दिल्ली से देहरादून
यात्राएं तो ज़िंदगी में बहुत की हैं पर इतने वर्ष बीत जाने पर भी दिल्ली से देहरादून के छोटे से सफर की वह यात्रा आज तक नहीं भूली है। भूले भी कैसे, उसने तो मेरी जिंदगी ही बदल दी।
खैर, यह यात्रा कुछ अलग ही होने वाली है इसका कुछ आभास तो दिल्ली के बस अड्डे पर ही हो गया था। उस दिन कोई बड़ा प्रदर्शन था या किसी अन्य कारण जाम लग गया था, बसें कुछ समय के लिए रुक गईं थीं। फिर बसें चलनी शुरू हुई तो भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि पहली दो बसों में तो जगह ही नहीं मिली। सुबह के चले हुए किसी तरह दोपहर तक ही दिल्ली से निकल सके।
मेरी सीट पर जो एक महिला बैठी थी, वह वैसे तो बहुत आकर्षक व्यक्तित्व और नम्र स्वभाव की महिला थी, पर शीघ्र ही उनके स्वभाव से पता चल गया कि वह बहुत घबराई हुई है। कभी घड़ी देखती थी, कभी पीछे देखती थी, कभी सिर को हाथ से पकड़ कर बैठ जाती थी।
मेरे हाथ में एक किताब थी वह उनकी ओर गिर गई तो वह उठा कर मुझे पुस्तक देने लगीं। इसी क्रम में पुस्तक के कवर पर उनकी नज़र पड़ गई और उन्होंने कहा -ओह चिपको आंदोलन! क्या मैं इस बुक को देख सकती हूं।
-ज़रूर।
मुझे अच्छा लगा कि बातचीत का सिलसिला चला।
अपनी घबराहट के बावजूद उन्होंने पुस्तक के पृष्ठ बड़ी रुचि से पलटे और फिर पुस्तक लौटाते हुए कहा- बहुत अच्छी पुस्तक लग रही है।
- आपको इस आंदोलन में रुचि है?
- हां, जिस स्कूल में मैं पढ़ाती हूं वहां हमने भी सुन्दरलाल बहुगुणा को नेचर क्लब की ओर से बुलाया था। नेचर क्लब की अध्यक्ष में ही हूं। उनका भाषण सुन, बातचीत कर इस बारे में बहुत रुचि हो गई।
- ओह! मैं भी इस आंदोलन के कार्यकर्ताओं से सहयोग के लिए उत्तराखंड जाता रहता हूं।
इस आधार पर हमारा विश्वास कायम हो गया तो मैंने कहा- मेरा नाम सक्षम है।
- मैं मीना हूं।
- आपसे एक बात पूछूं? मुझे ऐसे लगा कि आप कुछ समय से घबराई हुई लग रही हैं। कोई चिन्ता की बात तो नहीं?
- मैंने सोचा था अंधेरा होने से पहले देहरादून आराम से पंहुच जाएंगे। पर जब निकले ही दोपहर को हैं तो अब रात तो हो ही जाएगी।
- आप इसकी चिन्ता न करें। मैं देहरादून में आपको घर तक पहुंचा दूंगा। और कोई बात तो नहीं?
वह कुछ देर चुप रही। उसके चेहरे पर डर और घबराहट फिर आ गए। उसने दबी हुई आवाज़ में कहा- मुझे लगता है जब से मैं घर से चली हुई हूं तो दो गुंडे मेरा पीछा कर रहे हैं।
- कौन?
- देखिए आप इस तरह चेहरे पर जाहिर मत होने दीजिए कि मैं ऐसी कोई बात आपसे कर रही हूं। मैं जब से घर से चली तो दो आदमी मेरे पीछे-पीछे आते रहे। फिर बस स्टैंड की भीड़ में भी नज़र आए। फिर उसी बस पर चढ़े जिस पर मैं चढ़ी।
- वे हैं कौन?
