दशम पिता के वीर साहिबज़ादों का अद्वितीय बलिदान
वाहे गुरु जी का खालसा वाहे गुरु जी की फतेह! आज वीर साहिबज़ादों के प्रति, दश्म पिता के प्रति शुक्राना व्यक्त करते हुए मन शोक से भर जाता है और गर्व की अनुभूति भी करता है। जिन्होंने अभी जीवन को देखा भी नहीं था, उन बच्चों को इतनी क्रूरता से मार दिया गया, वे शहीद हो गए और दूसरी ओर सीना गर्व से चौड़ा भी हो जाता है।
मैं माता गुजरी जी के त्याग, धैर्य, बच्चों के दिए हुए संस्कार और उनके मातृत्व को भी दिल से प्रणाम करना चाहता हूं। जिन साहिबज़ादों की बात करना चाहते हैं, उनमें बाबा ज़ोरावर सिंह, जिनकी आयु मात्र 9 वर्ष थी, बाबा फतेह सिंह की आयु मात्र 7 वर्ष। उनको डराया गया, समझाया गया, लोभ दिए गए। मगर सिंह की तरह दहाड़ते हुए किसी लोभ में आए बिना मृत्यु को पसंद किया। शायद माता गुजरी जी का संसर्ग ही होगा, सम्पर्क ही होगा, जिसने गुरुओं के पूरे संस्कार इन बच्चों में कूट-कूट कर भर दिए।
पूरी दुनिया में धर्म के लिए लड़ने वालों के इतिहास में, देश के लिए लड़ने वालों के इतिहास में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिल सकता जिसने पिता, माता, चार छोटे बेटों का बलिदान दे दिया। कुछ नहीं बचा। और इसलिए देश की जनता ने उनको सरबंस दानी की उपमा दी है। कोई सरकारी पद्मश्री-पद्म विभूषण नहीं है।
अपने पिता, अपनी माता और अपने चारों बच्चों का बलिदान करने के बाद भी लड़ाई जारी रखी और जब बाबा बंदा सिंह बहादुर ने यहां आकर बदला लिया, तब पूरी दुनिया को मालूम पड़ा कि अंत में सत्य की ही विजय होती है, धर्म के प्रति समर्पण है, मातृभूमि के प्रति प्यार है, पूरे देश के सभी लोगों को जानकारी देने का यह अवसर है।
इस देश पर नवम गुरु के जो उपकार हैं, उनका शुक्राना अदा नहीं हो सकता। कोई भूल नहीं सकता, जब कश्मीर के पंडित उनके पास गए और कहा हमारा जबरन धर्म परिवर्तन हो रहा है। हमें बचाइए, आप ही बचा सकते हैं। तब उनके मुख से एक ही वाक्य निकला कि ये जुल्म तभी रुकेगा, कि धरती कोई महान आत्मा का बलिदान मांगती है। और मित्रो, कहते हैं न पूत के लक्षण पालने में दिख जाते हैं। उसी वक्त आठ वर्ष के बालक गोबिन्द राय पिता के पास खड़े थे। उन्होंने क्षण का भी विचार किए बिना कहा कि आपसे महान कौन हो सकता है? अगर बलिदान देना है तो आपको ही देना चाहिए।
और फिर नवम गुरु ने वह महान यात्रा दिल्ली तक की, औरंगज़ेब को कहा कि धर्म परिवर्तन बंद करो। मुझे अगर धर्म परिवर्तन करा देते हो तो पूरा भारत धर्म परिवर्तन करने के लिए तैयार है। और जो यातानाओं का वर्णन है, मैं तो यहां बोलना भी नहीं चाहता। बोल भी नहीं सकता। इतनी यातनाएं सहन करने के बाद भी ज़ुल्मी और अत्याचारी लोगों के सामने अपने मुकद्दस इरादों को कभी उन्होंने पिघलने नहीं दिया। ढेर सारी यातनाएं सहन कर अपना बलिदान दिया। दिल्ली का सीसगंज गुरुद्वारा सैंकड़ों साल बाद भी सभी देश भक्तों के लिए सबसे बड़ा तीर्थ स्थान बना हुआ है।
दशम पिता ने तो बड़ा कमाल कर दिया। खालसा पंथ की स्थापना की। मगर मैं हमेशा कहता हूं कि ये नवम और दशम पिता न होते तो भारत में कोई भी न हिन्दू होता न सिख। हमारे सब संस्कार धर्म समाप्त हो जाते। इसीलिए उनको हिन्द की चादर कहा गया। इतने विशाल देश के सभी धर्मों की रक्षा के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया।
वीरता और बलिदान दो अलग-अलग गुण हैं। कई वीर होते हैं, इनमें बलिदान का गुण नहीं होता। समर्पण का गुण नहीं होता है। दशम पिता में वीरता भी थी और बलिदान भी। कभी हार नहीं स्वीकार की। मगर जब दो बेटे चमकौर साहिब में लड़ने के लिए बाहर निकलने के लिए तैयार हुए, उन्होंने ज़रा भी दया-माया दिखाए बगैर हंसते-हंसते कहा—सब जा रहे हैं, तुम्हे भी जाना चाहिए। युद्ध का परिणाम तो तय था, चारों ओर समंदर जैसी सेना थी, युद्ध में क्या परिणाम आना था, शहीदी ही आनी थी।
इतने विलक्षण योद्धा को यह मालूम नहीं था क्या? उनको मालूम था। मगर उन्होंने कहा कि धर्म के लिए अगर बलिदान की ज़रूरत है तो मेरे घर से शुरुआत होनी चाहिए। मेरे साहिबज़ादों द्वारा शुरुआत करनी चाहिए और दोनों साहिबज़ादे वहां पर शहीद हो गए। हिमालय की तरह अडिग रह कर लड़े। भूख, प्यास, भय, संख्या की विषमता, ये सब होने के बावजूद भी लड़े।
और जब दोनों बेटे ज़िंदा दीवार में चिनवा दिय गए और पिता के मन में कोई भाव नहीं होंगे, ऐसा नहीं है। मगर उन्होंने उस भाव को कभी ऊपर नहीं आने दिया।
माता गुजरी ने कैसे पगड़ी बांधकर बच्चों को वहां भेजा होगा। उस मां के हृदय पर क्या गुजरी होगी। अपने बेटों को वहां भेजना और इतनी बहादुरी से भेजना कि तुम गुरु गोबिन्द सिंह जी के बेटे हो। कहीं झुकना मत, डरना मत, धर्म के लिए अडिग रहना। ऐसे संस्कार बहुत कम लोग अपने बच्चों को दे पाते हैं।
मित्रो, जब उनको समाचार मिला कि चारों साहिबज़ादे शहीद हो गए हैं, तो एक मां ने इनके सामने सवालिया नज़र से पूछा कि अब क्या? मेरा तो कोई बेटा ही नहीं बचा।
तब इस महान व्यक्ति के मुंह से ऐसे ही निकल गया—चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हज़ार। बहुत बड़ा मन चाहिए।



