अधमरे वायरस



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इस जीवन में शादी जैसी औपचारिकता का कभी कोई मौका ही नहीं आया था। मम्मी को इस शहर में आये अब तक 15 साल हो चुके थे। शहर बंबई से मुंबई हो चुका था। मैं भी करीब चौदह साल की हो गयी थी। एक सरकारी स्कूल में पढ़ती थी। मम्मी मेरे लिए ही सब कुछ सह रही थीं। लेकिन एक दिन उनकी सब्र का बांध टूट गया। उन्होंने मुझे अपनी बत्तीस साल की जिंदगी की पूरी कहानी सुनाई। वह बहुत लंबी रात थी। पूरी रात हम दोनों मां-बेटी खूब गले से लगकर रोईं। सुबह लग रहा था, हम दोनों कुछ हल्का महसूस कर रहे हैं। मां ने मेरे लिए टिफिन बनाया और मेरे स्कूल जाने से पहले एक बार फिर बहुत जोर से छाती से चिपका लिया। लेकिन न रोईंएन कुछ कहाण्बस उन पलों में हम दोनों की आँखें भरी हुई थीं।
शायद मैं समझ नहीं पायी वह विदा और बिछुड़ने का दिन था। जब मैं स्कूल से लौटी को मां जा चुकी थी, रोज-रोज तिल-तिल करके मरने की जलालत से बहुत दूर। लेकिन अपनी जान देकर भी मां बनर्जी का कुछ भी बिगाड़ नहीं पायीं। हम जिस चाल में रहते थे, वहां एक सोशल वर्कर रहती थीं। आशा दाभोलकर, उन्हीं की बदौलत मैं नारी निकेतन एनजीओ पहुंची और बाद की जिंदगी के दस साल गुजारे। नारी निकेतन ने ही मुझे बीए तक पढ़ाया और उन्होंने ही मेरी रमन के साथ शादी कराई। रमन बहुत अच्छे इंसान हैं। उन्होंने अपनी संवदेनशीलता के कारण मुझ जैसी लड़की से शादी की और मुझे वह सब कुछ दिया, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। मुझे अब सब कुछ भूल जाना चाहिए था। आखिरकार मेरे टूटे फूटे अतीत को रमन ने एक खुशनुमा वर्तमान बना दिया था। लेकिन यह पता नहीं कैसा मनोविज्ञान था कि मुझे न अपना सुख अच्छा लगता थाए न सुरक्षा अच्छी लगती थी। न खुशी, न खुशियों से भरा जीवन। मेरे अंदर तिलतिलकर ढही और मरी मम्मी और उसका अधमरा वायरस जो घुसा था। यह वायरस मुझे किसी खुशी, किसी सम्मान का सुख नहीं लेने देता था। जब भी मुझे यह एहसास होता मैं बहुत सुरक्षित हूं तो पता नहीं क्यों इस सुरक्षा से बगावत करने लगती। क्या यह मेरे अंदर मौजूद मम्मी थी, जो इस खुशी से इस सुरक्षा से बगावत कर रही थी? पता नहीं.... लेकिन जब इस मुंबई शहर में मुझे सुरक्षा का एहसास होता तो एक बीमार मन मेरे अंदर उन्मादित होने लगता। दिल असुरक्षित होने के जख्मों की ख्वाहिशें करने लगता। मैं बहुत दिनों तक सोचती रही कि ऐसा क्यों है? मुझे लगा शायद घर में रहने के कारण ऐसा होता है, तो मैंने नौकरी कर ली। संयोग से जिस कंपनी में एक क्लर्क के रूप में काम कर रही थी, वहां से बनर्जी का ऑफिस दूर नहीं था। एक दिन मैं उसके ऑफिस पहुंची। वह मुझे पहले तो पहचान नहीं पाया फिर मैंने मम्मी पापा का नाम बताया तो उसने पहचानने की कोशिश की और तुरंत कर भी लिया।
फिर तो उसने मेरी तारीफ भी की कि मैं अपनी मम्मी से कम सुंदर नहीं हूं। जब उसे लगा कि मेरे अंदर कोई गुस्सा, तनाव या मम्मी की मौत को लेकर उसके विरूद्ध कोई गिला शिकवा नहीं है तो वह मेरे साथ न सिर्फ सहज हो गया बल्कि अधेड़ से ज्यादा होने के बाद भी मुझ पर डोरे डालने लगा। मैंने उससे कहा आपके बहुत बड़े-बड़े कांटेक्ट हैं, मैं बीए पड़ी हूं। मेरी कहीं अच्छी जगह नौकरी लगवा दीजिए। उन दिनों मुंबई में हीरानंदानी डेवलपर्स की तूती बोलती थी। मुझे मालूम था कि मुंबई में बीयर बार बंद होने के बाद बनर्जी का सारा काम सिक्यूरिटी का ही है और हीरानंदानी में भी सिक्यूरिटी का ठेका उसी का है। मेरी फरमाइश ने उसके अंदर एक कहानी की नींव डाल दी। बड़ी तेज़ी से वह कल्पना का जाल बिछाते हुए मेरी नौकरी लगवाने के लिए तैयार हो गया। उसने मेरी मम्मी के किये पर अफसोस भी जताया और अगले दिन शाम को आने के लिए कहा। मैंने कहा मैं कल नहीं शनिवार को आ पाऊंगी। वह मान गया। मैं दो दिनों में अपने अंदर के उस वायरस को खत्म करने की हिम्मत जुटायी, जो मुझे जीने भी नहीं दे रहा था और मरने भी नहीं दे रहा था। दो दिनों तक बनर्जी ने भी मुझे लेकर कई तरह की कल्पनाएं की होंगी। क्योंकि मैंने कह दिया था कि मैं दफ्तर के बाद ही आ पाऊंगी और उसने भी इशारों-इशारों में मुझे बताया था कि पहले वह मुझे वहां के एचआरडी से दफ्तर के बाहर मिलवायेगा और बाहर का मतलब उसे पता था, मैं समझ रही हूं। 
बहरहाल उस शनिवार मैं पूरी तैयारी के साथ गई थी आर या पार हो सकता है यह संयोग हो या हो सकता है, कुदरत भी मेरे साथ रही हो। सब कुछ वैसा ही हो रहा था, जैसे मैं कल्पना कर रही थी। वह मुझे भी पवई लेक के ऊपर पहाड़ी में बनी उसी कोठी में ले गया, जहां पापा को आखिरी बार ले गया था।