ऊंची विकास दर से कम नहीं हो रही आर्थिक असमानता

जुलाई 2025 में केंद्र सरकार ने यह दावा किया था कि भारत दुनिया के चौथे सबसे ज़्यादा समान देशों में से एक है, लेकिन इसके सिर्फ  पांच महीने बाद ही वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट-2026 में पाया गया है कि असमानता में भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा असमानता वाले देशों की श्रेणी में बना हुआ है। इतना ही नहीं, हाल के सालों में इस मामले में बहुत कम सुधार देखा गया है।
वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब द्वारा जारी वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले 10 प्रतिशत लोग राष्ट्रीय आय का लगभग 58 प्रतिशत हिस्सा लेते हैं, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों को सिर्फ 15 प्रतिशत मिलता है। धन की असमानता और भी ज़्यादा है, जिसमें सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल संपत्ति का लगभग 65 प्रतिशत और शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के पास लगभग 40 प्रतिशत है। 2014 और 2024 के बीच शीर्ष 10 प्रतिशत और नीचे के 50 प्रतिशत के बीच आय का अंतर स्थिर रहा। प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के आधार पर लगभग 6,200 यूरो (लगभग 6,57,258 रुपये) है, और औसत संपत्ति लगभग 28,000 यूरो (लगभग 29,68,266 रुपये)। महिला श्रम भागीदारी 15.7 प्रतिशत पर बहुत नीचे के स्तर पर बनी हुई है, जो पिछले एक दशक में कोई सुधार नहीं दिखाती है। कुल मिलाकर भारत में असमानता आय, धन और लिंग के आयामों में गहराई से जमी हुई है, जो अर्थव्यवस्था के भीतर लगातार संरचनात्मक विभाजन को उजागर करती है।’
जुलाई में भारत सरकार के प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआईबी) की विज्ञप्ति में कहा गया था कि भारत दुनिया का चौथा सबसे ज़्यादा समान देश है। यह दावा भारत सरकार के कई मंत्रियों और सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं ने सोशल मीडिया पर साझा किया था। आधिकारिक सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया था कि भारत का गिनी इंडेक्स 25.5 (2022 के आंकड़ों के अनुसार) है, जो इसे ‘मध्यम रूप से कम असमानता’  श्रेणी में रखता है और इसे अमरीका (41.8) और चीन (35.7) जैसी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के बाद विश्व स्तर पर चौथा सबसे समान देश बनाता है।
सरकार का दावा विश्व बैंक की स्प्रिंग 2025 पॉवर्टी एंड इक्विटी ब्रीफ  पर आधारित था, जिसने गिनी गुणांक की गणना के लिए आय के आंकड़ों की बजाय उपभोग के आंकड़ों का इस्तेमाल किया था। खपत पर आधारित गिनी इंडेक्स आमतौर पर आय पर आधारित इंडेक्स की तुलना में असमानता की बेहतर तस्वीर दिखाता है। संक्षेप में यह आंकड़ों की हेराफेरी थी।
यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत 80 करोड़ से ज़्यादा लोगों को मुफ्त अनाज देकर खाना खिलाता है और कई अन्य सुविधाएं प्रदान करता है—जैसे मुफ्त चिकित्सा, शिक्षा, और सब्सिडी वाले उत्पाद और सेवाएं। इस सबको जोड़कर यह दिखाया गया कि खपत में कैसे सुधार हुआ है। यह आंकड़ों की कलाबाजी है जिसके आधार पर दवा किया गया कि उपभोग या खपत के मामले में धनियों और गरीबों के बीच असमानता कम हो गयी है। यही आंकड़ों की हेराफेरी है, जो गरीबों की आय को नहीं बल्कि उसकी खपत, जिसका अधिकांश हिस्सा उसे दी गयी राहतें थीं, को आधार बना रही थी। फिर सरकार ने आईएलओ और विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों पर दबाव डाला कि वे असमानता को मापने के लिए अपनी रिपोर्ट का आधार खपत को ही बनाएं, वास्तविक आय को नहीं। इसी खपत के आधार पर विश्व बैंक ने भारत को दुनिया का चौथा सबसे समान देश बताया।
