हरिद्वार के मंदिर में भगदड़, सरकार हादसों से सबक क्यों नहीं लेती ?
उत्तराखंड के प्रसिद्ध तीर्थस्थल के मनसा देवी मंदिर के मार्ग में मची भगदड़ से आठ लोगों की मौत हो गईं और 40 लोग घायल हैं। यह शिवालिक पहाड़ियों पर 500 फीट की ऊंचाई पर यह घटना एक विद्युत मीटर के निकट बिजली का करंट फैल जाने की अफवाह से लगी। सावन का महीना और रविवार का दिन होने के कारण सुबह से ही बहुत भीड़ थी। बावजूद इस संकरे मार्ग पर सुरक्षा के कोई पुख्ता प्रबंध नहीं थे। जबकि इसी रास्ते से लोग आ जा रहे थे। जबकि हाल ही में जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा और बेंगलुरु में खेले गए क्रिकेट मैच के चलते दो बड़ी घटनाएं घटी हैं, फिर भी प्रशासन ने सबक लेते हुए कोई सतर्कता नहीं बरती। आखिर सोया प्रशासन कब जागेगा? वैसे भी हरिद्वार धार्मिक उत्सव और कुंभ जैसे मेले को आयोजित कराने वाला नगर है, इसलिए वहां के प्रशासन को हर वक्त चैतन्य रहने की ज़रूरत है।
धार्मिक उत्सवों में दुर्घटनाओं का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। यदि हरिद्वार की ही बात करें तो 1912 के कुंभ में भगदड़ से 7 लोगों की 1966 में 12, 1986 में 52, 1996 में 22, 2010 में 7 और 2011 गायत्री यज्ञ में भगदड़ होने से 20 लोगों की मौतें हुई थीं। भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही है। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल इस तरह के धार्मिक मेलों में देखने में आ रहा है। साफ है, प्रत्येक कुंभ में जानलेवा घटनाएं घटती रहने के बावजूद शासन-प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिए। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किन्तु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती, अतएव: उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती? लिहाजा आज़ादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते? अतएव: देखने में आता है कि आयोजन को सफल बनाने में जुटे अधिकारी भीड़ के मनोविज्ञान का आकलन करने में चूकते दिखाई देते हैं।
ज़रूरत से ज्यादा प्रचार करके लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित किया जाता है। फलत: जनसैलाब इतनी बड़ी संख्या में उमड़ जाता है कि सारे रास्ते पैदल भीड़ से जाम हो जाते हैं। इसी बीच लापरवाही यह रही कि बाहर जाने के रास्ते को नेता और नौकरशाहों के लिए आरक्षित कर दिया गया और दो ट्रक आम रास्ते से मंदिर की ओर भेज दिए। इस चूक ने घटना को अंजाम दे दिया। जो भी प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकि उपाय किए गए थे, वे सब व्यर्थ साबित हुए। क्योंकि उन पर जो घटना के भयावह दृश्य दिखाई देने लगे थे, उनसे निपटने का तात्कालिक कोई उपाय ही संभव नहीं रह गया था। ऐसी लापरवाही और बदइंतजामी सामने आना चकित करती है। दरअसल रथयात्रा में जो भीड़ उमड़ी थी, उसके अवागमन के प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की ज़रुरत थी, उसके प्रति घटना से पूर्व सर्तकता बरतने की ज़रूरत थी? इसके प्रति प्रबंधन अदूरदर्शी रहा। मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से लेते हैं। जो भारतीय मेलों के परिप्रेक्ष्य में कतई प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जाती? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूड़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। जो इस रथयात्रा में देखने में आई है। आम श्रद्धालुओं के बाहर जाने का रास्ता इन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित कर दिया गया था। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ गई और दुर्घटना घट गई। दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुष्ठान अशक्त और अपंग मनुश्य की वैसाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गड़कर उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा और मुहूर्त की शुभ घड़ियों में सिमट जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिष्क में हृस हो जाता है तो मानव समुदाय भजन-कीर्तन में लग जाता है। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सड़क दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।
मीडिया इसी पूजा-पाठ का नाट्य रूपांतरण करके दिखाता है, यह अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को भाग्य और प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 5000 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। परंतु इस तरह के खोखले दावों का दांव हर मेले में ताश के पत्तों की तरह बिखरता दिखाई दे रहा है। जाहिर है, धार्मिक दुर्घटनाओं से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है?