अधमरे वायरस

क्या कभी आपने किसी को यह कहते सुना है, ‘वाह क्या चकनाचूर कर देने वाली थकान है, मजा आ गया.... बिस्तर में थककर ढह जाने का सुख ही कुछ और है डॉक्टर.... जब मुझमें करवट लेने तक की कूव्वत नहीं होती उन पलों के आनंद को मैं बयां नहीं कर सकता...’ डेंटिस्ट डा. शरद पगारे से अगर ये शब्द उनके अलावा किसी और ने कहे होते, तो वह बिना एक पल सोचे यही समझते पागल है कोई, लेकिन दिगंत सर यानी लेखक पत्रकार दिनेश्वर दिगंत के बारे में डा. शरद आसानी से ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि उन्हें मालूम है कि दुनिया का शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर दिगंत सर को हस्तक्षेप करने लायक ठीक ठाक जानकारी न हो। उनकी पत्नी मेघा पगारे जो उन्हीं की तरह डेंटिस्ट हैं और मुंबई के कई मशहूर डेंटल क्लीनिक से जुड़ी हुई हैं, उनका तो यहां तक मानना है कि दिगंत सर अपने दांतों का इलाज कराने जरूर हम लोगों के पास आते हैं, लेकिन कई बार लगता है, उन्हें दांतों के बारे में भी हमसे ज्यादा पता है।
लेकिन डा. मेघा को भी उनकी इस तरह की बेतुकी बातें समझ में नहीं आतीं, जब वह कहते हैं, ‘डा. थकान के चरम में हूं और खुद को पल पल ध्वस्त होते देखने का लुत्फ ले रहा हूँ।’ उनके इस डायलॉग से अभी तीन दिन पहले ही उनका पाला तब पड़ा था, जब डा. मेघा ने दिगंत सर को यह जानने के लिए फोन किया था कि अब उनके जबड़े का दर्द कैसा है? दरअसल उनके जबड़े में एक माइनर सी सर्जरी हुई थी। लेकिन दर्द कैसा है? इस सवाल का दिगंत सर ने बिल्कुल अर्धविक्षिप्तों के से अंदाज में जवाब दिया, ‘मत पूछों डॉ.  .....दर्द के दरिया में गोते लगाने का सुख ले रहा हूं।’ जवाब सुनकर डॉ. मेघा एक पल को तो बिल्कुल अकबका गयीं। उन्हें उनके इस जुमले का कायदे से कुछ मतलब ही समझ में नहीं आया और जो आया उससे शक हुआ कि कहीं दिगंत सर किसी गंभीर मानसिक बीमारी का शिकार तो नहीं हो गए? कुछ ऐसी ही आशंका डा. शरद ने भी जताई थी। जिसे मोबाइल का स्पीकर खुला होने के कारण दिगंत सर ने भी सुन लिया था.... और यह सुनकर उन्हें बुरा लगा था। अपने बारे में निकाले जा रहे ऐसे निष्कर्षों पर उन्होंने नाराज़गी भी जताई थी और फोन भी काट दिया था। हालांकि यह बात भी सही है कि डॉ. मेघा को, डॉ. शरद से यह कहते सुनकर कि दिगंत सर मानसिक रूप से बीमार हो गए लगते हैं, उन्हें भी अपने बारे में यह आशंका हुई थी।
इस आशंका का कारण यह था कि कुछ भी पढने के शौकीन दिगंत सर ने हाल ही में खूब सारे मनोविकारों के बारे में पड़ा था और कईयों के बारे में पढ़ते हुए तो अनायास उनके मुंह से निकल गया था, ‘अरे ये सब लक्षण तो मुझमें भी हैं.... तो क्या?’ अपनी इस आशंका की पुष्टि के लिए उन्होंने मन ही मन अपने आपसे कुछ सवाल किये थे और मन ही मन उनके जवाब भी दिए थे। सवाल जवाब की इस कवायद में भी उन्हें लगा था कि वह वाकई मनोरोगी हैं, गनीमत बस इतनी थी कि उनके पास अपनी इस स्थिति को संबोधित करने के लिए कोई डरावनी टर्म नहीं थी। अपनी मानसिक स्थिति पर काफी देर तक सोचने के बाद उन्हें एक आइडिया आया। उन्होंने अपनी ऊटपटांग सोच को विस्तार से टाइप किया और उसे फेसबुक में पोस्ट कर दिया। मकसद था, लोगों की प्रतिक्रियाओं से यह जानना कि क्या और भी लोग ऐसे हैं, जिन्हें उन्हीं की तरह ऐसे ऊटपटांग ख्याल आते हैं? क्या खुद को लेकर उनकी जैसी फीलिंग्स और भी किसी में होती है या फिर धरती में ऐसे अकेले इंसान बस वही हैं, वह भी बचपन से? क्योंकि उनमें ये सब विचित्र फीलिंग्स कोई हाल फिलहाल में नहीं पैदा हुई थीं, बचपन से ही वह ऐसे ही रहे हैं। किशोरावस्था में जब वह गांव में रहते थे, तब भी अगर किसी बात को लेकर अड़ जाते थे, तो किसी की नहीं सुनते थे। उनके पिताजी बहुत गुस्सैल स्वभाव के थे। वह गुस्से में किशोर दिगंत को हमेशा ‘हूंस’ कहते हुए गडांसा लेकर उन्हें मारने दौड़ते थे। ‘हूंस’ शब्द शायद ‘मनहूस’ शब्द का बिगड़ा रूप रहा होगा। लेकिन तब न तो मनहूस शब्द उन्हें पता था, न ही इसका मतलब। अपने लिए तब यह शब्द सुनकर उन्हें लगता था कि ‘हूंस’ शब्द से आशय जरूर मोटी खाल वाले किसी भैंसे या गैंडे जैसे आदमी से होगा, जिसे किसी बात से कोई फर्क ही न पड़ता हो। इस अनुमान का आधार यह था कि किशोर दिगंत को लेकर उनके पिताजी कई बार ऐसा ही कुछ खाका खींचते थे। मगर यह शब्द तो चलो एक अमूर्त एहसास था, लेकिन इस पूरे मामले में किशोर दिगंत की हलक से चीख निकाल देने वाली डरावनी बेफिक्री तब दिखती, जब उनके पिता एक ही झटके में उनके धड़ से गर्दन उतार देने की बात करते हुए बड़ी खूंखार मुद्रा में गडांसा लेकर उनकी तरफ झपटते, लगता बस एक ही पल में गर्दन साफ हो जायेगी।