हालांकि, वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब ने असमानता को मापने का आधार आय को बनाया, न कि खपत को। ऐसा करने में वह ही सही है। मुफ्त अनाज, दवाएं, शिक्षा या सब्सिडी वाली चीज़ें किसी गरीब को अमीर नहीं बनातीं, बल्कि सिर्फ उनकी ज़िन्दगी के दुख को थोड़ा और सहने योग्य बनाती हैं। इससे गरीब और अमीर के बीच असमानता खत्म नहीं होती। गरीब, गरीब ही रहे तथा अमीर और अमीर होते गए, जैसा कि आंकड़े दिखाते हैं। इसलिए लोगों के बीच असमानता को मापने का आधार आय ही होनी चाहिए।
जुलाई में केंद्र सरकार के दावे की विपक्षी पार्टियों और अर्थशास्त्रियों ने काफी आलोचना की थी। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि खपत के आंकड़े का इस्तेमाल गुमराह करने वाला हो सकता है, क्योंकि आय का आधार आमतौर पर खपत की तुलना में असमानता की तस्वीर को बहुत ही व्यापक रूप से बदलता है। बहुत अमीर लोगों के बीच के आंकड़े को ऐसे सर्वे में पूरी तरह से शामिल नहीं किया जा सकता। उस समय भी यह बताया गया था कि अगर आय के आधार पर मापा जाए तो भारत दुनिया में असमानता के मामले में 216 देशों में से लगभग 176वें स्थान पर होता।
वर्ल्ड इनइक्वालिटी रिपोर्ट-2026 कहती है कि 1980 में वैश्विक अभिजात वर्ग मुख्य रूप से उत्तरी अमरीका और ओशिनिया तथा यूरोप में केंद्रित था, जो मिलकर दुनिया के शीर्ष आय समूहों का अधिकांश हिस्सा थे। लैटिन अमरीका की भी शीर्ष के पास कुछ उपस्थिति थी, लेकिन चीन और भारत लगभग पूरी तरह से वितरण के निचले आधे हिस्से तक ही सीमित थे। उस समय वैश्विक अभिजात वर्ग में चीन की वस्तुत: कोई उपस्थिति नहीं थी, जबकि भारत, सामान्य रूप से एशिया और उप-सहारा अफ्रीका आदि के साथ बहुत नीचे था।
2025 तक तस्वीर काफी अलग दिखती है। चीन की स्थिति ऊपर उठी है। उसकी ज़्यादातर आबादी बीच के 40 प्रतिशत में आ गई है और एक बढ़ता हुआ हिस्सा वैश्विक वितरण के ऊपरी-मध्य सेगमेंट में शामिल हो गया है। यह बात दूसरे एशियाई देशों पर भी लागू होती है। इसके विपरीत भारत की स्थिति खराब हुई है। 1980 में  उसकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा बीच के 40 प्रतिशत में था, लेकिन आज यह नीचे के 50 प्रतिशत में है। भारत का मध्यम वर्ग निचले स्तर पर ही बना हुआ है, जबकि चीन का हिस्सा बड़ा हो गया है।
डब्ल्यूआईआर-2026 आंकड़ों को ऐतिहासिक नज़रिए से देखता है। जो दिखाता है कि 1,00,000 से कम आबादी वाले बहुत छोटे देशों ने 1970 से लगातार दुनिया के औसत से काफी ज़्यादा प्रति व्यक्ति आय दर्ज की है और उनका सापेक्ष फायदा बढ़ा है। समय के साथ यह अंतर बढ़ता गया है। 2024 तक उनकी आय वैश्विक औसत से लगभग चार गुना हो गई है। इसके विपरीत दुनिया के औसत से लगातार कम आय वाले देशों की श्रेणी में सबसे बड़ी आबादी वाले देश चीन और भारत हैं।
भारत में सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों की औसत आय 1,40,649 यूरो (लगभग 1,49,10,130 रुपये) और उनकी औसत संपत्ति 11,28,435 यूरो (लगभग 11,96,24,830 रुपये) है जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की आय और सम्पत्ति क्रमश: सिर्फ 940 यूरो (लगभग 99,648 रुपये) और 1801 यूरो (लगभग 1,90,923 रुपये) है। (संवाद)

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