जागरूकता संबंधी सेमीनार
प्रदूषण की विकट समस्या से निपटने के लिए हमारे महानगर में एक एनजीओ यानी नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाइजेशन अर्थात् स्वयं सेवी संस्था है। अपने नाम के अनुरूप इसमें स्ती भर भी गवर्नमेंट नहीं है और सभी स्वयं अपनी-अपनी सेवा में लगे हुए हैं। इस संस्था का नाम भी बड़ा खूबसूरत है- ‘निर्मला’। वैसे इस नाम का साफ-सफाई से कुछ लेना-देना नहीं है। वस्तुत: निर्मला इसके संस्थापक अध्यक्ष की बीवी का नाम है, जिन्होंने संस्था की अपनी बीवी ही समझते हुए, इसे अपनी बीवी का ही नाम दे दिया है।
‘निर्मला’ महानगरवासियों में प्रदूषण के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से निरंतर विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन करती रहती है। इसकी जन-सभाओं और नगर-फेरियों के बाद अक्सर महानगर का कोना-कोना महान जागरूकता से भर जाता है। महानगर के चप्पे-चप्पे पर उन फटे पोस्टरों और पर्चों के ढेर लग जाते हैं जिन पर जनता से नगर को साफ रखने की अपील की गई होती है। इसी क्रम में एक बार ‘निर्मला’ ने निर्णय लिया कि क्यों न एक बड़े स्तर का प्रदूषण-जागरूकता संबंधी सेमीनार करवाया जाए। तय हुआ कि महानगर के किसी टॉप-क्लास क्लब में मिनरल वॉटर की बोतलें पीते हुए, बड़े ही साफ सुथरे ढंग से महानगर को गंदगी और प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए विचार किया जाए। एक तो सरकारी अनुदान में ‘निर्मला’ को मिली धनराशि का उपयोग हो जाएगा और दूसरे महानगरीय इलाकों में वाहवाही भी हो जाएगी।
सेमीनार का ‘नारा’ निर्धारित किया गया-महानगर को बचाना है। महानगर की प्रदूषण संबंधी समस्या से संबंधित सभी ज़िम्मेदार लोगों को बुलाया गया सेमीनार में...। जन प्रतिनिधि, राजनेता, निगम अधिकारी, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अफसर, ट्रैफिक पुलिस और अनेक गण्मान्य व्यक्ति आदि-आदि इत्यादि।
स्वाभाविक रूप से सबसे पहले जनप्रतिनिधियों एवं राज नेताओं को मंच पर आने का अवसर मिला। ये अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुरूप ‘प्रदूषण’ को मुद्दा बना कर विपक्षियों पर वार करने की कोशिश में दिखे। इन्हें समस्याओं से ज्यादा इस बात की फिक्र थी कि इससे राजनीतिक फायदा कैसे उठाया जाए। विपक्षी राजनेताओं ने समस्या की सारी जिम्मेदारी सत्ता पक्ष पर डाल कर उन्हें निकम्मा साबित करने की पुरजोर कोशिश की। दूसरी ओर सत्ता पक्ष के लीडरों के पास अर्थहीन घोषणाओं एवं अंतहीन आश्वासनों का लंबा सिलसिला था। गुटनिरपेक्ष किस्म (यानी घर के न घाट के) के नेताओं ने बड़ी सुंदर-सुंदर सलाहें दीं।
महानगर की सफाई व्यवस्था आदि के लिए ज़िम्मेदार निगम अधिकारी अपनी ज़िम्मेदारी से भागते दिखे। एक अधिकारी ने कहा- ‘हालात के लिए अकेला नगर निगम ज़िम्मेदार नहीं...।’ दूसरे अधिकारी कोई ठोस बात कहने के बजाय सिर्फ यही कहते रहे कि ऐसा होना चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए। निगम के राजनीतिक नेता ने सलाह दी ‘सीवरेज सिस्टम में सुधार की ज़रूरत है...।’ भविष्य की ज़रूरतों को ध्यान में नहीं रखा गया। कुछ निगम अधिकारी तो जनता को गुनहगार मान कर उसे नसीहतें देने लगे। एक ने उपदेश दिया- ‘जनता अपना नहीं, दूसरों का हित देखे।’ एक और अधिकारी ने समझाया- ‘लोग बनें जागरूक...’ (ताकि आप सब आराम से सो सकें)
बिना किसी ठोस योजना के भटकने वाले निगम अधिकारी दूसरों को ज़िम्मेदार मानने और जनता को नसीहतें देने के बाद हटे तो मोर्चा संभाल लिया प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड वालों ने... इन्हें महानगर के प्रदूषण को नियंत्रण में लाने का काम मिला हुआ है, पर इसके अधिकारी मुंह परली तरफ मोड़े मिले।
इसके बाद बारी आई ट्रैफिक पुलिस की... ज़िम्मेदारियों से भागने और लापरवाही बरतने में जिनका कोई सानी नहीं है। एक बड़े साहब बोले- ‘हमारे पास पर्याप्त संख्या नहीं है...।’ डिप्टी ‘साहब’ और भी सयाने निकले- ‘आप योजना बनायें... हम उसे लागू करेंगे...’
इनके बाद और भी कुछ गण्मान्य व्यक्तियों ने भाषण दिया। ‘पहले आने वाले लोग सारी बातें कह चुके हैं... इसलिए मैं ज्यादा समय नहीं लूँगा...’ कहकर भी उन्होंने अपनी-अपनी खूब हांकी।
अन्तत: विमर्श-सत्र में बड़े गहरे विचार-विमर्श के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि महानगर की प्रदूषण समेत सभी समस्याओं की जड़ जनता है। यह खुद तो कुछ करती नहीं और हमारे सामने समस्याओं का पिटारा खोले रहती है। इसे समस्याएं सुनाने के सिवा कोई काम नहीं... वास्तव में अपनी हर समस्या के लिए जनता स्वयं ज़िम्मेदार है... सो इसे अपनी सारी समस्याएं खुद ही दूर करनी होंगी...।
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सेमीनार समाप्त हुआ और सभी खाना-वाना छक कर अपने-अपने घरों को लौट गये। मो. 62396.01641