कहां ले जाएगी विदेश भागने की चाहत


भारत से लाखों लोग विदेश जा चुके हैं। लाखों जाने को तैयार हैं। हम माल्टा कांड को भूल चुके हैं। सो हममें से ज्यादातर लोग विदेश जाकर, वहीं रहने और जीने का सपना दिन-रात देखते हैं। क्योंकि माल्टा कांड इतिहास के अंधेरे सराज में चला गया। और हमने इतिहास को लाइब्रेरी की अलमारी में बंद कर दिया है, जिसके कांच के पार ज़ख्मों दुर्घटनाओं की आवाज़ नहीं आती। वह जिसे वीज़ा नहीं मिला पाता। अम्बैसी से मुंह लटका कर लौटना पड़ता है, किसी भी तरह विदेश पहुंच जाना चाहता है। लड़के-लड़कियों में ज़बरदस्त ख्वाहिश है विदेश जाने की। इसके लिए चाहे बाप को ज़मीन या घर गिरवी रखना पड़े या बेच देना पड़े। मां-बाप भी अपनी अतृप्त, अधूरी ख्वाहिश पूरी करना चाहते हैं। ऐसे में टालस्टाय के उस कथन को याद कर सकते हैं कि इतिहास उस बहरे आदमी की तरह है जिससे प्रश्न कुछ और पूछे जाते हैं और वह उत्तर कुछ और देता है।
डॉलरों की चमक (धनोपलब्दि) शोहरत, सफलता के लिए क्या जीवन की हर खुशी, प्रेम सौहार्द, रिश्तों की डोर, अपनत्व के प्रति लापरवाह होकर कोई भागदौड़ में अपनी ज़िन्दगी के अर्थ आसानी से बदल सकता है? विदेश जाने और वहां बसने के नाम पर बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार हो जाते हैं।
जिन को वीज़ा इन्कार कर दिया जाता है, वे बिन जल मछली की तरह तड़पते हैं, जैसे उनके जीवन में अब अंधकार ही अंधकार है और कुछ बचा नहीं। विदेश भेजने का धंधा चलाने वालों के लिए ऐसे लोग साफ्ट टारगेट होते हैं और निराश लोग आ बला मेरे गले लग जा की तरह खुद व खुद जाल में जा फंसते हैं। ऐसे समाचार रोज़ समाचार पन्नों में सुर्खियां बनते हैं, कि ़गैर-कानूनी ढंग से विदेश जाने वाले युवक पकड़े गए। जाली पासपोर्ट बरामद, एजेंट लाखों रुपए का कितने ही मासूम लड़कों को चूना लगाकर फरार। विदेश में नौकरी अथवा शादी के वायदे करने वाला एजेंट गिरफ्तार। समाज में ऐसे ठगों का व्यवहार और शानदार पांच सितारा रहन-सहन चकाचौंध बनाये रखता है, जिसमें झूठे वायदे सचमुच के लगते हैं। अक्सर उनके संबंध राजनीतिक सरुख वाले लोगों से होते हैं। महंगी गाड़ियों और शानदार बंगलों में रहते हैं। जाल खुलने पर रातों रात भाग खड़े होते हैं।
मीरा दीवान दस्तावेज़ी फिल्म की निदेशक दो दशक पहले इंडो कनेडियन सोसायटी की तरफ से एक फिल्म का निर्माण कर रही थीं। फिल्म का थीम था उन स्त्रियों की दशा जो पंजाब से विवाह करवा कर विदेश पहुंच गईं और वहां पति द्वारा उपेक्षा और उत्कार मिली या पंजाब में ही विवाह करवा कर कुछ दिन दुल्हन के साथ लुत्फ उठा कर विदेश चले गये दूल्हे जो लड़कियों को एक लम्बी प्रतीक्षा के लिए छोड़ गये। आधा हिस्सा फिल्म का कनाडा में शूट किया गया, जिसमें कठिन ज़िन्दगी गुजारती, उपेक्षित औरतें, अपनी किस्मत को रो रही थीं। दूसरा हिस्सा पंजाब में शूट होना था जहां अनंत प्रतीक्षा में बैठी विवाहित लड़कियां मां-बाप के दुख, परेशानी में इज़ाफा कर रही थीं। दूल्हों के फोन नम्बर और पते वही नहीं थे जो विवाह पूर्व थे। शूटिंग पूर्व जब लोकेशन देखी जानी थी, इन पंक्तियों का लेखक साथ गया था। कई गांवों में लड़कियों की बेदर्द दर्द का साक्षी रहा जो न विवाहित रह गई थीं न अविवाहित। कुछ के यहां बच्ची, बच्चे का जन्म हो चुका था जिन्हें सिर्फ पिता की फोटो दिखाई जा सकती थी। जो वर्तमान और भविष्य को ठेंगा दिखाकर सिर्फ कुछ रातों के इतिहास हो चुके थे। लड़कियों के मां-बाप ने पुलिस की मदद लेनी चाही तो या तो डांट पिला कर मूर्ख साबित किया गया या आश्वासन का खोखला झुनझुना। ज़मीनें बेच कर या मकान गिरवी रख कर बच्चों को कनाडा या आस्ट्रेलिया भेजने वाले पिता से बात करें कि बच्चों को विदेश इतने कष्ट उठा कर आप क्यों भेज रहे हैं तो उनका सपाट-सा उत्तर होता है- यहां है ही क्या? नौकरी यहां नहीं मिलती, दफ्तरों की दीवारें तक पैसे मांगती हैं, हर जायज़ काम के। अपनी तो जैसे-तैसे कट जाएगी। इनकी ज़िन्दगी तो संवरे। किसी मुल्क की तासीर, तदबीर और तस्वीर बदलने के लिए युवा वर्ग की बड़ी भूमिका होती है। परन्तु जब पलायन ही एक मात्र रास्ता बचे तो चीज़ों को बदलने में कहीं ज्यादा वक्त लग सकता है।
अमरीका से ग्रीन-कार्ड पाये सम्पन्न और संतुष्ट दिखते लौटकर लड़के ने बताया- अंकल यहां से लगता है कि वहां डॉलर पेड़ों पर लगते हैं। वे पेड़ वहां विपरीत परिस्थितियों में पहले उगाने पड़ते हैं फिर अपनी सेहत गंवा कर पालने पड़ते है तब जाकर डॉलर मिलते हैं। इस सब पर सोचने के लिए बच्चों के मां-बाप को आगे आना चाहिए।