दादाजी की धूप

आज इतवार था। लगभग नौ बजने को थे। सूर्य रश्मियां सुबह से ही बिल्लू और छोटी की बन्द खिडकी के बाहर उपेक्षित सी पसरी पड़ी थी कि कब यह खिड़की खुले और वह अन्दर जाकर उन दोनों के साथ खेलें।
दादाजी तो अलसबेरे ही जागकर बाहर आँगन में आकर बैठ गये थे। खिड़की के बाहर पसरी धूप उन्हें देख तनिक उनके पास सरक आयी थी। मुरझायी सी धूप देखकर दादाजी हल्के से मुस्कराये और बोले-‘क्या सोच रही हो मेरी प्यारी सूर्यबालायें’
क्या सोचूंगी, इतनी दूर से आकर इतनी देर से बिल्लू और छोटी के कमरे में घुसने की कोशिश कर रही हूँ ताकि उनके साथ मिल सकूं, पर वे दोनों हैं कि जगते ही नही। वैसे आप जब छोटे थे तब आप तो हमारे साथ खूब ही खेलते थे। है न’ धूप तनिक ठहरते हुए बोली।
दादाजी अब मुस्कराये ‘हां तुम सही कह रही हो मेरी प्यारी रश्मियां। कुछ अतीत में खोते हुये दादाजी बोले-‘हमारे बचपन में इतवार इतना सूना कहां होता था, शनिवार की शाम को ही अगले दिन यानी इतवार का पूरा कार्यक्रम बन जाता था मतलब कल हमारी स्कूल से और पिताजी की ऑफिस से छुट्टी है तो सारे रह गये कार्य कल ही करने है। हम बच्चों को तो टीवी का बड़ा शौक रहता था कि कब मां पिताजी कामों से छुट्टी दें तो हम टीवी देंखे। बस सुबह से ही घर में हलचल शुरु हो जाती थी, मां पिताजी अलसबेरे ही जगाकर नहला देते थे और फिर मंदिर जाने का फरमान जारी हो जाता था...
धूप ठहर गयी थी शायद उसको भी मजा आने लगा था अतीत का।
‘जैसे-तैसे सारे काम निबटा कर जब टीवी देखने बैठते थे तो उसका एन्टीना ही खराब हो जाता था। तुम भी तो उस समय कैसी कड़क हो जाती थी दोपहर में मेरी सूर्य किरण।’
‘हूँ! झेंपी सी सूर्य किरण सकुचायी और बोली ‘पर तुम कहां मेरी परवाह करते थे तब मुझे लपेटते हुए कोसते-करते भी छत पर चढ़ के बार-बार एंटीना ठीक करते थे, मेरी परवाह ही कहां की थी, तुम्हारे समय के बच्चों ने और आज ये बच्चे मेरे डर से बाहर निकलते ही नहीं है।’ 
‘हां, तुम सही कह रही हो सूर्य किरण, हम बच्चे उस समय दिन को पूरा जीते थे, खिड़की पर खड़े कर हवा को महसूस करते थे, आपस में बातें करके, मां के साथ हाथ बंटाकर, पिताजी के साथ बाज़ार के ढ़ेरों काम करके, अपने दोस्तों से मिलकर, दिन के पूरे उजलेपन को जीते थे और अपने आपको आने वाले सात दिनों के लिये तैयार करते थे...किन्तु आज यह सब कहां।’
अचानक अपने तन पर गरम-सा स्पर्श महसूस करते हुए दादाजी आज में लौट आये थे। देखा धूप दोपहर की तल्खी धारण कर उन्हें अतीत से जगा रही थी। (सुमन सागर)

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