो विपरीत है, वही त्याज्य हो गया। इसी तरह दुनिया में आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा देश सबसे खुशहाल नहीं, बल्कि एशिया के सबसे फिसड्डी देशों से भी फिसड्डी होकर उनकी खुशहाली से ईर्ष्या करने लगा। दिन रात तो हम उनकी आर्थिक जर्जरता का रोना रोते हैं, लेकिन खुशहाली की कतार में हम उनसे भी पीछे लगे हुए हैं।
इस सत्य को जानने के बाद भी हम इससे तनिक भी परेशान नहीं हैं, और अपनी फलती-फूलती आबादी को दया-धर्म की रेवड़ियों से बहलाते रहते हैं, बहरहते रहेंगे। उन्हें आश्वासन देते हैं कि हम आपको भूख से न मरने की गारण्टी तो दे देंगे, लेकिन हर व्यक्ति को उचित रोज़गार देने की गारण्टी नहीं दे सकते। हां, लेनी है तो हर बेकार परिवार के एक सदस्य को एक सौ पच्चीस रोज़गार दिनों की गारण्टी के साथ जीना ले लो, लेकिन पुरानी मनरेगा के शीर्षक के साथ नहीं। अब इसे जी राम जी के नाम की पहचान दे दी गई है। ऐसा करना ज़रूरी है क्योंकि पुरानी तस्वीरों के नये नाम बदल दिये जायें, तो नित नूतनता का एहसास बना रहता है। इसीलिए तो आज हमने हर भक्षक को रक्षक का नाम दे दिया है, और उसे अपनी विकास गति का पहरेदार नियुक्त कर दिया है। नतीजे भी देखो कितने कमाल के आये हैं। इस मंदी के ज़माने में भी अपने देश की विकास दर दुनिया के सब देशों की विकास दर से अधिक है। आपने पूछा, कौन-सी विकास दर? अरे वही खाते-पीते लोगों की विकास दर जो दो- मंज़िला मकानों से बढ़ कर चार मंज़िला हो गये, और करोड़ों लोगों में फ्री राशन बांट कर खाते-पीते से ‘पीते-पीते’ हो गये। और अपनी मदिरा भरी आंखों के साथ देश की तरक्की की चमत्कारपूर्ण घोषणायें करने लगे हैं। ऐसी घोषणाएं कि जिनका पूरा होना आपके भाग्य में नहीं है। केवल उनकी सफलता के मिथ्या आंकड़ों से अभिभूत होना आपके भाग्य में बदा है। अभिभूत होने का अर्थ होता है, आदमी का एक जयघोष हो जाना या उस शोभा यात्रा का एक हिस्सा हो जाना कि जिसे बाद में एक महिमयी उत्सव में तबदील हो जाना है। वह उत्सव कि जिसका अलंकरण उन भक्षकों से होता है जो आज राक्षसों का नकाब ओढ़े हैं, और इसी को ही अपना चेहरा मान रहे हैं और यही लोग आज इस देश में एक नये सौंदर्य बोध की रचना के ज़िम्मेदार हैं।



