अधमरे वायरस (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)


तब के बंबई शहर में मेरे मम्मी पापा एक ऐसे जोड़े थे, जो हो तो सकते थे, लेकिन वैसे जोड़ों की कल्पना नहीं की जा सकती थी। क्योंकि वे सहज अनुमान या किसी भी स्वाभाविक समीकरण में फिट नहीं बैठते थे। मेरी मम्मी कर्नाटक के चिकमंग्लुरु ज़िले के एक छोटे से गांव की थीं। जब वह अभी पूरी सत्रह की भी नहीं हुई थीं कि एक रात उन्हें बॉलीवुड का सपना आया। वैसे यह सपना उनके ऊपर सवारी करने की फिराक में तो दो साल पहले से ही था, लेकिन जब राजकपूर की फिल्म ‘प्रेम रोग’ आयी और उसने उत्तर से लेकर दक्षिण तक अपना डंका बजाया तो इस सपने के लिए मां से दूर रह पाना संभव नहीं रह गया। आखिरकार वह उन पर सवार ही हो गया। उसी के इशारे पर एक दिन मां बाया कुडूर रानी चेनम्मा एक्सप्रेस में बैठ बंगलुरु पहुँच गयीं और फिर वहां से बंबई।
मम्मी को लग रहा था कि हिंदी फिल्म प्रोड्यूसर स्टेशन में उनका इंतजार करते मिलेंगे। बेचारा सपना.... इसके बाद उनके साथ भी वही सब हुआ, जैसा हमने बहुत सी कहानियों में सुन रखा है। उनसे भी इस बेवखूफी की कीमत उनका तन और मन कुचल कुचलकर वसूली गयी। यह कीमत चुकाकर मम्मी में जीने की इच्छा नहीं बची। लेकिन पराई दुनिया में मरना भी तो पराये हाथ में ही होता है। रेल की पटरी से अंतिम क्षणों में धक्का देकर उन्हें दो सिक्यूरिटी गार्डों ने बचा लिया। उन दो में से बाद में एक मेरे पापा बने। लेकिन मम्मी-पापा की कहानी यहीं से शुरू नहीं हुई इसके लिए कई महीनों की जलालत का एक दलदल अभी पार करना शेष था। मम्मी को दोनों सिक्यूरिटी गार्डों ने जब बचाया था, तब वह बेहोश थीं। पास के एक अस्पताल में एक घंटे में उन्हें होश आ गया। डॉक्टर ने कहा चिंता की कोई बात नहीं है, भूख से हुई बेहोशी है, खाना खिलाओ पिलाओ सब ठीक हो जाएगा। अस्पताल से सिक्यूरिटी गार्डों द्वारा मम्मी को सिक्यूरिटी कम्पनी के मालिक बनर्जी दादा के घर पहुंचा दिया गया।
....और यहीं से मम्मी की जिंदगी एक अंधेरे रेगिस्तान में भटक गई और इसका ब्लैकहोल अंतत: उन्हें लील गया और  मुझे बीमार कर गया। पिछली सदी के 80 के दशक में बंबई में, चकाचौंध की एक तिलस्मी दुनिया होती थी, जिसे ‘बीयर बार’ कहते थे, पूरी मुंबई में सैकड़ों बीयर बार थे। इनमें एक खास चेन टोपाज की थी। बनर्जी दादा यूं तो सिक्यूरिटी सर्विस की कंपनी चलाता था, लेकिन इसकी आड़ में वह टोपाज के लिए नेपाल और बंगाल से लड़कियां लाकर सप्लाई करता था। मम्मी तो मानो दादा को राह में पड़ी सोने की थैली मिल गयी थी। मम्मी खूबसूरत तो थी हीं, बला का डांस भी कर लेती थीं। दादा को टोपाज से उनके लिए काफी आकर्षक रकम मिली। मम्मी को आम ग्राहकों के लिए नाचना होता और खास ग्राहकों को अपने जिस्म की थाली परोसनी होती। एक दिन बीयर बार की छत से नीचे कूदकर वह इस सिलसिले को खत्म करना चाहती थीं। लेकिन वह जम्प लगाने वाली ही थीं कि उन्हें पीछे से पापा ने पकड लिया। दरअसल उसी बार में सिक्यूरिटी गार्ड, पापा उस समय छत में रखी टंकियों में पानी की क्या स्थिति है, यह देखने आये थे। लेकिन मम्मी किसी भी कीमत पर मरना चाहती थीं। अंत में वह इसी शर्त पर जीने को तैयार हुईं कि मेरे पापा उनको उसी समय वहां से भगाकर कहीं ले जाएं। पापा ने कहा एक दो दिन का मौका दो व्यवस्था बनाता हूं। मम्मी मान गयीं और नीचे जाकर रोज की तरह शाम की तैयारी में जुट गयीं। 
अब सुनो मेरे पापा की कहानी। मेरे पापा यानी बिरेन्द्र बागची बंगाली तो थे, लेकिन उन्होंने कभी बंगाल नहीं देखा था, बंगाली उन्हें बस टूटी फूटी ही बोलनी आती थी। क्योंकि वह बंगाल में नहीं, मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में पैदा हुए थे। शायद पांच या उससे भी कम पड़े थे। एक दिन बाया नागपुर भागकर मुंबई आ गये। जाहिर है किसी होटल में हेल्पर या सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी की ख्वाहिश लेकर। मम्मी से छत में किये गए वायदे के चलते वह तीसरे दिन उन्हें लेकर गायब हो गए। मुंबई तब भी बहुत बड़ा शहर था। उन्हें उम्मीद थी कि वे कभी पकड़े नहीं जाएंगे, लेकिन जब काम की सीमाएं हों और पेट के लिए नौकरी के अलावा कोई दूसरा रास्ता न हो तो दुनिया गोल हो जाती है। पापा के लिए दुनिया गोल थी। दूसरी जगह भी उन्हें सिक्यूरिटी गार्ड की ही नौकरी मिली। दो तीन महीने दोनो के, उस जमाने में बंबई के जंगल कहे जाने वाले जोगेश्वरी इलाके की एक झोपड़ पट्टी में बिना हो हल्ला कट गये, उन्हीं दिनों की निशानी मैं हूं। लेकिन एक दिन बनर्जी दादा ने पापा को देख लिया।