अधमरे वायरस

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

अधमरा वायरस क्या हुआ.... और यहां तो अधमरा भी नहीं, ‘अधमर’ थे? इन सब बातों ने उन्हें वाकई बेचैन कर दिया। वह फटाफट मैसेंजर पर आये, जहां वाकई उन मैडम ने उनके लिए अपनी लंबी चौड़ी कहानी लिख रखी थी। दिगंत सर उन मैडम को ऑफलाइन की दुनिया में तो नहीं जानते थे, लेकिन ऑनलाइन उन मैडम के साथ उनकी कई सालों से हाय हैलो थी। दिगंत सर ने जब अपना फेसबुक एकाउंट बनाया था, तभी से केण्राधिका उनकी फेसबुक फ्रैंड थीं। कई बार फेसबुक में किसी बहस के दौरान प्रतिक्रियाओं के रूप में उनमें आपसी संवाद भी होता था, लेकिन कभी फोन पर बात नहीं हुई थी और न ही वर्चुअल दुनिया के अलावा वह उनके बारे में कुछ जानते थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि मैडम के नाम के आगे के. लिखने का मतलब कुमारी से है या के का मतलब कुछ और है।
बहरहाल यह सब जानने की जरूरत भी नहीं थी। इस समय तो दिगंत सर में जबर्दस्त उत्सुकता राधिका मैडम की लंबी-चौड़ी कहानी पढने की थी, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘एक दौर में मेरे अंदर आप से ज्यादा नकारात्मक फीलिंग्स आती थीं। यह शर्मसार करने वाली बात लग सकती है, लेकिन मेरे मन में ख्याल आया करते थे कि मेरे साथ कुछ इतना बुरा घट जाए, जिसकी आजतक कल्पना भी न की गयी हो।’ राधिका मैडम ने आगे लिखा था, ‘दिनेश्वर दिगंत जी मैं उम्मीद करती हूं कि आप मेरी इन फीलिंग्स को अपने तक ही रखेंगे, इन्हें सोशल मीडिया में सार्वजनिक नहीं करेंगे, इसी भरोसे से आपको बता रही हूं कि कई बार जब मेरे हसबैंड मुझे दफ्तर में लेट हो जाने पर रात में रेलवे स्टेशन लेने आते थे तो मैं बाहर से भले खुश दिखती थी, लेकिन अंदर से मुझे बिल्कुल नहीं अच्छा लगता था।  क्योंकि उन पलों में मेरे अंदर बेहद नकारात्मक और खौफनाक विचारों की झड़ी लगी होती थी कि काश किसी दिन, देर रात दफ्तर से निकलते हुए मेरा अपहरण हो जाये और फिर कई लोग मेरे साथ बहुत ब्रूटली रेप करें..... उफ्फ.....!!! मैं बता नहीं सकती कि मैं इसके आगे और क्या क्या सोचती थी।’
दिगंत सर यह सब पड़कर सचमुच हतप्रभ रह गये। इस सबके सामने तो उन्हें अपनी नकारात्मकता बहुत बचकानी और सहज लगने लगी। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि वह के.राधिका की दिल दहला देने वाली कुंठाओं का विश्लेषण उन्हें किस खांचे में रखकर करें। के. राधिका ने अपनी पोस्ट के अंत में अपना फोन नंबर भी लिखा था। जाहिर है वह सोच रही थीं कि पोस्ट पड़ने के बाद दिगंत सर के दिलो दिमाग में सवालों के तूफान उठेंगे और वो चाहेंगे कि मुझसे बात करके और भी बहुत कुछ जानें। शायद इसीलिए उन्होंने कमेंट के अंत में अपना नंबर भी लिख दिया था और जब उस नंबर पर दिगंत सर ने वाकई फोन लगा दिया तो दूसरी तरफ  न केवल बड़े इत्मिनान से बल्कि इसी विश्वास के साथ फोन उठाया गया था कि फोन करने वाले मिस्टर दिनेश्वर दिगंत ही होंगे।  के. राधिका ने फोन उठाने के बाद न हैलो कहा, न हाय। यह भी नहीं पूछा कि आप कौन हैं, बिल्कुल किसी रिकार्डेड टेप की तरह बजने लगीं, ‘दिगंत जी मुझे पता था कि आप अपनी पोस्ट पर मेरी प्रतिक्रिया पड़ने के तुरंत बाद फोन करेंगे। क्योंकि मुझे अंदाजा था कि मेरी प्रतिक्रिया आपके दिलो दिमाग में उथलपुथल मचा देगी..... खैर मैं अपनी बात शुरू करती हूँ। आपकी तरह एक दौर में, मैं भी खुद के लिए जितना बुरा सोच सकती थी, सोचती थी। अगर मेरे साथ कुछ बुरा नहीं होता था, तो खुद से खिन्न सी हो जाती थी। कुछ बुरा घटता तो कल्पना करती कि वह अपनी पराकाष्ठा से गुजर जाए। तब मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचती थी कि मैं मानसिक रूप से बीमार हूं। ऐसा था भी। लेकिन न तो व्यक्तिगत रूप से मुझमें इतनी हिम्मत थी कि मैं अपनी मानसिक स्थिति को स्वीकार कर लूं और न ही इसका कोई फायदा था, क्योंकि स्वीकार न करने की बात भी कहां थी। मैं न भी चाहूं तो भी स्वीकार तो किये ही थी।
क्योंकि हमारा जब कोई बहुत नज़दीकी मरता है, तो वह अकेले कहां मरता है, थोड़ा हमें भी मार जाता है। वह जिस संक्रमण का शिकार होता है, उससे बहुत नहीं तो थोड़ा हम भी संक्रमित हो चुके होते हैं, चाहे हम इस बात को जानें या न जानें। मैं उस वायरस के मानसिक संक्रमण की चपेट में थी, जिसके भयानक संक्रमण में मेरी मां ने तड़प तड़पकर दम तोड़ा था। यह पिछली सदी के आखिरी दिनों की बात है। लेकिन मां के बीमारी के इस चक्रव्यूह में फंसने की कहानी करीब 15 साल और पीछे से शुरू होती है। यह 90 के दशक के शुरुआती दिन थे।