अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार-2025

बानू मुश्त़ाक बनीं कन्नड़ भाषा की पहली विजेता

मेहरून तीन बच्चों की मां है। वह बर्दाश्त की सीमा पार कर चुकी है। जब उसका पति दूसरी शादी कर लेता है तो वह अपने जीवन का अंत करने का फैसला करती है; क्योंकि ‘मेहरून के दिल का दीया तो बहुत पहले ही बुझ चुका था’। वह अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल लेती है और दियासलाई जलाने वाली होती ही है कि तभी उसकी बेटी सलमा अपनी छोटी बहन को लेकर उसके पास दौड़ी हुई आती है और आग्रह करती है कि वह उन्हें अनाथ न करे। 
यह सार है कन्नड़ कहानी ‘हृदय दीपा’ का, जिसे 1990 से 2023 के बीच में लिखी गईं 11 अन्य कहानियों के साथ इसी शीर्षक के कहानी संग्रह में शामिल किया गया है। बानू मुश्त़ाक की इन कन्नड़ कहानियों का अंग्रेज़ी में ‘हार्ट लैंप’ के शीर्षक से अनुवाद दीपा भास्थी ने किया है। ‘हार्ट लैंप’ को 2025 के अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस तरह बानू मुश्त़ाक ने कई मायनों में इतिहास रच दिया है। सबसे पहली बात तो यह है कि ‘हार्ट लैंप’ लघुकथाओं का पहला संग्रह है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। दूसरा यह कि यह पहला अवसर है, जब कन्नड़ को सम्मानित किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार अंग्रेज़ी में अनुदित फिक्शन के लिए दिया जाता है और इसकी पुरस्कार राशि 50,000 पौंड होती है, जो विजेता मूल लेखक व अनुवादक में बराबर-बराबर विभाजित की जाती है। 
बुधवार (21 मई 2025) को लंदन के टेट मॉडर्न में दीपा भास्थी के साथ इस प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार को ग्रहण करते हुए कन्नड़ लेखिका, वकील व एक्टिविस्ट बानू मुश्त़ाक ने कहा, ‘इस पल ऐसा महसूस हो रहा है जैसे हज़ार जुगनुओं ने एक आसमान को रोशन कर दिया हो- संक्षिप्त, शानदार और पूर्णत: सामूहिक।’ हालांकि यह कहानियां दक्षिण भारत के पितृसत्तात्मक समुदायों (विशेषकर मुस्लिम समुदाय) में महिलाओं के दैनिक परीक्षणों, क्लेशों व संघर्षों को व्यक्त करती हैं, लेकिन यह सार्वभौमिक भी हैं; क्योंकि यह चरित्र व कहानियां भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में हर जगह पायी जा सकती हैं। प्रजनन अधिकार जिनका अक्सर शोषण होता है, जीवन की गतिशीलता जिसमें शक्ति की लगाम पुरुषों के हाथ में होती है और पुरातनपंथी समाज का दमन जो बामुश्किल ही महिलाओं की स्वायत्तता को बर्दाश्त करता है ...सार्वभौमिक विषय हैं जो किसी धर्म, जाति या क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं। बानू मुश्ताक की कहानियां कहीं भी काल्पनिक प्रतीत नहीं होती हैं बल्कि पूर्णत: वास्तविक लगती हैं, जिन्हें गहरे अवलोकन, एहसास, व्यंग्य व शुष्क हास्य के साथ लिखा गया है। 
बानू मुश्ताक के संसार प्रेम व रोमांस को जानबूझकर हाशिये पर रखा गया है और सभी मानव हिंसा को लैंगिक शक्ति समीकरण व पुरुषों के मूड स्विंग के इर्दगिर्द समेट दिया गया है। यह गरीब महिलाओं की कहानियां अवश्य हैं, लेकिन सभी अच्छे साहित्य की तरह यह हमें वह दिखाती हैं, जो हम देख नहीं पाते या देखना नहीं चाहते। बानू मुश्ताक, 77 का कहना है, ‘हार्ट लैंप ने इस यकीन के साथ जन्म लिया कि कोई कहानी कभी छोटी नहीं होती है। मानव अनुभव के ताने बाने में प्रत्येक धागा सम्पूर्ण का बोझ उठाये होता है। संसार जो हमें हमेशा बांटने का प्रयास करता है, उसमें साहित्य वह खोयी हुई पवित्र जगह रहती है, जिसमें हम एक दूसरे के मन में रह सकते हैं, भले ही चंद पृष्ठों के लिए।’ दरअसल, बानू मुश्ताक ने अपनी लेखन प्रतिभा को 1970 व 1980 के दशकों के बंदया साहित्य आंदोलन के दौरान खोजा, जो सवर्ण जाति के नायिकत्व और अधिकतर पुरुष-नेतृत्व लेखन के विरोध में था। 
