स्वामी विवेकानंद : देश के पहले सांस्कृतिक राजदूत

स्वामी विवेकानंद का जन्म दिवस पूरे देश में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में जन्में स्वामी विवेकानंद न सिर्फ  अपने समय में, बल्कि डेढ़ सौ साल बाद भी अपने क्रांतिकारी विचारों से नौजवानों के दिलो-दिमाग को उद्वेलित करते हैं। देश के लाखों-लाख युवा तरुणाई के लिए उनके विचार आज भी प्रेरणा स्त्रोत हैं। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि युवा राष्ट्र की असली शक्ति हैं। वे मानते थे कि जिस देश में नौजवान पीढ़ी अपनी सोच को कार्य के रूप में परिवर्तित करेगी, उस देश की ओर कोई आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। उनकी यह बात बहुत हद तक सही भी है। यदि नौजवान अपनी असली ताकत पहचान जाएं, तो उस देश की तरक्की को कोई नहीं रोक सकता। आज हमारा देश वैश्विक मानचित्र पर सबसे ज्यादा नौजवान देश है। देश की 125 करोड़ आबादी में से 65 फीसदी आबादी पैंतीस साल से कम उम्र की है। यदि ये नौजवान आबादी कुछ ठान ले, तो हर चीज मुमकिन है। बस जरूरत इस बात की है कि इस तरुणाई का सही तरह से इस्तेमाल किया जाए। उनको सही मार्गदर्शन मिले। विचार के बिना जीवन दिशाहीन होता है। स्वामी विवेकानंद के विचारों को यदि देश के युवा अच्छी तरह से अध्ययन करें, तो उन्हें आज के कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब मिल सकते हैं। इन जवाबों की रोशनी में वे अपने जीवन को नई राह दिखला सकते हैं। राष्ट्रीय कवि दिनकर ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा है-‘‘विवेकानंद वो समुद्र हैं जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता तथा उपनिषद् और विज्ञान सब के सब समाहित होते हैं।’’स्वामी विवेकानंद देश के महानतम प्रज्ञापुरुष थे। महात्मा गौतम बुद्ध के बाद विवेकानंद देश के पहले धार्मिक, सांस्कृतिक राजदूत थे। उन्होंने सभी तरह की कुंठाओं और वर्जनाओं को त्याग, पश्चिमी बुद्धिजीवियों को उनकी ही सरजमीं पर फैसलाकुन तौर से हराया था। आधुनिक भारत के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक जीवन की कई हस्तियां उनकी जिंदगी से किसी न किसी तरीके से प्रभावित थीं। सुभाष चंद्र बोस ने लिखा है कि, ‘‘स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था। नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगायी। उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उनके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की। उनके उद्गारों से लोगों में आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान के भाव जगे हैं।’’ एनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के बीस में से लगभग कंठस्थ ग्यारह खण्डों पर विवेकानंद का असाधारण अधिकार था। वे विवेकानंद ही थे जिन्होंने पतंजलि के प्रकृतियोग के सिद्धान्त का पूरक सिद्धान्त प्रतिपादित किया। ऋग्वेद से लेकर कालिदास तक भारत के अन्यतम ग्रन्थों से वे अच्छी तरह वाकिफ  थे। यही नहीं विवेकानंद ने पश्चिम विद्वानों को भी पढ़ा था। कांट, शोपेनहावर, मिल तथा स्पेन्सर जैसे विचारकों का उन्होंने खूब अध्ययन किया। स्वामी विवेकानंद की मेधा से प्रभावित होकर पश्चिम ने उन्हें ‘हिन्दू-नेपोलियन’ और ‘चक्रवातिक हिन्दू’ की संज्ञाएं दी थीं। विवेकानंद ऋषि, विचारक, सन्त और दार्शनिक थे, जिन्होंने आधुनिक इतिहास की समाजशास्त्रीय व्याख्या की।  विवेकानंद को अपने भारतीय होने पर बेहद गर्व था। भारतीयों के गुणों का बखान करते हुए उन्होंने कहा था ‘हम भारतीय केवल सहिष्णु ही नहीं हैं। हम सभी धर्मों से स्वयं को एकाकार कर देते हैं। हम पारसियों की अग्नि को पूजते हैं। यहूदियों के सिनेगॉग में प्रार्थना करते हैं।  मनुष्य की आत्मा की एकता के लिए तिल-तिल कर अपना शरीर सुखाने वाले महात्मा बुद्ध को हम नमन करते हैं। हम भगवान महावीर के रास्ते के पथिक हैं। हम ईसा की सलीब के सम्मुख झुकते हैं। हम हिन्दू देवी देवताओं के विश्वास में बहते हैं।’ स्वामी विवेकानंद ने दुनिया के दो बड़े मजहब, हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच आपसी सहकार की बात करते हुए कहा था कि ‘हमारी मातृभूमि, दो समाजों हिंदुओं और मुस्लिम की मिलनस्थली है। मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूं कि आज के संघात और बवंडर के अंदर से एक सही और अपराजेय भारत का आविर्भाव होगा, वेदांत का मस्तिक और इस्लाम का शरीर लेकर।’ स्वामी विवेकानंद के विचारों में आज के कई ज्वलंत सवालों के जवाब ढूंढ़े जा सकते हैं। जरूरत उन सवालों को सही ढंग से समझने की है। उन्नीसवीं सदी में जब भारतीय समाज अपेक्षाकृत ज्यादा मतांध, संकीर्ण और दकियानूस था, उस वक्त विवेकानंद ने जो कुछ भी कहा, वह हर लिहाज से क्रांतिकारी था। समाज की जरा सी भी परवाह न करते हुए, वे अपने साहसिक और मौलिक विचार पूरी दुनिया के बीच बांटते रहे। वे देश के पहले सांस्कृतिक राजदूत थे, जिन्होंने भारतीय परंपरा, दर्शन और संस्कृति को पश्चिमी देशों तक पहुंचाया। स्वामी विवेकानंद की किताबों का सम्यक अध्ययन करने से मालूम चलता है कि उनके विचारों में समकालीन शब्दार्थों से कहीं ज्यादा भविष्य के निहितार्थ छिपे हैं। आज हम स्वामी विवेकानंद की जयंती तो बड़े धूमधाम से मनाते हैं, लेकिन उनके वास्तविक विचारों से जानबूझकर कन्नी काट जाते हैं। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि हम उनके वास्तविक विचारों को जन-जन तक पहुंचाएं।  

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