- प्लीज जाहिर न करें कि मैं इस बारे में आपको बता रही हूं। आप कंडक्टर के पास तक इस तरह जाईए जैसे कुछ पूछने जा रहे हों। फिर उससे ऐसा कुछ पूछ लीजिए कि बस देहरादून कब तक पहुंचेगी। फिर आप लौटेंगे तो स्वाभाविक तौर पर आप पीछे देख सकेंगे। हमसे दाईं ओर की जो सीटें हैं, उनमें हमसे तीन सीट छोड़कर देखना। वहीं दो गुंडे हैं जो मेरा पीछा कर रहे हैं।
मैंने वैसा ही किया और जो दो व्यक्ति मुझे नज़र आए वे वास्तव में बाकी यात्रियों से अलग लगे, अपराधी प्रवृत्ति के ही लगे।
मैंने लौट कर धीमी आवाज में कहा- आपका शक वाजिब है। कहिए तो मैं बस किसी पुलिस चौकी या थाने के पास रुकवाने के लिए कहूं।
- पर मेरे शक का कोई प्रमाण मेरे पास नहीं है और बिना किसी प्रमाण के मैं पुलिस को कहूंगी क्या?
- तो फिर बताईए कि क्या करें?
- क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम किसी तरह इन्हें चकमा देकर कहीं पहले ही उतर जाएं?
- ठीक है। आपके पास कोई बैग वगरैह तो नहीं है?
- नहीं, बस यही पर्स है। इसी में बहुत कुछ भर लिया है।
- बढ़िया। मेरे पास भी इस यही हैंडबैग है।
मेरठ बस रुकी तो मैंने स्थिति का सावधानी से मुआयना कर दबी आवाज में कहां- मीना जी देखिए वहां चाय पीते हैं। फिर बीच में मैं वाश रूम की ओर जाऊंगा दाईं तरफ जहां से मेन रोड बिल्कुल पास है। मैं वहां से टहलता हुआ मेन रोड पर एक ऑटो वाले को रुकवा लूंगा। आप मेरे हाथ के इशारे को देखते ही तुरंत चली आना।
ऐसा ही हुआ। मैंने ऑटो को हर मोड़ पर मुड़ने को कहा जिससे कोई पीछा कर भी रहा हो तो उसे आसानी से पता न चले। फिर भी अपनी जान-पहचान के एक होटल-रेस्त्रां में चलने के लिए कह दिया। रेस्त्रां के एक कोने में अपनी जगह चुनी व वहां तसल्ली से बैठ गए।
कॉफी और स्नैक्स का आर्डर देकर मैंने मीना से कहा- आईए अब विचार करें कि आगे क्या करना है।
- पर इससे पहले मैं आपको कुछ बैकग्राऊंड बता दूं तभी आप सही स्थिति समझ पाएंगे।
मीना ने गहरी उदासी से कहा- मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूं। कुछ समय पहले एक एक्सीडैंट में उनकी मौत हो गई। दिल्ली में हमारा भरा-पूरा परिवार उजड़ गया और मैं अकेली रह गई। अब खानदानी जायदाद का पिताजी वाला हिस्सा मेरे नाम होना है व इसके लिए कागज-पत्र तैयार हो रहे हैं। इससे जुड़े काम के लिए ही मैं अपने चाचाजी सेठ धनराय के पास देहरादून जा रही हूं जो देहरादून में कानपुर रोड पर रहते हैं। पर घर से बाहर निकलते ही इन दो गुंडों द्वारा पीछा करने के कारण अब इस स्थिति में हूं।
हम दोनों इस स्थिति पर कुछ देर तक विचार करते रहे। फिर मीना ने कहा- अब सूरज तो यहीं ढलने लगा है व सर्दियों में दिन वैसे ही छोटे होते हैं। वे बदमाश भी हमें आसपास खोज ही रहे होंगे। तो क्या यह संभव है कि हम आगे देहरादून न जाकर सुबह ही जाएं ताकि रात के सफर से बच जाएं? मुझे लगा कि रात के सफर से मीना कुछ ज्यादा ही डर रही है, पर फिर यह भी याद आया कि आगे की यह सड़क रात को महिलाओं के टैक्सी सफर के लिए सुरक्षित नहीं मानी जाती है, फिर मीना के पीछे तो वैसे भी दो गुंडे लगे हुए हैं। (क्रमश:)