इस आंदोलन ने महिलाओं, दलितों और अन्य सामाजिक व धार्मिक अल्पसंख्यकों से आग्रह किया कि वह अपने द्वारा जीये गये अनुभवों पर कहानियां लिखें और वह भी उस कन्नड़ में जिसे वह बोलते हैं। इस तरह बानू मुश्ताक की उन कहानियों ने जन्म लिया जिनमें महिलाएं सिर्फ कमज़ोर नहीं हैं बल्कि इतनी मज़बूत भी हैं कि मामले को अपने हाथ में लेने से भी पीछे नहीं हटतीं। मसलन, ‘ब्लैक कोबरा’ में अशरफ एक गरीब महिला है। उसका पति उसका व उसके बच्चों को छोड़ देता है। वह मदद के लिए मुतवल्ली (धार्मिक सम्पत्तियों का प्रबंधक) के पास जाती है, लेकिन उसे कोई मदद नहीं मिलती। अशरफ तो बेसहारा रहती है, लेकिन गांव की महिलाएं कोबरा की तरह मुतवल्ली पर ज़हर थूकती हैं। जब वह घर लौट रहा होता है तो एक महिला उसके पत्थर मारते हुए चिल्लाती है, ‘कुत्ते, तू सिर्फ कुत्ता ही रहेगा।’ दूसरी चिल्लाती है, ‘तेरा कभी भला नहीं होने का ...काले नाग तुझे डसेंगे।’ मुतवल्ली जब घर पहुंचता है तो उसकी पत्नी उसकी हत्या कर देती है। 
एक महिला ही दूसरी महिला के दर्द को अच्छी तरह से समझ सकती है। शायद ‘हार्ट लैंप’ की अंतिम कहानी में खुदा से एक बार महिला बनने के लिए कहा गया है- ‘अगर तुम इस संसार की फिर से रचना करो, फिर से पुरुषों व महिलाओं को बनाओ, तो ़गैर-अनुभवी कुम्हार की तरह मत बनना। पृथ्वी पर महिला की तरह आना, प्रभु। एक बार महिला बनना।’ बानू मुश्ताक का जन्म कर्नाटक के एक छोटे से गांव में हुआ। अपनी साथी लड़कियों की तरह प्रारम्भ में उन्हें भी कुरान पढ़ाया गया। लेकिन उनके पिता, सरकारी कर्मचारी, उन्हें स्कूली शिक्षा भी दिलाना चाहते थे, इसलिए उनका दाखिला एक कान्वेंट स्कूल में करा दिया गया, जिसमें कन्नड़ भाषा में शिक्षा दी जाती थी, जो बाद में उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा बन गई। उन्होंने स्कूल में ही लिखना शुरू कर दिया था। लेकिन उनकी पहली कहानी स्थानीय पत्रिका में उस समय प्रकाशित हुई जब उनकी शादी का एक वर्ष पूरा हो चुका था। हालांकि उन्होंने 26 साल की आयु में अपनी पसंद से शादी की थी, लेकिन उनका शुरुआती वैवाहिक जीवन टकराव व तनाव से भरा रहा। वह अपने घर में एक तरह से कैद होकर रह गईं थीं। इस हताशा भरी ज़िंदगी से तंग आकर एक बार उन्होंने अपने ऊपर वाइट पेट्रोल छिड़क लिया। वह दियासलाई जलाने वाली ही थीं कि समय रहते उनके पति ने उन्हें गले लगा लिया, अपने बच्चे को उनके कदमों पर रखा और खुदकुशी न करने का आग्रह किया। 
इसके बाद बानू मुश्ताक एक प्रमुख पाक्षिक के लिए रिपोर्टर के तौर पर काम करने लगीं और बंदया आंदोलन से भी जुड़ गईं। दस वर्ष पत्रकारिता करने के बाद अपने परिवार को आर्थिक सहारा देने के लिए वह वकालत करने लगीं। उनके अब तक छह कहानी संग्रह, एक निबंध संग्रह व एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। अपने लेखन के ज़रिये उन्होंने मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया तो नफरत का भी सामना करना पड़ा। बहरहाल, बानू मुश्ताक की सफलता भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के लिए अच्छी खबर है। गौरतलब है कि 2022 में गीतांजली श्री को ‘रेत समाधि’ (टूम्ब ऑ़फ सैंड) के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर प्राइज मिला था, जिसका डेज़ी रॉकवेल ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था और 2023 में पेरूमल मुरुगन की ‘पायर’ (तमिल से अंग्रेजी में अनिरुद्धन वासुदेवन द्वारा अनुदित) को इसी पुरस्कार के लिए लोंगलिस्ट किया गया था। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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